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________________ भारतीय संस्कृति की जीवन-दृष्टि सम्यक्-जीवन-दृष्टि का विकास आवश्यक ___ मानव व्यक्तित्व का विकास उसकी अपनी जीवन-दृष्टि पर आधारित होता है। व्यक्ति की जैसी जीवनदृष्टि होती है, उसी के आधार पर उसके विकास की दिशा निर्धारित होती है। कहा भी गया है कि 'यादृशी दृष्टि तादृशी सृष्टि', व्यक्ति की जिस प्रकार की जीवनदृष्टि होती है, उसी प्रकार उसका जीवन व्यवहार भी होता है और जैसा उसका जीवन व्यवहार होता है, वैसा ही वह बन जाता है। आत्म-विकास के आकांक्षी तो सभी व्यक्ति होते हैं, किंतु उनके विकास की दिशा सम्यक् है या नहीं? यह बात उनकी सम्यक् जीवन-दृष्टि पर ही निर्भर होती है। अतः भारतीय दर्शन में सम्यक्जीवन-दृष्टि के विकास पर सबसे अधिक बल दिया गया है। जब व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक् होगा, तब ही आचार-व्यवहार भी सम्यक् होगा। जब तक दृष्टिकोण सम्यक् नहीं होगा, तब तक व्यक्ति का ज्ञान और आचरण भी सम्यक् नहीं होगा। यही कारण है कि चाहे जैनों का त्रिविध-साधना मार्ग हो या बौद्धों का अष्टांगिक मार्ग हो या गीता का योग मार्ग हो उसमें प्रथम स्थान सम्यक्-दर्शन या सम्यक्-दृष्टि को ही दिया गया है। सम्यक्-दृष्टि ही व्यक्ति के आत्म-विकास की सम्यक्-दिशा निर्धारित करती है और उसी के आधार पर व्यक्ति सम्यक्-दशा को प्राप्त करता है। किंतु यह सम्यक्-दशा अर्थात् मानव-जीवन के लक्ष्य की पूर्णता भी तभी सम्भव होगी, जब हमारे जीवन की दिशा अर्थात् जीवन जीने की पद्धति और जीवन-दृष्टि परिवर्तित होगी। यही कारण था कि भारतीय दर्शनों ने दर्शनविशुद्धि अर्थात् जीवन जीने के सम्यक् दृष्टिकोण पर सबसे अधिक बल दिया। अतः यहां व्यक्ति का जीवन-दर्शन अर्थात् जीवन जीने की दृष्टि क्या हो? इसे समझना परमावश्यक है। जीवन का सम्यक् लक्ष्य : समत्व का सर्जन और ममत्व का विसर्जन किसी भी धर्म के जीवन-दर्शन के लिए सबसे पहली आवश्यकता जीवन के सम्यक् आदर्श या लक्ष्य के निर्धारण की होती है। भारतीय दर्शनों में जीवन का लक्ष्य समभाव या समत्व की उपलब्धि बताया गया है। दूसरे शब्दों में जीवन में समत्व का अवतरण हो, यही जीवन का सम्यक् लक्ष्य है। क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार आत्मा समत्व रूप है और इस समत्व तनाव रहित शुद्ध चेतना को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का ( 5 )
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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