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"णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स"
प्राक्कथन भारत के लब्धप्रतिष्ठ जैन, बौद्ध और वैदिक इन तीनों ही प्राचीन धर्मों का समानरूप से यह सुनिश्चित सिद्धान्त है कि मानव जीवन का अन्तिम साध्य उस के आध्यात्मिक विकास की परिपूर्णता और उस से प्राप्त होने वाला प्रतिभाप्रकर्षजन्य पूर्णबोध अथच स्वरूपप्रतिष्ठा अर्थात् परमकैवल्य या मोक्ष है, उस के प्राप्त करने में उक्त तीनों धर्मों में जितने भी उपाय बतलाये गये हैं, उन सब का अन्तिम लक्ष्य आत्मसम्बद्ध समस्त कर्माणुओं का क्षीण करना है । आत्मसम्बद्ध समस्त कर्मों के नाश का नाम ही कमोक्ष है । दूसरे शब्दों में आत्मप्रदेशों के साथ **कर्म पुद्गलों का जो सम्बन्ध है, उस से सर्वथा पृथक हो जाना ही मोक्ष है । सम्पूर्ण कर्मों के क्षय का अर्थ है-पूर्वबद्ध कर्मों का विच्छेद और नवीन कर्मों के बन्ध का अभाव । तात्पर्य यह है कि एक बार बांधा हुआ कर्म कभी न कभी तो क्षीण होता ही है, परन्तु कर्म के क्षयकाल तक अन्य कर्मों का बन्ध भी होता रहता है, अर्थात् एक कर्म के क्षय होने के समय **अन्य कर्म का बन्ध होना भी सम्भव अथच शास्त्रसम्मत है। इसलिये सम्पूर्ण कर्मों अर्थात् बद्ध और बांधे जाने वाले समस्त कर्मों का आत्यन्तिक क्षय, आत्मा से सर्वथा पृथक् हो जाना ही मोक्ष है।
यद्यपि बौद्ध और वैदिक साहित्य में भी कर्मसम्बन्धी विचार है तथापि वह इतना अल्प है कि उस का कोई विशिष्ट स्वतन्त्र ग्रन्थ उस साहित्य में उपलब्ध नहीं होता, इस के विपरीत जैनदर्शन में कर्मसम्बन्धी विचार नितांत सूक्ष्म, व्यवस्थित और अति विस्तृत हैं। उन विचारों का प्रतिपादकशास्त्र कर्मशास्त्र कहलाता है। उस ने जैन साहित्य के बहुत बड़े भाग को रोक रक्खा है, यदि कर्मशास्त्र को जैन साहित्य का हृदय कह दिया जाए तो उचित ही होगा।
कर्मशब्द की अर्थविचारणा-कर्म शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-क्रियते इति कर्म-- * कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः । (तत्त्वार्थसूत्र अ० १०, सू० ३ ।)
** जिस में रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और संस्थान हों, उसे पुद्गल कहते हैं, जो पुद्गल कर्म बनते हैं वे एक प्रकार की अत्यन्त सूक्ष्म रज अथवा धूलि होती है, जिस को इन्द्रियां स्वयं तो क्या यंत्रादि की सहायता से भी नहीं जान पातीं । सर्वज्ञ परमात्मा अथवा परम अवधि ज्ञान के धारक योगी ही उस रज का प्रत्यक्ष कर सकते हैं । जो रज कर्मपरिणाम को प्राप्त हो रही है या हो चुकी है उसी रज की कर्षपुद्गल संज्ञा होती है।
* यह जीव समय २ पर कर्मों को निर्जरा भी करता है और कर्मों का वन्ध भी करता है, अर्थात् पुराने कर्मों का विच्छेद और नवीन कर्मों का बन्ध इस जीव में जब तक बना रहता है तब तक इस को पूर्णयोध-केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होती।
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