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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । उत्पन्नस्य धुवो मृत्यु-मृतस्य च जनुर्धवम् । तस्माऽत्तत्परिहारार्थे,नैव शोचन्ति पण्डिताः॥५४६॥
अब कुमति रूप चौर निडर और बेधड़क होंगे, वैसे ही अन्य दर्शनीय रूप घूघू बलवान् होंगे ॥ ५४२ ।। हे गुरो ! प्रश्नों के जबाव देकर कौन संघके संशयोंको दूर करेगा ? इस प्रकार संघकी विनति सुनकर गुरुश्री संघको समझानेके लिये बोले-मेरे शरीरकी विल्कुल फ़िक्र नहीं करना चाहिये । क्योंकि शरीरके दुर्बल सबल आदि परिवर्तन होनेके अनेक स्वभाव हैं । यह शरीर अपवित्रताका एक स्थान है इसमें प्रणालकी तरह हमेशा अशुद्धियों के नव द्वार तो वहते ही रहते हैं और समय आने पर वह विनाश शील है। नवीन उत्पन्न शरीरका निश्चय मरण है और विनाशित का फिर निश्चयसे दूसरा जन्म भी है । इस कारण उसके छोड़ने में विद्वान् लोग कभी चिन्ता नहीं करते ।। ५४३-५४६ ।। दशप्राणैर्वियुक्तोऽत्र, मृतोऽयं गद्यते जनः । सत्यरीत्या परं ज्ञेयो, जीवोऽयमजरामरः ॥ ५४७ ॥ यतोऽन्यस्मिञ्छास्त्रेऽप्युक्तम्वासांसि जीर्णानि यथा विहाय,
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।। ५४८ ॥