SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धन-सम्पत्ति की हो या पूजा-प्रतिष्ठा की, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। ___ जब तक जीवन में तृष्णा और स्पृहा है, दूसरों के प्रति जलन की भट्टी सुलग रही है, धार्मिकता सम्भव नहीं है। धार्मिक होने का मतलब है मन की उद्विग्नता या आकुलता समाप्त हो, मन से घृणा, विद्वेष और तृष्णा की आग शांत हो। इसीलिए गीता कहती है दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।। वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते // गीता 2/56 / जिसका मन दुःखों की प्राप्ति में भी दुःखी नहीं होता और सुख की प्राप्ति में जिसकी लालसा तीव्र नहीं होती है, जिसके मन में ममता, भय और क्रोध समाप्त हो चुके हैं वही व्यक्ति धार्मिक है, स्थित बुद्धि है, मुनि है। वस्तुतः चेतना जितनी निराकुल बनेगी उतना ही जीवन में धर्म का प्रकटन होगा। क्योंकि यह निराकुलता या समता ही हमारा निज-धर्म है, स्व-स्वभाव है। आकुलता का मतलब है आत्मा की 'पर' (पदार्थों) में उन्मुखता और निराकुलता का मतलब 'पर' से विमुख होकर स्व में स्थिति। इसीलिए जैन परम्परा में पर-परिणति को अधर्म और आत्म-परिणति को धर्म कहा गया है। . चेतना और मन की निराकुलता हमारा निज-धर्म या स्व-स्वभाव इसीलिए हैं कि यह हमारी स्वाभाविक मांग है, स्वाश्रित है अर्थात् अन्य किसी पर निर्भर नहीं है। आपकी चाह, आपकी चिंता, आपके मन की आकुलता सदैव ही अन्य पर आधारित है, पराश्रित है, ये पर वस्तु के संयोग से उत्पन्न होती है और उन्हीं के आधार पर बढ़ती है एवं जीवित रहती है। समता (निराकुलता) स्वाश्रित है इसीलिए स्वधर्म है, जबकि समता और तजनित आकुलता पराश्रित है, इसीलिए विधर्म, अधर्म है। जो स्वाश्रित या स्वाधीन है वही आनंद को प्राप्त कर सकता है, जो पराश्रित या पराधीन है उसे आनंद और शांति कहां? यहां हमें यह समझ लेना चाहिए कि पदार्थों के प्रति ममत्वभाव और उनके उपभोग में अंतर है। धर्म उनके उपभोग का विरोध नहीं करता है अपितु उनके प्रति ममत्वं-बुद्धि या ममता के भाव का विरोध करता है। जो पराया है उसे अपना समझ लेना, मान लेना अधर्म है, पाप है, क्योंकि इसी से मानसिक शांति और चेतना का समत्व भंग होता है, आकुलता और तनाव उत्पन्न होते हैं। इसे भी शास्त्रों में अनात्म में आत्म-बुद्धि या परपरिणति कहा गया है। जिस प्रकार संसार में वह प्रेमी दुःखी होता है जो किसी ऐसी स्त्री से प्रेम कर बैठता है जो उसकी अपनी होकर रहने वाली नहीं है, उसी प्रकार उन पदार्थों के प्रति जिनका वियोग अनिवार्य है, ममता रखना ही दुःख का कारण (153)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy