________________ सकता है। इसमें साधक कहता है कि मैं लोक के सभी साधुओं को नमस्कार करता हूं। वस्तुतः जिसमें भी साधुत्व या मुनित्व है वह वंदनीय है। हमें साधुत्व को जैन व बौद्ध आदि किसी धर्म या किसी सम्प्रदाय के साथ न जोड़कर गुणों के साथ जोड़ना चाहिए। साधुत्व, मुनित्व या श्रमणत्व वेश या व्यक्ति नहीं है, वरन् एक आध्यात्मिक विकास की भूमिका है, एक स्थिति है, वह कहीं भी और किसी भी व्यक्ति में हो सकती है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि - न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो। न मुणी रव्ववासेणं कुसचीरेण न तावसो॥ समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो। नाणेण य मुणी होइ तवेण होइ तावसो। 1. सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता, ओंकार का जाप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, जंगल में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुशचीवर धारण करने से कोई तापस नहीं होता। समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तपस्या से तापस कहलाता है। . धर्म के क्षेत्र में अपने विरोधी पर नास्तिक, मिथ्यादृष्टि, काफ़िर आदि का आक्षेपण हमने बहुत किया है। हम सामान्यतया यह मान लेते हैं कि हमारे धर्म और दर्शन में विश्वास रखने वाला व्यक्ति ही आस्तिक, सम्यग्दृष्टि और ईमानवाला है तथा दूसरे धर्म और दर्शन में विश्वास रखने वाला नास्तिक है, मिथ्यादृष्टि है, काफ़िर है, वस्तुतः इन सबके मूल में दृष्टि यह है - मैं ही सच्चा हूं और मेरा विरोधी झूठा। हमारा दुर्भाग्य इससे भी अधिक है, वह यह कि हम न केवल दूसरों को नास्तिक, मिथ्यादृष्टि या काफ़िर समझते हैं, अपितु उन्हें सम्यग्दृष्टि और ईमानवाले बनाने की जिम्मेदारी भी अपने सिर पर ओढ़ लेते हैं। हम यह मान लेते हैं कि दुनिया को सच्चे रास्ते पर लगाने का ठेका हमने ही ले रखा है। हम मानते हैं कि मुक्ति हमारे धर्म और धर्मगुरु की शरण में ही होगी। इस एक अंधविश्वास या मिथ्या धारणा ने दुनिया में अनेक बार जिहाद या धर्मयुद्ध कराए हैं। दूसरों को आस्तिक, सम्यग्दृष्टि और ईमानवाला बनाने के लिए हमने अनेक बार खून की होलियां खेली हैं। पहले तो अपने से भिन्न धर्म या सम्प्रदाय वाले को नास्तिकता या कुफ्र का फतवा दे देना और फिर उसके सुधारने की जिम्मेदारी अपने सिर पर ओढ़ लेना, एक दोहरी मूर्खता है। दुनिया को अपने ही धर्म या सम्प्रदाय के रंग में रंगने का स्वप्न न केवल दिवास्वप्न है, अपितु एक दुःस्वप्न भी है। महावीर ने सूत्रकृतांग (120)