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________________ तब उस सम्पर्क के परिणामस्वरूप सुखद-दुःखद अनुभूति भी होती है और जीवन में यह शक्य नहीं है कि इंद्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क न हो और उसके कारण सुखद या दुःखद न हो, अतः त्याग इंद्रियानुभूति का नहीं अपितु उसके प्रति चित्त में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष का करना है, क्योंकि इंद्रियों के मनोज्ञ या अमनोज्ञ विषय आसक्तचित्त के लिए ही राग-द्वेष (मानसिक विक्षोभों) का कारण बनते हैं, अनासक्त या वीतराग के लिए नहीं। अतः जैन धर्म की मूल शिक्षा ममत्व के विसर्जन की है, जीवन के निषेध की नहीं, क्योंकि उसकी दृष्टि में ममत्व या आसक्ति ही वैयक्तिक और सामाजिक जीवन की समस्त विषमताओं का मूल है और इसके निराकरण के द्वारा ही मनुष्य के समस्त दुःखों का निराकरण सम्भव है। ___धर्म साधना का उद्देश्य है - व्यक्ति को शांति प्रदान करना, किंतु दुर्भाग्य से आज धर्म के नाम पर पारस्परिक संघर्ष पनप रहे हैं - एक धर्म के लोगों को दूसरे धर्म के लोगों से लड़ाया जा रहा है। शांतिप्रदाता धर्म ही आज अशांति का कारण बन गया है। वस्तुतः इसका कारण धर्म नहीं, अपितु धर्म का लबादा ओढ़े अधर्म ही है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हमने धर्म के मर्म' को समझा नहीं है। थोथे क्रियाकाण्ड और बाह्य आडम्बर ही धर्म के परिचायक बन गए हैं। आए देखें धर्म का सच्चा स्वरूप क्या है? धर्म का स्वरूप - धर्म के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा प्रत्येक मानव में पाई जाती है। धर्म क्या है ? इस प्रश्न के आजतक अनेक उत्तर दिए गए हैं, किंतु जैन आचार्यों ने जो उत्तर दिया है वह विलक्षण है तथा गम्भीर विवेचना की अपेक्षा करता है। वे कहते हैं - धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो॥ वस्तु का स्वभाव धर्म है। क्षमा आदि भावों की अपेक्षा से वह दस प्रकार का है। रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र) भी धर्म है तथा जीवों की रक्षा करना भी धर्म है। सर्वप्रथम वस्तु स्वभाव को धर्म कहा गया है, आएं जरा इस पर गम्भीरता से विचार करें। सामान्यतया धर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। हिन्दी भाषा में जब हम कहते हैं कि आग का धर्म जलाना है, पानी का धर्म शीतलता है तो यहां धर्म से हमारा तात्पर्य वस्तु के स्वाभाविक गुणों से होता है। किंतु जब यह कहा जाता है कि दुःखी एवं पीड़ितजनों की सेवा करना मनुष्य का धर्म है अथवा गुरु की आज्ञा का पालन शिष्य का धर्म है तो यहां धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य या दायित्वा इसी (144)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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