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श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
रोज मैंने निर्माण-संग्रह किया है और म मानता हूं कि यह 'राजेन्द्रगुणमंजरी' बावन जिनालयोंके अधिपतित्व से सुशोभित श्रीगोड़ीपार्श्वनाथजी की अनुकम्पा के योगसे शीघ्र ही संपूर्णता को प्राप्त हुई ।। ६४० - ६४३ ।।
नैवास्यां पद्यलालित्यं, नाऽलङ्कारचमत्कृतिः । नैवोपमौपमेयोsपि, नैव चास्त्यर्थगौरवम् ॥ ६४४ ॥ स्वल्पमत्या कृता चेय- माहोरेऽस्मिन् पुरे वरे । हर्षेण गुरुभक्त्यर्थं, गुलाबविजयेन वै ॥ ६४५ ॥ उत्तमानां चरित्रेण, स्वश्रेयोऽर्थेऽखिलैर्जनैः । तन्मर्यादा सदा धार्यै तदर्थं हि चरित्रकम् ।। ६४६ ।। ये गायन्ति गुरोः कीर्ति, कीर्तिभाजो भवन्ति ते । परत्रेह मनोऽभीष्टां, लभन्ते सर्वसम्पदः ॥ ६४७ ॥ ये श्रोष्यन्ति पठिष्यन्ति, सुभक्त्येमां च सद्गुरोः । यथैवेह लताभिर्दुः, सुश्लिष्टास्ते सदार्द्धभिः ॥ ६४८ ॥
इसमें पदोंका अति सुन्दरपन नहीं, अनोखे २ अलङ्का-रोंका चमत्कार नहीं, उपमा औपमेय नहीं, और अर्थकी गहनता भी नहीं है । किन्तु हर्ष युक्त केवल गुरुभक्ति के लिये अल्पबुद्धि 'गुलाबविजय ' नामक शिष्यने मरुधर देशान्तर्गत श्रेष्ठ शहर श्रीआहोर में यह 'राजेन्द्रगुणमञ्जरी' बनाई। सत्पुरुषोंके चरित्र द्वारा सभी साधारण लोगों को अपने आत्मकल्याणके वास्ते हमेशा उन उत्तम पुरुषोंकी मर्यादा धारण करना