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________________ इन टूटी हुई कड़ियों को पुनः जोड़ा जा सके। धर्म का मर्म यह सत्य है कि आज विश्व में अनेक धर्म प्रचलित हैं। किंतु यदि हम गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो इन विविध धर्मों का मूलभूत लक्ष्य है- मनुष्य को एक अच्छे मनुष्य के रूप में विकसित कर उसे परमात्म तत्व की ओर ले जाना। जब तक मनुष्य, मनुष्य नहीं बनता और उसकी यह मनुष्यता देवत्व की ओर अग्रसर नहीं होती, तब तक वह धार्मिक नहीं कहा जा सकता। यदि मनुष्य में मानवीय गुणों का विकास ही नहीं हुआ है तो वह किसी भी स्थिति में धार्मिक नहीं है। अमन' ने ठीक ही कहा है - इंसानियत से जिसने बशर को गिरा दिया। या रब! वह बंदगी हुई या अबतरी हुई। मानवता के बिना धार्मिकता असम्भव है। मानवता धार्मिकता का प्रथम चरण है। मानवता का अर्थ है - मनुष्य में विवेक विकसित हो, वह अपने विचारों, भावनाओं और हितों पर संयम रख सके तथा अपने साथी प्राणियों के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझ सके। यदि यह सब उसमें नहीं है तो वह मनुष्य ही नहीं है, तो फिर उसके धार्मिक होने का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि कोई पशु धार्मिक या अधार्मिक नहीं होता, मनुष्य ही धार्मिक या अधार्मिक होता है। यदि मानवीय शरीर को धारण करने वाला व्यक्ति अपने पशुत्व से ऊपर नहीं उठ पाया है, तो उसके धार्मिक होने का प्रश्न तो बहुत दूर की बात है। मानवीयता धार्मिकता की प्रथम सीढ़ी है। उसे पार किए बिना कोई धर्ममार्ग में प्रवेश नहीं कर सकता। मनुष्य का प्रथम धर्म मानवता है। वस्तुतः यदि हम जैन धर्म की भाषा में धर्म को वस्तु-स्वभाव मानें तो हमें समग्र चेतन सत्ता के मूल स्वभाव को ही धर्म कहना होगा। भगवतीसूत्र में आत्मा का स्वभाव समता-समभाव कहा गया है। उसमें गणधर भगवान् महावीर से प्रश्न करते हैं कि आत्मा क्या है और आत्मा का साध्य क्या है ? प्रत्युत्तर में भगवान कहते हैं- आत्मा सामायिक (समत्ववृत्ति) रूप है और उस समत्वभाव को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है।' आचारांगसूत्र भी समभाव को ही धर्म कहता है। सभी धर्मों का सार समता तथा शांति है। मनुष्य में निहित काम, क्रोध, अहंकार, लोभ और उनके जनक राग-द्वेष और तृष्णा को समाप्त करना ही सभी धार्मिक साधनाओं का मूलभूत लक्ष्य रहा है। इस सम्बंध में श्री सत्यनारायण जी गोयनका के निम्न विचार द्रष्टव्य हैं- 'क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि न हिन्दू हैं, न बौद्ध, न जैन, न पारसी, न मुस्लिम, न ईसाई। वैसे इनसे विमुक्त रहना (175)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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