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फल - यह बहुत कष्ट उठाने पर थोड़ा फल देने वाला होता है।
६. यदि पंचाक्षर मंत्र हो किन्तु उसमें रेफ, मकार और अनुस्वार न हों तो उसे नेत्रहीन जानना चाहिये । फल- यह क्लेश उठाने पर भी सिद्धि दायक नहीं होता।
७. आदि, मध्य और अन्त में हंस ( सं ) प्रासाद तथा बाग बीज (ऐं) हों अथवा हंस और चन्द्रबिन्दु वा सकार, फकार अथवा (हुँ) हों तथा जिसमें मा, प्रा और नमामि पद हों वह मंत्र कीलित माना गया है ।
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८. इसीप्रकार मध्य में और अन्स में भी ये दोनों पवन को एक जिसमें पद और लकार न हो वह मंत्र स्तम्भित माना गया है।
फल - जो सिद्धि में रूकावट डालने वाला है।
९. जिस मंत्र के अन्त में अग्निबीज (रं) वायु बीज (यं ) के साथ हो तथा जो सात अक्षरों से युक्त (स) दिखाई देता हो वह दग्ध संज्ञक मंत्र है।
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१०. जिसमें तीन, छ: या आठ अक्षरों के साथ अस्त्र (फट्) बीज दिखाई दे उस मंत्र को त्रस्त जानना चाहिये ।
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११. जिसके मुख भाग में प्रणच रहित हकार अथवा शक्ति हो वही मंत्र भीत कहा जाता है।
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१२. जिसके आदि, मध्य और अन्त में चार (म) हों वह मलिन माना जाता है।
फल- वह अत्यन्त क्लेश से सिद्धिदायक होता है।
१३. जिस मंत्र के मध्य भाग में 'द' अक्षर और अन्त में क्रोध बीज ( हुं हुं ) हो और साथ अस्त्र बीज (फट्) हो तो वह मंत्र तिरस्कृत कहा जाता है।
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१४. जिसके अन्त में म तथा य तथा हृदय हो और मध्य में वषट् ऐं वौषट् हो यह मंत्र भेदित कहा जाता है।
फल- उसे त्याग देना चाहिये क्योंकि वह बड़े क्लेश से फल देने वाला होता है।
१५. जो सीन अक्षर से युक्त तथा हंसहीन हो उस मंत्र में सुषुप्त कहा गया है।
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१६. जो विद्या अथवा मंत्र १७ अक्षरों से युक्त हो तथा जिसके आदि में पाँच बार फट् का प्रयोग हुआ हो तो उसे मदोन्मत माना गया है।
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