________________ तीनों द्वारा रचित आगमों को प्रमाण माना है और आरातीय आचार्यों द्वारा रचित एवं अंगसाहित्य से अर्थतया जुड़े हुए ग्रन्थों को 'अंगबाह्य' आगम के रूप में माना है (द्र. सर्वार्थसिद्धि, व राजवार्तिक- 1/20) / इन्हीं अंगबाह्य आगमों को परवर्ती काल में 12 उपांग 4 मूलसूत्र, 4 छेदसूत्र आदि के रूप में विभाजित किया गया। श्रुत-परम्परा का ह्रास एवं श्रुत-रक्षा के उपाय जैन मुनि आगमों को कण्ठस्थ रखते थे, अर्थात् वे आगम-वचनों को स्मृति में रखते थे, लिखते नहीं थे। लिखने आदि में असंयम का दोष लगना संभावित था (द्र. दशवैकालिक चूर्णि, पृ. 21, निशीथ भाष्य. 4004) / गुरु शिष्य-परम्परा से निरन्तर प्रवहमान ज्ञान-धारा को 'श्रुत' नाम से अभिहित किया गया है। वैदिक परम्परा में भी वेद को 'श्रुति' नाम से अभिहित किया जाता रहा है, क्योंकि वहां भी मंत्रों को सुन कर कण्ठस्थ करने की परम्परा रही है। प्रथम वाचना- भगवान् महावीर के निर्वाण को 160 वर्ष पूरे हुए, तब पाटलिपुत्र में 12 वर्षीय भयंकर : दुष्काल पड़ा। संघ बिखर गया। अनेक श्रुतधर दिवंगत हो गए। अनेक श्रमण अन्यत्र विहार कर गये। कालदोष से ज्ञानियों की स्मृति भी दुष्प्रभावित हुई, अतः श्रुत-परम्परा क्षीण होने लगी। दुष्काल समाप्त हुआ। अवशिष्ट व क्षीयमाण श्रुत को सुरक्षित रखने की दृष्टि से पाटलिपुत्र में आचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व में संघ एकत्र हुआ और वाचना के द्वारा श्रमणों ने मिलकर ग्यारह अंगों को व्यवस्थित व संकलित किया। बारहवें अंग के ज्ञाता एकमात्र आचार्य भद्रबाहु थे, जो उस समय नेपाल में ध्यानसाधना में संलग्न थे। संघ के निर्देश पर आचार्य स्थूलभद्र ने आचार्य भद्रबाहु के पास जाकर पूर्वो का ज्ञान ग्रहण करने का प्रयास किया। परिस्थितिवश वे चौदह पूर्वी का शाब्दिक पाठ तो ग्रहण कर सके, किन्तु अर्थ रूप से दस पूर्वो का ज्ञान ही इन्हें हो पाया। आचार्य भद्रबाहु के स्वर्गस्थ होते ही (वि. सं. 216 तक) अंतिम चार पूर्वो का (अर्थतः) लोप हो गया। क्रमशः पूर्वज्ञान-परम्परा विलुप्त होती गई और देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण (वि. 5 वीं शती) तक आते-आते वह एक 'पूर्व' (तथा कुछ अधिक) तक सीमित रह गई। अंत में वीर-निर्वाण के एक हजार वर्ष बाद पूर्व-ज्ञान' पूर्णतः विच्छिन्न हो गया (भगवती, 20/8) / इस प्रकार द्वादशांगी के ग्यारह अंग ही अवशिष्ट रह पाए, और उसे भी अनेक वाचनाएं आयोजित कर बचाया जा सका है। उन वाचनाओं का संक्षिप्त विवरण यहां दिया जा रहा है। द्वितीय-तृतीय वाचना- वीर निर्वाण के 827 व 840 वर्ष के मध्य मथुरा में दूसरी वाचना हुई, जिसकी अध्यक्षता आचार्य स्कन्दिल ने की। यह माथुरी या स्कान्दिली वाचना कहलाई जिसमें क्षीयमाण एकादशांग की परम्परा को पुनः सुव्यवस्थित करने का प्रयास हुआ। इसीके समकालीन एक अन्य (तीसरी) वाचना वलभी-सौराष्ट्र में आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई जिसे वलभी या नागार्जुनीय वाचना कहा जाता है। एक ही समय, भारत के दो भिन्न-भिन्न (उत्तर भारत व पश्चिम भारत के) स्थानों पर आयोजित वाचनाओं के कारण आगमों में पाठभेद हो गया। दोनों वाचनाओं के अध्यक्षों (आ. नागार्जुन व आ. स्कन्दिल) का पुनः मिलना नहीं हो सका और यत्र-तत्र पाठ-भेद बने रहे। RORBRBRBRBRBR [261 RO0BROORB0RO900CR