________________ चीड़ा देना पाप है कहकर परिभाषित किया था। पुण्य-पाप या धर्म-अधर्म के बीच यदि कोई सर्वमान्य विभाजक रेखा है तो वह व्यक्ति की लोकमंगल की या परहित की भावना ही है जो दूसरों के हितों के लिए या समाज कल्याण के लिए अपने हितों का समर्पण करना जानता है, वही नैतिक है, वहीं धार्मिक है और वही पुण्यात्मा है। लोकमंगल की साधना को जीवन का एक उच्च आदर्श माना गया था, यही कारण था कि भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को यह उपदेश दिया- 'चरत्थ भिक्खवे चारिक्कंबहुजनहिताय बहुजनसुखाय' अर्थात् हे भिक्षुओं! बहुजनों के हित के लिए और बहुजनों के सुख के लिए प्रयत्न करो। न केवल जैन धर्म, बौद्ध धर्म या हिन्दू धर्म की अपितु इस्लाम और ईसाई धर्म की भी मूलभूत शिक्षा लोकमंगल या सामाजिक हित-साधन ही रही है। इससे यही सिद्ध होता है कि सेवा और साधना में परस्पर समाहित है। यही कारण था कि वर्तमान युग में महात्मा गांधी ने भी दरिद्रनारायण की सेवा को ही सबसे बड़ा धर्म या कर्तव्य कहा। __जो लोग साधना को जप, तप, पूजा, उपासना या नाम स्मरण तक सीमित मान लेते हैं, वे वस्तुतः एक भ्रान्ति में ही हैं। यह प्रश्न प्रत्येक धर्म साधना-पद्धति में उठा है कि वैयक्तिक साधना अर्थात् जप, तप, ध्यान, तथा प्रभु की पूजा-उपासना और सेवा में कौन श्रेष्ठ है ? जैन परम्परा में भगवान महावीर से यह पूछा गया कि एक व्यक्ति आपकी पूजा-उपासना या नाम स्मरण में लगा हुआ है और दूसरा व्यक्ति ग्लान एवं रोगी की सेवा में लगा हुआ है, इनमें कौन श्रेष्ठ है ?प्रत्युत्तर में भगवान महावीर ने कहा था कि जो रोगी या ग्लान की सेवा करता है, वहीं श्रेष्ठ है, क्योंकि वही मेरी आज्ञा का पालन करता है। इसका तात्पर्य यह है कि वैयक्तिक जप, तप, पूजा और उपासना की अपेक्षा जैन धर्म में भी संघ-सेवा को अधिक महत्व दिया गया है। ___ उसमें संघ या समाज का स्थान प्रभु से भी ऊपर है, क्योंकि तीर्थंकर भी प्रवचन के पूर्व नमो तित्थस्स' कह कर संघ को वंदन करता है। संघ के हितों की उपेक्षा करना सबसे बड़ा अपराध माना गया था। जब आचार्य भद्रबाहु ने अपनी ध्यान-साधना में विध्न आयेगा, यह समझ कर अध्ययन करवाने से इंकार किया तो संघ ने उनसे यह प्रश्न किया था कि संघहित और आपकी वैयक्तिक साधना में कौन श्रेष्ठ है ? अन्ततोगत्वा उन्हें संघहित को प्राथमिकता देनी पड़ी। यही बात प्रकारान्तर से हिन्दू धर्म में भी कही गई है। उसमें कहा गया है कि वे व्यक्ति जो दूसरों की सेवा छोड़कर केबल प्रभु का नाम स्मरण करते रहते हैं, वे भगवान के सच्चे उपासक नहीं है। (84)