________________ उसमें समाहित है। प्रकृति पूजा के विविध रूपों से लेकर निर्गुण-साधना विकसित रूप उसमें परिलक्षित होता है। उसकी धार्मिक समन्वयशीलता हमारे सामने एक अद्वितीयक आदर्श उपस्थित करती है। धर्म के नाम पर जो लोग अपने स्वार्थ की सिद्धि या अहम् का पोषण चाहते हैं, उन्हें यदि एक ओर कर दें तो आज भी सामान्य हिन्दू या सामान्य मुसलमान सहयोग और सह-अस्तित्व की भावना के साथ जीते हैं। चाहे हम में भाष एवं व्यवहारगत भिन्नताएं हों, फिर भी लक्ष्यगत भिन्नता नहीं है। सभी उसी परमसत्ता से मिलन के आकांक्षी है। किसी हिन्दी कवि ने सही कहा है अलग - अलग नदियों के उद्गम अलग - अलग है नदियों के नाम। एक ही महासागर में पाने को विश्राम फिर भी बही चली जा रही है, अविराम // कबीरदासजी कहते हैं कि 'को हिन्दू को तुरक कहावे, एक ही माटी के भाण्डे'। अर्थात् एक ही देश की माटी से निर्मित एक ही प्रकार के शरीर के धारकों में कौन हिन्दू और कौन तुर्क, ऐसा भेद नहीं किया जा सकता है। गांधीजी का कथन था कि अल्लाह और ईश्वर उसी परमात्मा के नाम है। . मात्र यही नहीं, हिन्दूधर्म द्वारा जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को और बौद्धधर्म के भगवान् बुद्ध को ईश्वर के अवतार के रूप में स्वीकार कर लेना, हिन्दूधर्म की समन्वयवादिता का सबसे बड़ा प्रमाण है। जैन आचार्य हरिभद्र और हेमचंद्र के कथनों के अनुसार नामभेद को भिन्नता का आधार न मानकर विभिन्न नामों में उसकी परमसत्ता या परमात्मा का दर्शन करना धार्मिक सहिष्णुता का एक महत्त्वपूर्ण आधार है। किसी संस्कृत कवि ने भी कहा था कि - जिनकी शैवधर्म वाले शिव के रूप में उपासना करते हैं, जिन्हें वेदांत को मानने वाले ब्रह्म के नाम से पुकारते हैं, जैनधर्म को मानने वाले जिन्हें अर्हत् कहते हैं और मीमांसक जिसे कर्म करते हैं। प्रमाण प्रस्तुत करने में कुशल बौद्ध जिसे बुद्धनाम से अभिहित करते हैं और नैयायिक जिसे ईश्वर कहते हैं, वे परमात्मा हरि मुझे वांछित फल प्रदान करे। (210)