________________ चाहता है। इसीलिए धर्म की कसौटी आत्मवत् व्यवहार माना गया ‘आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां मा समाचरेत्' के पीछे भी यही ध्वनि रही है। धर्म का सार है - निश्छलता, सरलता, स्पष्टता, जहां भी इनका अभाव होगा, वहां धर्म को जिया नहीं जाएगा अपितु ओढ़ा जाएगा। वहां धर्म नहीं, धर्म का दम्भ पनपेगा और हमें याद रखना होगा कि वह धर्म का दम्भ अधार्मिकता से अधिक खतरनाक है। क्योंकि इसमें अधर्म, धर्म की पोषाक को ओढ़ लेता है, वह दिखता धर्म है, किंतु होता है अधर्मी मानव जाति का दुर्भाग्य यही है कि आज धर्म के नाम पर जो कुछ चल रहा है वह सब आरोपित है, ओढ़ा गया है और इसीलिए धर्म के नाम पर अधर्म पनप रहा है। आज धर्म को कितने ही थोथे और निष्प्राण कर्मकाण्डों से जोड़ दिया गया है, क्या पहनें और क्या नहीं पहनें, क्या खाएं और क्या नहीं खाएं, प्रार्थना के लिए मुंह किस दिशा में करें और किस दिशा में नहीं करें, प्रार्थना की भाषा क्या हो, पूजा के द्रव्य क्या हों? आदि आदि। ये सब बातें धर्म का शरीर हो सकती हैं, क्योंकि ये शरीर से गहरे नहीं जाती हैं, किंतु निश्चय ही ये धर्म की आत्मा नहीं है। धर्म की आत्मा तो है-समाधि, शांति, निराकुलता। धर्म तो सहज और स्वाभाविक है। दुर्भाग्य यही है कि आज लोग धर्म के नाम पर बहुत कुछ कर रहे हैं परंतु अधर्म या विभावदशा को छोड़ नहीं रहे हैं। आज धर्म को ओढ़ा जा रहा है, इसीलिए आज का धर्म निरर्थक बन गया है। यह कार्य तो ठीक वैसा ही है जैसे किसी दुर्गंध को स्वच्छ सुगंधित आवरण से ढक दिया गया हो। यह बाह्य प्रतीति से सुंदर होती है किंतु वास्तविकता कुछ और ही होती है। यह तथाकथित धर्म ही धर्म के लिए सबसे बड़ा खतरा है, इसमें अधर्म को छिपाने के लिए धर्म किया जाता है। आज धर्म के नाम पर जो कुछ किया जा रहा है उसका कोई लाभ नहीं मिल रहा है। आज हमारी दशा ठीक वैसी ही है जैसे कोई रोगी दवा तो ले किंतु कुपत्य को छोड़े नहीं। धर्म के नाम पर आत्म-प्रवंचना एवं छलछद्म पनप रहा है, इसका मूल कारण है धर्म के सारतत्व के बारे में हमारा गहरा अज्ञान। हम धर्म के बारे में जानते हैं किंतु धर्म को नहीं जानते हैं। __ आज हमने आत्म-धर्म क्या है, हमारा निजगुण या स्वभाव क्या है, इसे समझा ही नहीं है और निष्प्राण कर्मकाण्डों और रीतिरिवाजों को ही धर्म मान बैठे हैं। आज हमारे धर्म चौके-चूल्हे में , मंदिरों-मस्जिदों और उपासना गृहों में सीमित हो गए हैं, जीवन से उनका कोई सम्पर्क नहीं है। इसीलिए वह जीवित धर्म नहीं, मुर्दा धर्म है। किसी शायर ने ठीक ही कहा है - मस्जिद तो बना दी पर भर में इमां की हरारत वालों ने। (149)