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गुरुमहाराज श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी को विराजमान सुनकर आप और सेठ वहाँ दर्शनार्थ उतरे । गुरुश्री के व्याख्यान का बलदेव पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि आपके हृदय में आत्मोद्धार का राग उछलने लगा । कर्मबन्धन की उत्पादक द्रव्योपार्जन लालसा को छोड़कर आप गुरुश्री की सेवामें ही रहकर विद्याध्ययन करने लगे । अल्प कालमें ही आपने पठन-पाठन में आशातीत उन्नति करली और गुरुश्री के हृदयमें एक शुभ स्थान पैदा करलिया । योग्यपात्र समझ कर गुरुदेवने आपको उपाध्याय श्रीधनविजय( धनचन्द्रसूरि )जीके पास मारवाड़ भेज दिया । उन्होंने भीनमाल नगर (मारवाड़ )में संवत् १९५४ मार्गशिर-शुक्ला अष्टमी को भारी समारोहसे बलदेव को लघु दीक्षा देकर 'गुलाबविजय ' नाम स्थापन किया तथा जगत्प्रसिद्ध श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने अपने अनेक साधुसा ध्वियों के साथ संवत् १९५७ माघशुक्ला ५ के रोज आहोरे नगर ( मारवाड़ ) में आप को बड़ी दीक्षा दी।
. आप अतिवेगसे अनन्य मनस्क हो विद्याराधन में लगगये और अविरल परिश्रम कर आठ दश वर्ष की अवधि में ही साहित्य, काव्य, कोष, एवं व्याकरण आदिमें भी योग्यता प्राप्त करली | आप की कुशाग्र बुद्धिसे सर्वजन मुग्ध थे । जैनशास्त्रों के पठन-पाठन के साथ ही साथ आपने ज्योतिषशास्त्र का भी अध्ययन किया । राजगढ ( मालवा ) में संवत् १९६३ पोषशुक्ला सप्तमी को गुरुवर्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी का देवलोक गमन