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[ समराइच्चकहां
सुन्दरी नामक पत्नी थी। सर्वार्थसिद्धि नामक महाविमान का निवासी वह देव बायु पूरी कर वहाँ से च्युत होकर सुन्दरी के गर्भ में आया । अनन्तर शुभतिथि, करण और मुहूर्त के योग में बिना क्लेश के सुन्दरी ने प्रसव किया। उसके पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र का नाम समरादित्य रखा गया। इसी बीच वानमन्तर का जीव वह नारकी उस नरक से निकलकर अनेक तिर्यंच योनियों में भ्रमण कर उज्जयिनी के ग्रन्थिक नाम वाले चाण्डाल की यक्षदेवा नामक पत्नी के गर्भ से पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ । उसका नाम गिरिषेण रखा गया । वह कुरूप और बुद्धि था तथा दरिद्रता के कारण दुःखित होकर समय बिता रहा था। पूर्वभव के अभ्यास से । समरादिस्य शास्त्रों में अनुरक्त रहकर अविरल चिन्तन करता रहता था। अनेक प्रकार के भावों का अनुमान करता था तथा श्रद्धापूर्वक विरक्ति के मार्ग पर गमन कर रहा था। अशोक कामांकुर तथा ललितांग जैसे मित्र कुमार को विषयोन्मुख नहीं कर सके।
एक बार वसन्त का समय आया । नगर का उत्सव देखने के लिए नगर के बड़े लोगों ने राजा से निवेदन किया। राजा ने कुमार को इस कार्य में प्रवृत किया । कुमार ने मदनमहोत्सव के समय अनेक सुन्दर दृश्य देखे । एक रोगी पुरुष, एक बूढ़े सेठ का जोड़ा तथा एक मृत्यु को प्राप्त पुरुष को देखकर कुमार का मन विरक्त हो गया । उसने नागरिकों को भी उद्बोधित किया। नागरिक लोग नृत्य से विरत हो गये । इस बीच देवसेन ब्राह्मण से इस घटना को सुनकर अत्यधिक भयभीत राजा ने कुमार को प्रतीहार भेजकर शीघ्र बुला लिया।
एक बार राजा ने कहा— कुमार! तुम्हारे मामा महाराज खड्गसेन ने आदरपूर्वक लोकापवाद से रहित विभ्रमवती और कामलता नामक, प्राणों से भी अधिक प्यारी, दो कन्याएँ स्वयम्बर में भेजी हैं। उन्हें स्वीकार कर तुम सब लोगों को आनन्दित करो। कुमार ने स्वीकृति दे दी । राजा सन्तुष्ट हुआ । योग्य समय पर विवाह सम्पन्न हुआ। दोनों कन्याओं की विषयानुरक्ति देखकर कुमार ने समझाने के लिए एक कथा प्रस्तुत की
कामरूप देश में मदनपुर नाम का नगर था । उसमें प्रद्युम्न नाम का राजा था। उसकी रति नामक पत्नी थी। विषय-सुख का अनुभव करते हुए उन दोनों का कुछ समय बीत गया। एक बार इक्के से कहीं गया। दरवाजे में खड़ी रति ने दिशाओं को देखते हुए सड़क पर चलकर देवमन्दिर की ओर प्रस्थान करते हुए विमलमति सार्थवाह के पुत्र शुभंकर नामक युवा सेठ को देखा । उसे देखकर रानी की उसके प्रति अभिलाषा हो गयी । सविलास देखा । शुभंकर भी उसके प्रति आसक्त हो गया। जालिनी नामक सखी से कहलाकर रति ने उसे अपने शयनगृह में बुला लिया। इसी बीच रानी को राजा के आने का समाचार विदित हुआ । रति ने भयभीत होकर शुभंकर को शौच गृह में भेज दिया । राजा आया। कुछ समय बाद वह शौचगृह गया । अपने प्राण संकट में देख अत्यन्त भयभीत हो शुभंकर ने अपने आपको शौचगृह के गड्ढे में गिरा दिया। वहाँ वह अपवित्र पदार्थों से भर गया, कीड़ों से विध गया उसके नेत्रों का विस्तार रुक गया, अंग सिकुड़ गये, वेदना उत्पन्न हुई तथा अत्यधिक आकुल-व्याकुल हो गया । कुछ समय बिताकर वह धोने के लिए शौचगृह के खुलने पर अशुचि के निकलने के मार्ग से रात्रि में निकल गया । उसके शरीर की प्रभा नष्ट हो गयी, नाखून और रोम नष्ट हो गये किसी प्रकार धोकर बड़े क्लेश से अपने घर गया। किसी ने उसे नहीं पहिचाना। एकान्त में जाकर उसने अपने पिता को सब हाल बतला दिया । कुछ दिनों में सहस्र पाक आदि के प्रयोग से शुभंकर स्वस्थ हो गया। योग्य समय पर वह पुन: देवमन्दिर गया, पुनः रानी ने उसे जालिनी को भेजकर बुलाया, उसी प्रकार पुनः उसका शौचगृह में गिरना हुआ। इस प्रकार की घटना अनेक बार हुई। अतः आप दोनों राजकन्याओं से मैं पूछता हूँ कि क्या रति का यथार्थ में शुभंकर के प्रति अनुराग है अथवा नहीं है ?
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