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षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन
ज्ञानेच्छाप्रयत्नाश्रयत्वेन स्वशरीरकरणे कर्तृत्वोपलम्भात् । अकिंचित्करस्यापि सहचरत्व मात्रेण कारणत्वे वह्निपैङ्गल्यस्यापि धूमं प्रति कारणत्वप्रसङ्गः स्यात् । विद्यमानेऽपि हि शरीरे ज्ञानादीनां समस्तानां व्यस्तानां वाऽभावे कुलालादावपि कर्तृत्वं नोपलभ्यते । प्रथमं हि कार्योत्पादककारणकलापज्ञानं, ततः करणेच्छा, ततः प्रयत्नः, ततः फलनिष्पत्तिरित्यमीषां त्रयाणां समुदितानामेव कार्यकर्तृत्वे सर्वत्राव्यभिचारः । ईश्वरवादि (पूर्वपक्ष):
आपकी वह बात योग्य है कि जो मोक्ष में जाकर फिरसे संसार में आते है वे सुगतादि देव नहीं है। वह हमको भी मान्य है। परन्तु आप इस चराचरविश्व के सर्जनहार ईश्वर को देव के रुप में क्यों नहीं मानते है ? (अर्थात् ईश्वर में समस्त जगत के सर्जन की शक्ति माननी चाहिए। आपकी वह बात योग्य है कि जो एकबार मोक्ष में जाते है, वे पुनः संसार में न आ सके, परंतु ईश्वर सादिमुक्त जीवो से विलक्षण है। ईश्वर अनादिमुक्त है। शिष्टानुग्रह और दुष्ट के निग्रह के लिए अवतार लेना, वह ईश्वर की लीला है। केवल अवतार लेने रुप लीला देखने मात्र से ईश्वर को सकर्मा नहि माना जायेगा। इसलिए सृष्टिकर्ता ईश्वर मानने चाहिए।)
जैन : ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानने में कोई साधकप्रमाण नहीं है। इसलिए ईश्वर को देव किस तरह से माना जायेगा?
ईश्वरवादि : ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानने में साधकप्रमाण है। वह अनुमानप्रमाण यह है - "क्षित्यादिकं बुद्धिमत्कर्तृकं, कार्यत्वात्, घटादिवत् ।" अर्थात् पृथ्वी, पर्वत इत्यादि सभी वस्तुएं बुद्धिमान कर्ता द्वारा बनाये गये है, क्योंकि वे सभी कार्य है, जैसे घट कार्य है, तो बुद्धिमान कुम्भकार द्वारा बना हुआ है। वैसे संसार के समस्तकार्य कोई-न-कोई बुद्धिमान द्वारा ही बने हुए है।
तथा पूर्वोक्त अनुमान में निर्दिष्ट कार्यत्व हेतु असिद्ध भी नहीं है। (जो हेतु पक्ष में न रहता हो, वह असिद्ध कहा जाता है। यहां ऐसा नहीं है।) क्योंकि पृथ्वी इत्यादिक अवयववाले होने के कारण कार्य के रुप में प्रसिद्ध है। (नियम है कि, जिनको अवयव हो वह कार्य कहा जाता है। इस नियम से पृथ्वी इत्यादि में अवयव है। इसलिए पृथ्वी आदि कार्य ही है। जैसे घडा सावयव है, इसलिए कार्य है, वैसे पृथ्वी इत्यादि भी सावयव होने से कार्य है।) अनुमान प्रयोग इस अनुसार से है - "उर्वीपर्वततर्वादिकं सर्वं कार्यं, सावयवत्वात्, घटवत् ।" इस प्रकार "कार्यत्व" हेतु "क्षित्यादिकं" पक्ष में रहता होने से असिद्ध नहीं है।
जो पदार्थो का कर्ता निश्चित है, वैसे घटादि सपक्ष में कार्यत्व हेतु की वृत्ति होने से कार्यत्व हेतु विरुद्ध भी नहीं है। जिसको उत्पन्न करनेवाला कोई निश्चित कर्ता नहीं है, वैसा आकाशादि विपक्ष में कार्यत्व हेतु की वृत्ति न होने से (अर्थात् साध्याभाववान् में हेतुकी वृत्ति न होने से) हेतु अनैकान्तिक भी नहीं है।
प्रत्यक्ष और आगम से पक्ष में बाध न होने से (अर्थात् कार्यत्व हेतु के साध्यरुप विषय (बुद्धिमत्कर्तृत्वरुप विषय का) पक्ष में प्रत्यक्ष से या आगम से बाध न होने से) कार्यत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट
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