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योगतार श्रीका।
[ १ जन्मते मरते हैं। ट्रेन्द्रिय लट आदि, तेइन्द्रिव चींटी खटमल आदि, चौन्द्रिय मस्त्री, पतंग आदि ये तीन प्रकार विकस्त्रय महान कष्टमें जीवन बिताते हैं । मानवो व पशुओंके वर्तनसे इनका बहुधा मरण होता रहता है। पंचेंद्रिय पशु थलचर गाय भैसादि, सलचर मच्छ कछुवादि, नभचर कबूतर मोर काकादि व सादि पशु कितने कष्टसे जीवन बिताते हैं सो प्रत्यक्ष प्रगट है। मानवोंके अत्याचारोंसे अनेक पशु मारे जाते है। भार बहन, गर्मी, शदी, भूस्त्र, प्यासके व परस्पर वैर विरोधके घोर कष्ट सहते हैं।
मानवगतिमें इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग, रोग, दारिद्र, अपमानादिके घोर शारीरिक व मानग्निक कष्ट सहने पड़ते हैं, सो सबको प्रत्यन ही है । देवगतिमें मानसिक कष्ट अपार है । छोदे देव बड़ोंकी विभत्ति देखकर कुढ़ते हैं । दवियोंकी आयु थोड़ी होती है, देवोंकी बड़ी आयु होती है, इसलिये देवियोंके वियोगका बड़ा कष्ट होता है । मरण निकट आनेपर अज्ञानी देवोंको भारी दुःख होता है। इसतरह चारों गतियों में दुः ख ही दुःख विशेष हैं। संसारमें सबस बड़ा दुःख वृष्णाका है । इन्द्रियांक भोगोंकी लालसा, भोगोंके मिलनेपर भी बढ़ती ही जाती है ! इस चालकी दाहस सर्व ही अज्ञानी संसारी प्राणी दिनरात जलते रहले हैं । जब शरीर जराग्रस्त व असमर्थ होजाता है तब भोगोंको भोगनेकी शक्ति नहीं रहती है, किन्तु तृष्णा बड़ी हुई होती है, इच्छित भोगकि न मिलनेसे घोर कष्ट होता है। इष्ट पदार्थों के छूटनेपर महती वेदना होती है। मियारष्टी संसारासक्त प्राणियोंको संसार-भ्रमणमें दुःख ही तुःख है। जब कभी कोई इच्छा पुण्यके उदयसे तृप्त होजाती है तब कुछ देर सुखमा झलकता है, फिर तृष्णाका दुःख अधिक होजाता है । संसार-भ्रमणासीन, मोक्षप्रेमी सम्यग्दृष्टी जीवोंको संसारमें क्लेश कम होता |