Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( ३५ )
भोजन का निवेष, अपने प्रधानों को भोजन कराना, भोजन में त्याज्य वस्तु ( चारमादि }, असातावेदनीय कर्म के ग्राव के कारण चारित्र मोहनीय कर्म के आसन के कारण, मंत्री, प्रमोद, कारुण्य व माध्यस्थ भावना का स्वरूप fear पर हिसा में मुख्य व गोभावों को विशेषता, निष्प्रयोजन स्थावरजीवा के घात का निषध निय आदिजीवों का घात हो जाने पर आगमानुकूल प्रायश्चित्तविधान, प्रायश्चित शब्द का अर्थ योर प्रायश्चित्त देने का अधिकार और पाप-त्याग की अमोघ प्रोपधि योग का स्वरूप व भेद, शुभाशुभ योग, पाप से बचने का उपाय, रात्रि का कर्तव्य, जीवदया का महत्व अहियाप्रती मृगसेन चोवर की कथा ३०.३-३२४
२७ व कल्प
प्रचरित का स्वरूप उसकी विस्तृत व्याख्या, भन के अतीचार अचोमं का माहात्म्य व चांगे से उभयलोक में दुःख एवं चोरी में आरक्त श्रीभूति पुरोहित की कथा
३२५-३३४
२८-३० व कल्प
सत्यावत का स्वरूप, सत्यवादी को कैसा होना चाहिए ? केवली भगवान् आदि के अववाद से व मोहनीय कर्म का आश्रय, कां विद्वान् मोक्षमार्ग को स्वयं जानता हुआ भी ज्ञान का घमण्ड करने माथि से नहीं यतलावा, उसे ज्ञानावरण व दर्शनावरण कर्म का वष होता है, सत्याणुत्र के प्रतीचार, स्त्री आदि की कथा करने का निषेध, rer के असर सत्य व सत्यासत्य प्रादि चार भेद और उनका स्वरूप, सत्यबादी को अपनी प्रशंशा न करते हुए दूसरों की निन्दा नहीं करनी चाहिए। उसे दूसरों में विश
गुणों का भात (लोप) नहीं करना चाहिए और अपने में विमान गुणों की नहीं कहना चाहिए क्योंकि प निन्दा व प्रात्मप्रशंसा आदि से नीच गोत्र का बंध होता है, सत्य बोलने से लाभ, असत्यभाषण में हानि, अमरयभाषी सु और पर्वत-नारद की कथा, इसी प्र में मुला राजकुमारी का समर राजा के शाय संगम हीना, जिससे agro का विरक्त होकर मरकर कालासुर होगान्प्रादि की कथा ३३४-३५३
३१ व कल्प
वर्यात का स्वरूप ब्रह्मचारी का कर्त्तव्य, 'ब्रह्म' पाद की निक्ति, काम का मदन लाने को प्रेरणा, सांतारिक भोगों से तृप्त न होने के विषय में दृष्टान्तमाला फार्म भोगों की जिन्दा कामको विवृत मनोवृत्ति प्रचुर मात्रा में काम सेवन करने का दुष्परिणाम, काम की क्षय-रोग की तुलना, कामरूपी अग्नि के प्रज्वनित होने पर स्वा ध्याय व घमंत्र्यान आदि का अभाव, आहार की तरह भांगसेवन करना चाहिए, ब्रह्मचर्याशुवत के प्रतीचार, काम के दशगण, क्रोध के अनुचर ब्रह्मचर्याशुवत से लाभ, परस्त्रीलम्पटता से उभर लोक में भयानक विपत्तियां मांगनी पड़ती हैं, दुराचारी कडारपिङ्ग को कथा ३५.३-३६७
३२ य कल्प
परिपरिमाणाव्रत का लक्षण, दश बाह्य व त्रोद माभ्यन्तरपरिग्रह अथवा वाह्य परिग्रह के दो मंत्र और प्राभ्यन्तरपरिग्रह का एक भेद, घन की तृष्णा का निषेध, लोगों की निन्दा, सन्तोषी की प्रशंसा परिग्रह में ग्रासक्त मनुष्य की मनोवृत्ति विशुद्ध नहीं होतों परिग्रह में अनासक्त मानव की प्रशंसा, सत्यात्र को दान देने वाला सन्चालोमी लोमश परिमारग किये हुए धन से अधिक घन का संचय करनेवाला की क्षति करता है। प्रचुर घनाकांक्षा से पाप-सचय, कोमी पिण्यान्गन्ध की कथा
३६७-३७३
३३ वॉ कल्प
तीन गुणत्रत, दिम्बत व देशव्रत का लक्षा श्रीर उससे लाभ, अनर्थदण्ड का स्वरूप अनर्थन से लाभ, मनदण्ड- विरति के प्रतीचार ३७४-३७५
प्रति सक्षम आश्वास
३४ व कल्प
चार शिक्षावत, सामायिक का लक्षण, मूर्तिपूजा का विघात वा देव-प्रतिमा की पूजन से ग्राम देवपूजा में अन्तरङ्ग व बहिरङ्गमुद्धि की भावस्यता स्नान करने का उद्देश्य क्षेत्रपूजा के लिए गृहस्य को नित्य स्नान करना चाहिए और मुनि को दुर्जन से छू जाने पर स्नान करता चाहिए स्नान के योग्य जन, स्नान के पाँच भेद, गृहस्थ