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श्रीराजन्द्रगुणमञ्जरी।
१९१ (२१) जिस साधु साधवीकुं गुरुयें गच्छ बाहिर किया
वो साधु साधवी कोइ तरेसे अवर्णवाद बोले तो
उसका कह्या सत्य न मानणा. (२२) जो आचार्यादिक तथा प्रवर्तिनी मूलगुणमें खोट
लगावे तथा अपणी मर्यादा प्रमाणे न चाले, समाचारी न पाले, उन आचार्यादिकको श्रद्धावान साधु साधवी श्रावक श्राविका मिल समझावणा न माने तो दूर कर दूसरे जोग्य आचार्यादिक थापन करना, जो मुलायजा पक्षपात रक्खेगा वो श्रद्धावंत अनंत
संसारी होगा, गच्छ विगड़नेका पाप उस माथे है। (२३) अभीके कालमें जलसंनिधि सोचके वास्ते रहता
है वो जल दोय घड़ी पेली वापरणा, पीछे परठ देणा, पण घणा दिन चढे रखणा नहीं, उस जलसे वस्त्रादिक धोवणा नहीं, वो जल सौच विना दूसरे काममें न लगाणा, लगावे तो उपवास १
दंडका पावेगा. (२४) साधु साधव्योंने आपणे अर्थ पुस्तकादि श्रावक
कनेसुं वेचाता लेवावणा नहीं, लिखावणा नहीं, आपणा कर भंडारमें तथा गृहस्थरे घरे मेलणा नहीं, एसेही पात्रादिक न चाहे तो परठ देणा, पण गृहस्थ घरे भंडारे न मेलणा, मेलताने श्रावक