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________________ जो विज्ञान शब्द केवल पदार्थ-ज्ञान के रूप में रूढ़ हो गया है, वह मूलतः विशिष्ट ज्ञान या आत्मज्ञान ही था। आत्मज्ञान ही विज्ञान है। पुनः अध्यात्म शब्द भी अधि+आत्म से बना है। अधि' उपसर्ग भी विशिष्टता का ही सूचक है, जो आत्म की विशिष्टता है, वही अध्यात्म है। चूंकि आत्मा ज्ञान स्वरूप ही है, अतः ज्ञान ही विशिष्टता ही अध्यात्म है और वही विज्ञान है। फिर भी आज विज्ञान पदार्थ-ज्ञान के अर्थ में और अध्यात्म आत्मज्ञान के अर्थ में रूढ़ हो गया है। मेरी दृष्टि में विज्ञान साधकों का ज्ञान है तो अध्यात्म साध्य का ज्ञान। प्रस्तुत निबंध में इन्हीं रूढ़ अर्थों में विज्ञान और अध्यात्म शब्द का प्रयोग किया जा रहा है। एक हमें बाह्य-जगत् में जोड़ता है तो दूसरा हमें आत्मजगत् से। दोनों ही 'योग' हैं। एक साधन-योग्य है तो दूसरा साध्य-योग। एक हमें जीवनशैली (Life style) देता है तो दूसरा हमें जीवन-साध्य (Goal of life) देता है। आज हमारा दुर्भाग्य यही है कि जो एक-दूसरे के पूरक हैं उन्हें हमने एक-दूसरे का विरोधी मान लिया है। आज आवश्यकता इस बात की है कि इनकी परस्पर पूरक शक्ति या अभिन्नता को समझा जाए। आज हम विज्ञान को पदार्थ विज्ञान मानते हैं। यद्यपि आज हमने 'पर' या 'अनात्म' के संदर्भ में इतना अधिक ज्ञान अर्जित कर लिया है कि 'स्व' या आत्म' को विस्मृत कर बैठे हैं। हमने परमाणु के आवरण को तोड़कर उसके जर्रे -जर्रे को जानने का प्रयास किया, किंतु दुर्भाग्य यही है कि अपनी आत्मा के आचरण को भेदकर अपने आपको नहीं जान सके। हम परिधि को.व्यापकता देने में केंद्र को ही भुला बैठे। मनुष्य की यह परकेंद्रितता ही उसे अपने आप से बहुत दूर ले गई है। यही आज के जीवन की त्रासदी है। वह दुनिया को समझता है, जानता है, परखता है, किंतु अपने प्रति तन्द्राग्रस्त है। उसे स्वयं यह बोध नहीं है कि मैं कौन हूं ? मेरा कर्तव्य क्या है? लक्ष्य क्या है? वह भटक रहा है, मात्र भटक रहा है। आज से 2500 वर्ष पूर्व महावीर ने मनुष्य की उस पीड़ा को समझा था। उन्होंने कहा था कि कितने ही लोग ऐसे हैं जो नहीं जानते कि मैं कौन हूं? कहां से आया हूं मेरा गंतव्य क्या है? यह केवल महावीर ने कहा हो ऐसी बात नहीं है। बुद्ध ने भी कहा था ‘अदानं गवेस्सेथ' अपने को खोजो। औपनिषदिक ऋषियों ने कहा - 'आत्मानं विद्धि', अपने आपको जानो यही जीवन परिशोध का मूलमंत्र है। आज हमें पुनः इन्हीं प्रश्नों के उत्तर को खोजना है। आज का विज्ञान आपको पदार्थ जगत् के संदर्भ में सूक्ष्मतम सूचनाएं दे सकता है। किंतु वे सूचनाएं हमारे लिए ठीक उसी तरह अर्थहीन हैं जिस प्रकार जब तक आंख न खुली हो, प्रकाश का कोई (163)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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