Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीः
राजेन्द्रगुणमञ्जरी
रचयिता-मुनिश्रीगुलाबविजयोपाध्याय
प्रकाशक
श्रीसौधर्म बृहत्तपोगच्छीय- वेताम्बर
जैन श्रीसंघ
हु० आहोर (मारवाड़ )
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
___ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर-श्रीधनचन्द्रसूरि
जैनग्रन्थमाला-पुष्पाङ्क ५
विद्याभूषण-साहित्यविशारश्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरीश्वर-संशोषित श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी.
~
रचयितामुनिश्रीगुलाबविजयोपाध्याय ।
प्रकाशकश्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-श्वेताम्बरजैनश्रीसंघ ।
मु. पो० आहोर ( मारवाड़)
श्रीवीरनिर्वाण सं० २४६६ । प्रथमावृत्ति (विक्रमाब्द ५९९६ श्रीराजेन्द्रसूरिसंवत् ३२ मा सन् १९३९ इस्वी ,
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
Printed by Gulabchand Lallubhai Shah At Mahodaya Printing Press, Bhavnagar.
mmmwwwwanm AAN
प्राप्तिस्थानश्रीगोड़ीपार्श्वनाथजैनपेढ़ी मु० आहोर ( मारवाड़) P. AHOR ( Marwar ) Via-Errinpura Road.
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
U2U2U2ucu2u2UPU2U2u2022
תכתבתבתכתבתכתבתכתבתכתבתם
EFFE
विषयानुक्रमः 卐ध विषयः
पृष्ठाङ्क १ प्राथमिकवक्तव्यं संस्कृते ... ... २ प्राथमिकवक्तव्यं हिन्दीभाषायामपि... ... ३ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर-गुरुगुणाष्टकम् ... ४ श्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरीश्वर-गुरुगुणाष्टकम् ... ५ श्रीमदुपाध्याय-श्रीमोहनविजय--गुणाष्टकम्... ६ श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरीश्वर-गुणाष्टकम् ७ श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरि-गुणाष्टकम्... ... ८ ग्रन्थकर्तृसंक्षिप्त-जीवनम्...
१ तत्राऽऽदौ मंगलाचरणम् ... २ पारिखकुलोत्पत्तिः ... ३ गुरुजन्मादिपरिचयः ... ४ शैशवसद्गुणवर्णनम् ... ५ धुलेवतीर्थयात्रा, परोपकृतिश्च .. ६ सिंहलद्वीपगमनं, मातापित्रोवियोगश्च... ७ प्रमोदसूर्युपदेशदीक्षाग्रहणम् ... ... ८ शास्त्राभ्यासः, बृहद्दीक्षा, पंन्यासपदं च ९ श्रीधरणेन्द्रसूरिपाठनम् १० श्रीपूज्याद्वालुकवादे पृथग् भवनम् ... ,, ( श्रीपूज्यानां शिथिलताचरणं च ) ... ११ श्रीपूज्यपदप्राप्तिर्जावराचतुर्मासी च ... १२ श्रीधरणेन्द्रसूरेः शंकासमाधानम्
wvar.woMPREM
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३ श्रीपूज्येन समाचारीस्वीकारणम् १४ पूर्णाभिग्रहे यथाशास्त्रं क्रियोद्धतिः ... १५ खाचरोदचतुर्मासीतः परं कूकसीसंघोपदेशः १६ गुरुनितनवसिद्धान्तसंक्षिप्तस्वरूपम् ... १७ रत्नपुरीचर्चायां त्रिस्तुतिसिद्धिर्जयश्च ... १८ मोदरानामेऽरण्ये घोरतपस्या... १९ तीर्थोद्धृतिर्लुम्पकोपदेशश्चर्चा च ... २० तीर्थस्थापनं, कोशनिर्माणारम्भश्च ... २१ सिद्धाचल-गिरनारादितीर्थसंघनिर्गमः ... २२ प्रतिष्ठाञ्जनशलाकयोक्जियो लुंपकपराजयश्च २३ प्रतिष्ठानुभावः संघनिर्गमश्च ... ... २४ गुरोरुन्नतिर्मगसीतीर्थसंघनिर्गमश्च ... २५ नवशताबिम्बाञ्जनशलाकया प्रतिष्ठा,... , पञ्चत्रिंशद्-गच्छसमाचारीबन्धनं च ... २६ वालीपुरीचर्चायां गौरवो विजयः ... २७ अर्बुदतीर्थयात्रा, सिरोहीभूपसुगोष्ठी च.... २८ कोरण्टके प्रतिष्ठाञ्जनशलाके ... २९ ज्ञान-जिनप्रतिष्ठा, पंन्यासपदार्पणं च ... ३० धुलेवादितीर्थयात्रा, सूर्यपुरे चर्चायां विजयश्च ३१ श्रीउदयसिंहभूपस्य गुरौ भक्तिः ... ३२ बहुषु पुरग्रामेषु साञ्जनप्रतिष्ठाविधानम्... ३३ चीरोलानिवासिनां दुःखकथोक्तिः ... ३४ गुरूपदेशतदुद्धारो, नवकारोपधानं च ... ३५ प्रश्नोत्तराणि, मक्षीतीर्थसंघनिर्गमश्च ... ३६ सर्वचातुर्मासास्तेषु धर्मवृद्धिश्च ३७ गुरोधर्मकृत्यादिसदाचरणानि ... ... ३८ गुरोर्शानध्यानोपरि सत्योपनयः
MMMS2608,
:::::::::::::::::::::
2017
१०१
१०६ १११
११५
११८
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२३ १२५
१२९ ...१३१ ...१३३
३९ गुरोरपूर्वध्यानविहारक्रियादीनामुत्कर्षता ... ४० पूर्वाचार्यवद्रचित-प्राकृतसंस्कृतग्रन्थनामानि ४१ सङ्गीन-भाषान्तर-ग्रन्थनामानि ४२ गुरुहस्तलिखिताऽऽगमादीनि ... .. ४३ मण्डपाचलयात्राप्रस्थानं, परं श्वासवृद्धया ,, राजगढाऽऽगमनं, मुनिगणवर्णनं च ... ४४ आर्याऽऽगमो, ज्वरश्वासैघनश्च ४५ श्रीसंघचित्तोत्पत्तौ गुरूपदेशः .... ४६ शिष्यसुशिक्षा, समाधिना स्वर्गारोहश्च... ४७ गुरुनिर्वाणोत्सवस्तत्र संघभक्तिश्च ... ४८ अनित्योपदेशो, गुरुमूर्तिस्थापनं च ... ४९ फलसिद्ध या गुरुबिंबा , तद्गुणोत्कीर्तनं च ५० श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-गुरुपट्टावली... ५१ प्रशस्तिः ... ... ... ... ५२ राजेन्द्रगुणमञ्जरी-परिशिष्टकम्... ५३ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वराणां सार्थगुणाष्टकं ५४ स्वगच्छीयमर्यादापट्टकं-३५ समाचारी... ५५ शुद्धाऽशुद्धानि ... ... ... ...
...१३६ ...१३८ ...१४२
१४७
१५५ १५९
१७०
...१८५ ...१९३
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
१-प्राथमिक-वक्तव्यम् :
अयि सज्जनवृन्द ! यदासीदत्र सत्यधर्मयोहानिर्बलीयसी, तदा तां निरसितुं बलवदतितेजस्वि-पुण्य पुञ्जशाल्यादर्शभूतानां नररत्नानां जनिर्बोभोतितराम् । ते च सत्यपि विषमवातावरणे स्वात्मबलेन सत्य-सनातन-धर्मस्थित्यां सुजनजनचित्तमाकृष्याकृष्य तदात्मकल्याणकारिपथं नयन्तितराम् । त_नेके भवभीरवः प्राणिनः स्वकल्याणं कर्तुं प्रभवन्ति । ___एतदेव नैसर्गिक नियममनुसृत्यैतस्मिन् श्रीवीरजिनशासने शिथिलाचारि-जैनाभासानामुपदेशं श्रावं श्रावं भ्रान्तेयं जनता कुपरम्परयाऽऽचारशिथिलतां, वेषविडम्बनता, प्रतिमोत्थापनतां, यथार्थसाधुश्राद्धक्रियालोपनतां, इत्यादिकां कपोलकल्पितामेव शा स्त्रमर्यादां मन्तुं लग्ना । तदवसरे प्रस्तुतग्रन्थवर्ण्यमानः श्रीमानेष आबालब्रह्मचारी, सर्वतन्त्रस्वतन्त्रः, शुद्धक्रियोद्धारकरः, सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-श्वेताम्बरजैनाचार्यवर्यः, श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरस्तद्वृद्धिमुच्छेत्तं भैपूज्योपाधिं विहाय श्राद्धसाधूनां शाश्वतं सत्यधर्म पुनः प्रकाशयाञ्चकार ।
प्रतिग्रामे च लोकवञ्चकतत्कृतानेकोपसर्ग-वितण्डावादादिकष्टं सहमानोऽकृतभयोऽप्रतिबद्धं विहरन्नेष सदुपदेशैरगणितभव्यान् सम्यक्त्वरत्नप्रदानेन शुद्धदृढश्रद्धांश्चक्रिवान् । एवममुना भावानुष्ठाने प्राक्तनी त्रैस्तुतिकीमर्यादा देवोपासनाधिक्याद् विलुप्तप्रायापि प्रमेयाऽनेकग्रन्थोक्ताऽऽदेयसुप्रमाणैः पुनयंतन्तानि ।
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
एवमेषकोऽनेकजिनबिम्बप्रतिष्ठाञ्जनशलाकानां ज्ञानभाण्डागाराणां च स्थापनां चर्कराञ्चकार, अपरं च विशिष्टोपयोगिनमभिधानराजेन्द्रकोषप्रमुखानेकसाहित्यग्रन्थं रचयाञ्चकार । पुनरेषोऽतीवजाग्रद् भावप्रवाहिसुधामयधर्मदेशादिनेदं जैनशासनं जोजोषाञ्चकार । नैतावन्मात्रमेव किन्तु, इत्थंकारमसौ युगापेक्षया सर्वोत्कर्षतामावहनप्रतिबद्धविहारेण, तपसा, ज्ञानेन, ध्यानेन, जातीयोद्धतिकरणेन, मौनादिना च पुरातनप्राभाविकाचार्यसाम्यमुपेयिवान् , इति प्रत्यक्षीकृतवन्तः सर्वे ।
प्रस्तुतेऽस्मिन् श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरीग्रन्थे चैतस्यैव यावज्जीवकृतकार्यभितरव्यावर्ण्यमानसदुपदेशप्रश्नोत्तरादेः प्रासङ्गित्वेऽपि ग्रन्थविस्तारभिया संक्षिप्तमेव व्यावर्णि, किञ्चास्मिन् समावेशितविषयाणां दर्शनसौगम्यार्थं विषयानुक्रमः प्रतिविषयावतरणं चादायि ।
पुनर्ममाऽमुष्य रचने विद्याविशारद-विद्याभूषण-जैनश्वेताम्बराचार्य-श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरिपुङ्गवेन व्याख्यानवाचस्पत्युपाध्याय-श्रीमद्यतीन्द्रविजयेन च साहाय्यमकारि, अतएवैनयोः कृतिनोराभारं मन्ये । प्रणिहितमनसोऽपि मे स्वाभाविकप्रमादादिदोषेण कचिदशुद्धिश्चेत् “ स्त्रीव पुस्तिका जात्वपि शुद्धिं नाञ्चतीति" स्मारं स्मारं कृपया संशोध्य पठनीयममत्सरिभिः सुसज्जनैः।
सादरमभ्यर्थयतेऽसौ रचयिता
गुलाबविजयो मुनिः।
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
२-प्राथमिक-वक्तव्य।
coooooooo सज्जनगण ! जब कि-संसार में सत्य और धर्म की अत्यन्त हानि-कमजोरी हो जाती है, तब उस हानिको हटाने के लिये अति बलवान् , तेजस्वी, बड़े ही भाग्यशाली, आदर्शरूप, नररत्नोंका जन्म होता है और विपरीत वातावरण फैल जानेपर भी वे अपने आत्मबलसे सच्चा, प्राचीन, धर्मकी राह पर उत्तम लोगोंके दिलको खींच खींचकर उन्हें आत्मकल्याणके मार्गपर लाते हैं। तब उसी मार्गके द्वारा अनेक भवभीरु प्राणि अपना आत्मकल्याण करनेके लिये समर्थ होते हैं ।
इसी स्वाभाविक नियमानुसार इस श्रीवीरजिनेन्द्र भगवानके शासनमें शिथिलाचारी केवल जैनमात्र नामधारियोंके उपदेशको सुन सुन कर भ्रमजालमें पड़ी हुई यह जनता कुपरंपरासे प्रचलित आचारशिथिल, वेषविडम्बक, जिनप्रतिमोत्थापक और यथार्थ साधु-श्रावकोंकी क्रियालोपनता आदि कपोल-कल्पित शास्त्रमर्यादाको ही मानने लगी। उसी मौके पर प्रस्तुत ग्रन्थमें वर्णनीय-आबालब्रह्मचारी, सर्वतन्त्रस्वतन्त्र, शुद्धक्रियोद्धारक, सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय, श्वेताम्बरजैनाचार्यवर्य, श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने उस शिथिलाचारादि की वृद्धि को जड़
सह ।
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
मूलसे काटनेके लिये श्रीपूज्यसंबन्धी उपाधी को छोड़कर श्रावक और साधुओं के सनातन एवं सच्चे धर्मका फिरसे प्रकाश किया ।
जिसके फलस्वरूपमें अनेक गाँवोंमें लोकवंचकोंकी ओरसे किये गये नाना प्रकारके उपसर्ग - वितण्डावाद आदिके कष्टोंको सहन करते हुए, भयरहित, एवं अप्रतिबद्ध विहार करते हुए गुरुश्रीने अपने सदुपदेश द्वारा असंख्य भव्य लोगोंको सम्यक्त्व रूपी रत्न देकर निर्मल धर्मकी मजबूत श्रद्धा स्थापन की । इसी प्रकार भावानुष्ठान में अन्य देवोंकी उपासना अतीव बढ़ने से प्राचीन तीन स्तुति संबन्धी मर्यादा लोपप्रायः होने पर भी उस मर्यादा को प्रमाणिक अनेक ग्रन्थोक्त अंगीकरणीय उत्तमोतम आप्त प्रमाणोंसे फिरसे विस्तार की ।
एवं गुरुश्रीने अनेक जिनबिम्बोंकी प्रतिष्ठा, अञ्जनशलाका और बहुतसे ज्ञानभाण्डारोंकी भी स्थापना की, और महोत्तम उपयोगी पौर्वात्य, पाश्चात्य एवं भारतीय - विद्वन्माननीय, समस्तजैनागमानेकानेक परमसारगर्भान्वित, प्राकृतमागधी, श्रीअभिधानराजेन्द्रकोश, वगैरह प्राकृत संस्कृत भाषामय बहुत ही साहित्यशास्त्र रचे ।
-
और आपश्रीने अत्यन्त जागती हुई भावमें वहने वाली अमृतमय धर्मदेशनादि द्वारा इस जिनशासनको अत्यन्त ही दिपाया । केवल इतना ही नहीं, किन्तु इस प्रकार गुरुश्री कलियुगकी अपेक्षासे सब प्रकारसे उत्कृष्टताको धारण करते
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
हुए अपने अप्रतिबद्ध-विहार, तपस्या, ज्ञान, ध्यान, न्यातिसंबन्धी अनेक उद्धार और मौनादि शुभाऽऽचरणोंसे प्राचीन प्रभाविक आचार्योंकी बराबरी को प्राप्त हुए, यह अनुभवसिद्ध प्रत्यक्ष सभी जानते हैं।
इस प्रस्तुत · श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी' ग्रन्थके अन्दर इन्हीं गुरुश्रीके जीवनपर्यन्त किये हुए कार्य एवं दूसरे वर्णन करने योग्य सदुपदेश प्रश्नोत्तर आदिका प्रसंग होनेपर भी ग्रन्थवृद्धिके भयसे संक्षेपमें ही वर्णन किया है और इस ग्रन्थमें रक्खे गये विषयोंको सुगमतासे देखने के लिये विषयानुक्रम भी दिया गया है। ____ इस · श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी' ग्रन्थके रचनेमें साहित्यविशारद-विद्याभूषण-जैनश्वेताम्बराचार्य-श्रीश्री१००८ श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरीश्वरजीने मूल भाषा संशुद्धि में, एवं व्याख्यानवाचस्पत्युपाध्याय--श्रीमद्यतीन्द्रविजयजीने भी प्रूफ संशोधनमें मेरेको अच्छी सहायता दी है । अतएव इन महानुभावोंका आभार मानता हूं । मनको निश्चल रखने पर भी स्वाभाविक प्रमादादि दोषोंके वश कहीं अशुद्धि रह जाना संभव है। क्यों कि-" स्त्रीके समान पुस्तक कभी शुद्ध नहीं हो सकती ” इस उक्तिको ध्यानमें रखकर सज्जनगण इस ग्रन्थको संशोधन करके पढ़ें। विद्वानोंसे ऐसी सादर आशा है।
ग्रन्थकर्तामुनि गुलाबविजय
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छाधिपति-जगत्पूज्य-आचार्यदेव
मीअभिधान राजेन्द्र कशा
प्रभुश्रीमद्-विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज. श्री महोदय प्रेस-भावनगर.
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
००००
00000
सादराञ्जलीसमर्पणम्
श्री राजेन्द्रगुरुर्जनोपकृतिके लीनो ह्यभून्नौमि यं, राजेन्द्रेण कृतातिधर्ममहिमा ध्यायन्ति यस्मै समे । राजेन्द्रात्तु जनाः स्वधर्मनिरता यस्यैव निर्देशगा,
राजेन्द्रे गुरुसद्गुणास्तमभवन् तस्माद्भजन्तेऽखिलाः ॥ १ ॥ सत्कीर्तिर्गुरुणार्जितातिविमला ज्ञानक्रियाभ्यां बुधाः !,
सञ्जित्याखिलवादिनश्च समितौ विस्तारितः सज्जयः । सच्छास्त्रैः स्वकृतैर्विदामुपकृतं राजेन्द्रकोशादिकै
चक्रे चैवमनेककार्यमवनौ राजेन्द्रसूरीश्वरः ॥२॥
धर्माधर्मविवेकपूज्यविनयस्वाचारशिक्षासुखदुःखेहेतरजीवकर्मनिखिलव्याख्यानकर्त्ताङ्गिनाम् ।
सत्यासत्यपथप्रबोधनपटुर्ज्ञानोदधिः सद्गुणी,
सच्चारित्रयुतोऽजनिष्ट मतिमान् विश्वोपकारी गुरुः ॥३॥
संस्थाप्य व्रतसत्तरौ भवनिधेस्ततुं सुखं दुस्तरात्, प्रीत्या ज्ञानधनं व्यदायि गुरुणा सूत्रादि मे शिक्षया । तद्राजेन्द्रगुरोर्विरच्य गुणमञ्जर्यास्त्वदः प्राभृतम्,
तत्स्वीकृत्य गुरो ! ददेऽत्र सफलं कुर्याः सुभक्त्युद्यमम् ॥४॥ इत्येवं प्रार्थयिता मुनि - गुलाबविजयः ।
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
३ - जैनाचार्य - श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर -- गुरुगुणाष्टकम् ।
वसन्ततिलका-वृत्ते
नागेन्द्र चन्द्रदिव सेन्द्र महेन्द्रवन्द्यमाबालशीलवृतमर्चितमात्मशुद्धम् ।
राजेन्द्रसूरिगुरुमंत्र कलावपूर्व, सूर्योदये तमनिशं सुगुरुं हि वन्दे
ज्ञानक्रियासहितमेव हि यस्य शीलं, चारित्रपालनविधौ न च कोऽपि तुल्यः ।
सर्वासु दिक्षु धवला प्रसृता सुकीर्तिः, सूर्योदये तमनिशं सुगुरुं हि वन्दे
क्षान्त्यादिधर्मकरणे कटिबद्ध एव, प्राज्ञैर्जनैश्च विविधैर्नुतिमाप योऽलम् ।
पञ्चेन्द्रियेषु विषयेषु च वीतरागः, सूर्योदये- तमनिशं सुगुरुं हि वन्दे
सर्वेषु जन्तुषु हि यः करुणापरोऽभूत्, शास्त्रबोधनविधौ विगतप्रमादः ।
शिष्याँच सूरिगुणभारिण एव चक्रे, सूर्योदये तमनिशं सुगुरुं हि वन्दे
॥ १ ॥
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
11 8 11
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगूः कृता न चलिता हि कदापि यस्य,
निर्दोषवाक्यमचलं सदसि प्रजातम् । भूपादयश्च कवयो हृदि दधिरे तत्,
सूर्योदये तमनिशं सुगुरुं हि वन्दे भव्यैर्जनैरिह जगत्यपि सेव्यमाने,
दृष्टा न यत्र कथमष्यभिमानवृत्तिः । सिद्धिस्त्वभूद्वचसि यस्य गुणालयस्य,
सूर्योदये तमनिशं सुगुरुं हि वन्दे षट्शत्रुसंकुलमलं स्ववशं चकार,
द्वाविंशतिं परिषहानजयच्च यो हि । विज्ञानवहिपरिभृष्टभवाब्धिबीजं,
सूर्योदये तमनिशं सुगुरुं हि वन्दे यस्योपकारसहितैव मतिः सदैव,
केनापि सार्धमकरोन च भेदभावम् । सर्वत्र यो मम गुरुर्जयमेव लेभे,
सूर्योदये तमनिशं सुगुरुं हि वन्दे राजेन्द्रसूरिगुरुराजगुणौघरम्यं,
यः संपठिष्यति जनोऽष्टकमेतदच्छम् । स प्राप्स्यति प्रचुरकीर्तियुतां सुलक्ष्मीमित्थं 'गुलाबविजयो' मुनिरत्र चष्टे
॥ ७
॥
॥
८
॥
॥९॥
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
४-जैनाचार्य-श्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरीश्वर
गुरुगुणाष्टकम् ।
मालिनी-छन्दसि-- परहितविधिचन्द्रः तत्वबोधैकचन्द्रः,
भविजनवनचन्द्रः मोहविध्वंसचन्द्रः । सुगतिकुगतिचन्द्रः विश्वविख्यातचन्द्रः,
स जयतु धनचन्द्रः शंप्रदः सूरिचन्द्रः ॥१॥ स्वपरसमयचन्द्रः सत्यविज्ञानचन्द्रः,
दलितकुमतचन्द्रः वादिवतालचन्द्रः । दुरिततिमिरचन्द्रः सत्कथाख्यानचन्द्रः,
स जयतु धनचन्द्रः शंप्रदः सूरिचन्द्रः ॥२॥ प्रमुदितबुधचन्द्रः ज्ञानसद्दानचन्द्रः,
भुवनतिलकचन्द्रः धैर्यगांभीर्यचन्द्रः । गुणियतिमणिचन्द्रः सूरिगौण्यैकचन्द्रः, - स जयतु धनचन्द्रः शंप्रदः सूरिचन्द्रः ॥३॥ शमदमसुमचन्द्रः त्यक्तगर्वाष्टचन्द्रः,
चरणकरणचन्द्रः पंचधाचारचन्द्रः । स्वगुणरमणचन्द्रः सिद्धिसौख्यार्थचन्द्रः,
स जयतु धनचन्द्रः शंप्रदः सूरिचन्द्रः ॥४॥
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर-पट्टप्रभाकर
धीR KI
श्रीमद्-विजयधनचन्द्रसूरिजी महाराज.
श्री महोदय प्रेस-भावनगर.
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥६॥
प्रथितसुकृतचन्द्रः भाग्यसौभाग्य चन्द्रः, __ समितिसुमतिचन्द्रः गुप्तिगुप्तकचन्द्रः । व्रतरतमतिचन्द्रः ज्ञातषड्द्रव्यचन्द्रः,
स जयतु धनचन्द्रः शंप्रदः सूरिचन्द्रः नयसमुदयचन्द्रः सत्यनिक्षेपचन्द्रः,
सदयहृदयचन्द्रः प्राणिकारुण्यचन्द्रः । विषयविहतिचन्द्रः भव्यकार्यार्थचन्द्रः,
स जयतु धनचन्द्रः शंप्रदः सूरिचन्द्रः जितपरिसहचन्द्रः लुप्तषड्वर्गचन्द्रः,
दमितकरणचन्द्रः दोषनिर्मुक्तचन्द्रः । प्रकृतिसुभगचन्द्रः धर्मकर्मज्ञचन्द्रः,
स जयतु धनचन्द्रः शंप्रदः सूरिचन्द्रः श्रुतिशुचिरुचिचन्द्रः स्फूर्तिसत्कीर्तिचन्द्रः,
नतपदनृपचन्द्रः पूर्णयोगीन्द्रचन्द्रः । कृतनुतिजिनचन्द्रः तत्प्रतिष्ठाद्यचन्द्रः,
स जयतु धनचन्द्रः शंप्रदः सूरिचन्द्रः नेत्राष्टरत्नविधुवर्षमिते तपस्ये,
ख्यातेऽत्र राजनगरे भुवि गुर्जरस्थे । अस्याष्टकं शिवमिदं धनचन्द्रसूरेदद्याद् 'गुलाबविजयो' वदतीति सत्यम्
॥७॥
॥८॥
॥९॥
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
५-श्रीमदुपाध्याय--श्रीमोहनविजयगुणाष्टकम् ।
शार्दूलविक्रीडित-वृत्ते-- श्रीमतीर्थकरस्य तत्त्वसुभगामाज्ञां सदंगीकृतां, संसारार्णवदुष्टकष्टहरणे श्रेष्ठां तरि योऽभजत् । मत्वा तामिह मातुषादिमुनिवत्तेरुस्त्वनेके जनाः, शिष्यो नन्दतु मोहनाद्यविजयो राजेन्द्रसूरेहि सः ॥१॥ श्रेयःसत्सरणौ निबद्धहृदयः पञ्चेन्द्रियारोधकः,
भव्यानां परमोपकारनिरतो रत्नत्रयाराधकः । सत्सम्यक्त्वसुधर्ममर्मपधगः सन्मार्गसंवर्द्धकः, शिष्यो नन्दतु मोहनाद्यविजयो राजेन्द्रसूरेहि सः ॥२॥ सद्वैराग्यमभूत्तदात्मनि सदा कष्टेऽपि नोद्वेगता, सर्वस्मिन्निह शत्रुमित्रनिवहे सद्भावना सर्वदा । कस्मिन्नागसि चाऽऽगते हि लघु मे मिथ्यास्तु त दुष्कृतं, शिष्यो नन्दतु मोहनाद्यविजयो राजेन्द्रसरेहि सः ॥३॥ व्याख्याने जनचित्तहर्पजननी यस्याऽभवद् भारती,
सद्भावस्फुटतातिसन्मधुरता शीघ्रं च भव्यंकरी । सदृष्टान्तविगर्भिता प्रतिपदे सन्मानिता सबुधैः, शिष्यो नन्दतु मोहनाद्यविजयो राजेन्द्रसूरेहि सः ॥४॥ यस्याऽऽसीत्प्रकृतिः सुशान्तसरला मूर्तिमनोहारिणी, कोपस्तु क्षणिको हृदन्तकरुणः सिद्धान्ततत्त्वे मतिः।
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
......
.
.
.........
.....
श्रीमद्-विजयराजेन्द्रसूरीश्वर-शिष्य
1000,०००००००००
०००००००००
.....
2016)000000000000
100000000.....
......
200000 00000000०.००
.
0 00000000 000000000000०°५००००0000000000... ००००००००००००००,1000
..
)00000000000000000०°
शान्तमूर्तिउपाध्यायजीश्रीमन्मोहनविजयजी महाराज.
.)00000 400001
००००
.
09
००००००००००
०
००
:: :::
:::००० श्री महोदय प्रेस-भावनगर.
.
००००००००
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
१७
शालामें ठहरकर इस प्रकार संघको उपदेश दिया किसारे शरीर विनाशी हैं, संपत्तियाँ शाश्वती नहीं हैं ।। ६५ ।। और देखिये इस संसार में प्रथम तो गर्भावस्था में मनुष्यों को स्त्रीकूँख के अन्दर कितना व कैसा दुःख होता है ? बाल्यावस्था में भी मलसे भरा हुआ शरीर स्त्रीके दूध पीनेका दुःख भोगना पड़ता है, तरुणवय में वियोगादिक से दुःख भोगता है, और वृद्धावस्था में तो शरीर की कमजोरी इन्द्रियों की हीनतादि कारण से कास श्वास अजीर्णादि अनेक दुखोंका अनुभव करना पड़ता है, वास्ते हे मनुष्यो ! संसारमें स्वल्प भी जो सुखका अंश हो तो बतलाओ ? ॥ ६६ ॥
आयुर्नश्यति कालेन, विधेयो धर्म एव हि । संसारासारतां श्रुत्वा, वैराग्यं सोऽगमत्परम् ||३७|| स्वकर्मलाघवत्वेन, जीवो धर्मं चिकीर्षति । सर्वमोहं विमुच्यातः, प्रपद्ये गुरुपत्कजम् ॥ ६८ ॥ सोऽनुमत्या कुटुम्बस्या - चालीत्साकमथाऽमुना | वेदात्नभूवर्षे, ह्यासन् सद्यतयस्तदा प्रमोदसूरिवर्यस्य, साधुदेश्यानुवर्तिनः । हेमविजयनाम्नोऽसौ पार्श्वे दीक्षां मुदाऽग्रहीत् ७० ददेऽस्य रत्नवन्मत्वा, श्रीरत्नविजयाऽऽह्वयम् । यतो यस्मिन् गुणाः श्रेष्ठाः, शीलसन्तोषकादयः ७१
॥ ६९ ॥
,
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
६ - जैनाचार्य - श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरीश्वरस्य
D
गुणाष्टकम् |
वसन्ततिलका - वृत्ते ---
भोपालपत्तनवरेऽस्य जनिर्बभूव, पञ्चाश्रमधरण सुकुले सुनाम्ना । ख्यातोऽप्यभून्मनसि यस्य शिशौ विरागो, भूपेन्द्रसूरिमनिशं तमतः स्मरामि
राजेन्द्रसूरि सुगुरोः सविधेऽस्य दीपसंज्ञाऽग्रहीलघु वयस्यपि संयमं यः । हस्ते पुरत्नविधुवर्षमिते सुबुद्ध्या, भूपेन्द्रसूरिमनिशं तमतः स्मरामि
यस्सद्धियाथ चरणं करणं विदधे,
शीलवतं नवविधं परिपालितं च । काव्यादिकोषम पठत्स्फुटशब्दशास्त्रं, भूपेन्द्रसूरिमनिशं तमतः स्मरामि
अर्भेष्टिनन्दवसुधासमिते मुदाऽस्मै,
संघो ददौ गुरुपदं पुरि जावरायाम् । भक्त्युत्सवैर्मुनिषु वीक्ष्य सुयोग्यमेनं, भूपेन्द्रसूरिमनिशं तमतः स्मरामि
॥ १ ॥
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
11 8 11
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
wwmumm
0 0ruuuune श्री धनचन्द्रसूरि-पट्टप्रमावक
श्रीमद् विजयभूपेन्द्रसूरिजी महाराज.
त्री महोदय प्री. प्रेस-भावनगर
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९
यस्योपदेशमधिगम्य जनास्त्वने के, प्रापुस्तरां द्विविधधर्ममिहात्ममुक्त्यै । उद्यापनानि शुभसम्मतयश्च संघे, भूपेन्द्रसूरिमनिशं तमतः स्मरामि
सज्ज्ञानशेवधिगणास्त्वतिधर्मशालाः नूत्नेवरोद्धतिवराश्च जिनालयानाम् ।
तत्स्थापनानि निजकीयकरेण चक्रे, भूपेन्द्रसूरिमनिशं तमतः स्मरामि
भव्यात्मनां शमदमप्रदमञ्जुगेहः,
प्रोत्कर्ष हर्ष सुविलासविधानदेहः । शान्तस्वभाववन के लिकरैकहेतु
भूपेन्द्रसूरिमनिशं तमतः स्मरामि
शर्वाक्षिगुप्तिरसभूमियुतेऽगमत्स्व
राहोरपत्तनवरे सुसमाधिना यः । माघे सिते मुनितिथौ निखिलोपकारी, भूपेन्द्रसूरिमनिशं तमतः स्मराभि
॥ ५॥
॥ ६ ॥
119 11
॥ ८ ॥
श्रीसंघोऽथ चतुर्विधः स्मरति तं भूपेन्द्रसूरीश्वरं, षट्त्रिंशद्गुणशालिनं सुमनसा भूयस्तरं तद्गुणम् । प्रातर्यस्त्विदमष्टकं सनियमं भक्त्या पठेत्सञ्जनः,
सर्व्वद्धिं स वरां 'गुलाबविजयो' 'ब्रूते सदेत्याप्नुयात् ॥९॥
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
७-जैनाचार्य-श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरि-गुणाष्टकम् ।
__वसन्ततिलका-वृत्तेश्रीधौलपत्तनवरे ब्रजलाल इभ्य
श्चम्पाऽभिधा च ललनाऽजनि तस्य पुत्रः । द्योवेदनन्दविधुगे शुचिरामरत्न
स्तं सजना हि सुनमन्ति यतीन्द्रसूरिम् ॥१॥ राजेन्द्रसूरिसुगुरोरुपदेशमाप्य, ___ श्रीखाचरोदनगरे रुचिरोत्सवेन । दीक्षा ललौ गतिशराङ्कधरासुवर्षे,
तं सजना हि सुनमन्ति यतीन्द्रसरिम् ॥२॥ साधुक्रियां च समधीत्य जवात्सुबुद्ध्या, .
लेभेऽपरां पुनरयं महतीं सुदीक्षाम् । आहोरमध्य इषुपश्चनवाचलाब्दे, ..
तं सजना हि सुनमन्ति यतीन्द्रसूरिम् ॥३॥ काव्यादिजैनवचनस्फुटशब्दशास्त्रे,
सम्यग् विबोधकरणे सुमतिश्च यस्य । व्याख्यानपद्धतिवराखिलबोधदात्री,
तं सजना हि सुनमन्ति यतीन्द्रसरिम् ॥४॥ .. सद्बाचकेतिसमुपाधि विभूषितात्मा,
देशेतरे विचरणे प्रियतास्ति यस्य ।
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री महोदय प्री. प्रेस-भावनगर
. .
. . .
.
. . .
.
.
. . 99
श्रीमद्-विजययतीन्द्रसूरिजी महाराज.
श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरि-पट्टालङ्कार
.
. .
. .
.
6
.
.
.
•
. . . . 86
aaBOBaaaaa09
200000
88888888888888800008090888
geet GOO
88080
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१
श्रीलक्ष्मणौ जनि पद्मजिनस्य तीर्थः, तं सजना हि सुनमन्ति यतीन्द्रसूरिम् संघेन सार्द्धममुना बहुतीर्थयात्रा, भद्रेश्वरस्य विहिता विमलाचलस्य । प्रीत्या पुनर्विकटजैसलमेरकस्य, तं सजना हि सुनमन्ति यतीन्द्रसूरिम् अन्योपकारकरणार्थ मनेन भूरिशास्त्राणि मञ्जुलतराणि विनिर्मितानि । ख्यातानि तानि च बहून्यपि मुद्रितानि,
तं सज्जना हि सुनमन्ति यतीन्द्रसूरिम्
॥ ५ ॥
॥ ६ ॥
119 11
उद्यापनादिसुकृतानि बहून्यभूवन्, यस्योपदेशमनुसृत्य तथा प्रतिष्ठाः । शिष्यावलिश्च शुभधर्मपथप्रवृद्धि - स्तं सज्जना हि सुनमन्ति यतीन्द्रसूरिम् पञ्चाङ्काङ्कधराब्दकेऽतिसुमहै राधे सिताशातिथौ, यं सूरिं सकलोsन्य संघसहितश्चाऽऽहोरसंघो व्यधात् । भक्त्यैतस्य जनो हि योऽष्टकमदो नित्यं मुदा सम्पठेत्, सर्व्वर्द्धिस्तमियाद् 'गुलाबविजयो' वक्ति स्फुटं वाचकः ॥ ९ ॥
॥ ८ ॥
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
guཔད་སྤངt
UDItionyprug
८-ग्रन्थकर्तृसंक्षिप्त-जीवनम् ।
शायद ही कोई सौन्दर्योपासक एवं इतिहासप्रेमी ऐसा मानव होगा जिसके कर्ण-पट पर सर्वाङ्गीण सुन्दर भोपाल नगर की कीर्तिका यश-घोष न पड़ा हो ? । इस नगरमें सरलस्वभावी गंगाराम नाम के मालाकार रहते थे । मथुरा नाम की उनकी भार्या थी जो गृह-कार्य में चतुर तथा आज्ञाकारिणी थी । संवत् १९४० की अक्षय तृतीया सोमवार को जीवननायक का जन्म हुआ । यथा गुणानुसार उसका बलदेव नाम रक्खा । उसके एक बड़े भाई भी थे जिसका नाम हमीरमल था जो अच्छे भ्रातृ-वत्सल थे।
बालवय से ही बलदेव का मन पढ़ने लिखने में तथा एकान्त बैठ शुभ विचार करने में खूब लगता था । भवितव्यता अपना प्रभाव अज्ञात रूप से ही प्राणिमात्र पर डालना प्रारम्भ करदेती है और प्राणी भी अज्ञात रूपसे उसी पथमें गमन करता है-जिसमें उसके लिये कुछ अज्ञात पदार्थ सन्निहित [ समीप ]
और उसका भाग्य-पदार्थ बनचुका है-सौभाग्यसे बलदेवका संसर्ग जैनधर्मानुयायियोंसे विशेष रहता था। शनैः शनैः जैनत्व की छाप उनके आत्म-पट पर पड़ने लगी । एक वार भोपालनिवासी पारखगोत्रीय सेठ केसरीमलजी के साथ आप विदेश को द्रव्योपार्जनार्थ रवाना हुए । मालवान्तर्गत खाचरोद नगर में
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
........
:h
00
.
.
उपाध्याय-श्रीगुलाबविजयजी महाराज.
0000000
भारती भारते यस्य, भासते शशिवत्सदा । स श्रीगुलाबविजयो, जयतान्मुनिसत्तमः ॥१॥
.
०००
9 00
.
8071000
.
श्री महोदय प्रेस-भावनगर.
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
गुरुमहाराज श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी को विराजमान सुनकर आप और सेठ वहाँ दर्शनार्थ उतरे । गुरुश्री के व्याख्यान का बलदेव पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि आपके हृदय में आत्मोद्धार का राग उछलने लगा । कर्मबन्धन की उत्पादक द्रव्योपार्जन लालसा को छोड़कर आप गुरुश्री की सेवामें ही रहकर विद्याध्ययन करने लगे । अल्प कालमें ही आपने पठन-पाठन में आशातीत उन्नति करली और गुरुश्री के हृदयमें एक शुभ स्थान पैदा करलिया । योग्यपात्र समझ कर गुरुदेवने आपको उपाध्याय श्रीधनविजय( धनचन्द्रसूरि )जीके पास मारवाड़ भेज दिया । उन्होंने भीनमाल नगर (मारवाड़ )में संवत् १९५४ मार्गशिर-शुक्ला अष्टमी को भारी समारोहसे बलदेव को लघु दीक्षा देकर 'गुलाबविजय ' नाम स्थापन किया तथा जगत्प्रसिद्ध श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने अपने अनेक साधुसा ध्वियों के साथ संवत् १९५७ माघशुक्ला ५ के रोज आहोरे नगर ( मारवाड़ ) में आप को बड़ी दीक्षा दी।
. आप अतिवेगसे अनन्य मनस्क हो विद्याराधन में लगगये और अविरल परिश्रम कर आठ दश वर्ष की अवधि में ही साहित्य, काव्य, कोष, एवं व्याकरण आदिमें भी योग्यता प्राप्त करली | आप की कुशाग्र बुद्धिसे सर्वजन मुग्ध थे । जैनशास्त्रों के पठन-पाठन के साथ ही साथ आपने ज्योतिषशास्त्र का भी अध्ययन किया । राजगढ ( मालवा ) में संवत् १९६३ पोषशुक्ला सप्तमी को गुरुवर्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी का देवलोक गमन
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
होचुका था, अतः उनके पट्टपर श्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरीश्वरजी विराजमान थे। आपने इनको सर्व प्रकार से योग्य समझ पृथक् विचरने तथा चतुर्मास कर स्वपर कल्याण करने की आज्ञा प्रदान की । आपने अद्यावधि श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज तथा श्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब आदिके साथ २३ तथा स्वतंत्र १८ चतुर्मास किये हैं और छोटी मोटी १०१ तीर्थयात्राएं की हैं । इस समयमें आपने सहस्रों प्राणियों को आत्म-बोध देकर उनका कल्याण किया, उनको अभ्युदयपथ में स्थापन किया, और धर्मक्रिया में सक्रिय बनाया । स्थानाभाव से इन कृत्यों की केवल यहाँ आभामात्र दी जासकेगी।
आप पल्लवग्राही प्रकृति के मुनिराज नही हैं । साधु मुनिराज सर्ववर्ती होते हैं । आप भी सच्चे सर्ववर्ती हैं, प्रत्युत 'प्रथम प्रत्येक राष्ट्र का सुधार हो जाय तो विश्वका उद्धार स्वभावतः होगया' इस सिद्धान्तके आप माननेवाले तथा तदनु कूल चलनेवाले हैं । द्रव्यहोली आदि मिथ्या त्योहारों पर होनेवाले असभ्याचरण के रोकने में आपने पूरा पूरा श्रम किया है
और आपके सदुपदेश से इनका व्यवहारिकता में पर्याप्त सुधार भी हुआ है। - आपकी सुधार--शैली ऐसी आकर्षक एवं ग्राह्य है कि उसकी कार्यपरिणति शीघ्र की जासकती है । लक्ष्य सिद्धकरने के
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५
साधन उत्पन्न इस ढंगसे करते हैं कि लक्ष्य सिद्ध होकर ही रहता है और उसके अमिट स्थैर्य की आशा भी पूर्ण बन्ध जाती है ।
अनेक स्थलों पर आपने कन्या - विक्रय, वृद्ध एवं अनमेल विवाह मृतक - भोजन आदि विषयक सुधार ' श्रीसंघ की कलम द्वारा करवाये, जिनका परिपालन बड़ी गौरवता के साथ होरहा है । आप की नौ कलमें प्रायः अधिक प्रसिद्ध हैं वे संक्षिप्ततया निम्न लिखित हैं
"
१ - धार्मिक एवं मांगलिक पर्वो पर शोक न माने न मनावें और करवा पीने वास्ते भी किसीको न कहें ।
२ - स्त्री पुरुष के मृत्यु होने पर १ वर्ष उपरान्त शोक न रक्खें । ३ - मृतकके शोक में प्रातः कालमें भोजन पहिले स्त्रियाँ रोवे नहीं ।
४ - जिसके घर मृत्यु हुआ हो उस घर के लोगों को वासवाले ही भोजन लाकर दें अन्य वासवाले नहीं |
५ - पुर गाँव में मृतक के बैठने ( मुकाण) के लिये रात्रि - समय घर से रोते रोते न जावें ।
६- बालक के मृत्युमै तीन दिन उपरान्त गामवाले तापड़ जावें नहीं । ७- दाढी में समुदायसे रोते २ नहीं जाना फक्त नहीं गये हुए पीयर सासरावाले जासकते हैं ॥
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
८-नौकारसी एवं स्वामिवत्सल में रात्रिके समय खाण्ड, गुड़
नहीं गालना। ९-पर्युषणके आदि और अन्तमें नौकारसी व स्वामिवत्सलके लिये यत्न पूर्वक भट्टी खोदना पर्युषण में नहीं ।
उक्त नौ कलमें अनेक स्थानों में श्रीसंघके प्रतिबन्धसे पाली जारही हैं । आपके सदुपदेशसे अनेक जिनमंदिरों में सुधार हुए तथा प्रतिष्ठाएं करवाई एवं कितने ही उद्यापन, स्वामीवत्सल, नौकारसियें हुई । आपके प्रत्येक चातुर्मासमें ग्यारह २ पन्द्रह २ तीस २ स्वामिवत्सल एवं अन्य अनेक सुकृत-कार्य भी हुए। कतिपय वर्षों से पड़े हुए दलगत मनमुटावों को मिटाकर आपने अनेक नगर तथा ग्रामों में सुधार कराया। उदाहरण रूप में हरजी में कितने ही वर्षों से श्रीसंघमें विषमय कुसंप का वातावरण प्रचण्ड रूपसे विद्यमान था । कितने ही महानुभावोंने इसे हटाने का यथावत् प्रयत्न भी किया परन्तु सब असफल रहे, आपकी ही सफल नीति एवं मधुर वाणी वहाँ सफल हुई। यह किस श्रीसंघके व्यक्तिसे अज्ञात है ? किन्तु सर्वत्र जगत्प्रख्यात है।
आपमें प्रधान गुण यह है कि आप स्थिति की प्रकृतिके अनुकूल चलते हैं, अपने लक्ष्य-सिद्धि के अनुकूल वातावरण बनाने में आप बड़े कुशल हैं, वातावरण अनुकूल उत्पन्न कर 'सिद्धि कर ही लेते हैं । ऐसा किया हुआ सुधार-जनता को भी प्रिय एवं ग्राह्य होता है । आप सकळ धैर्यशाली सुधारक हैं,
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
आप प्रज्वलित वति को शान्त करने के लिये खाली दोड़नेवाले बकवादी हमदर्दियों में से नहीं हैं । आप प्रथम साधन की ओर दोड़कर साधन सहित घटना स्थल पर पहुँचनेवाले सच्चे उद्धारकोंमें से हैं । आपकी जिह्वामें इतना रस है कि कठोरसे कठोर प्राणी भी पिगल कर मौम बनजाता है । देव तथा देवियों के स्थलों पर बलि होते होते कतिपय भेषों तथा बकरोंको आपने पत्थर हृदय मानवोंके हाथसे बचाये हैं । प्राणिमात्र इन शुद्ध साधु-व्रतधारी मुनिराज का अपार ऋणी है ।
विद्यानुराग तो आपका ओतप्रोत है, पाठशालाएं स्थापित कराना तथा स्वयं उनका निरीक्षण करना आपके प्राणि-हितकृत्यों में से प्रधान कृत्य है । अपनी अमूल्य रचनाओंसे साहित्यभंडारमें वृद्धि करनेके लिये आपने समय समय पर श्लोकबद्धराजेन्द्रगुणमञ्जरी, मन्दचन्द्रप्रबन्ध, गद्यात्मक-सम्यक्त्वपुष्टिकथा, मुहूर्तराज ( संग्रहरूप ज्योतिष-ग्रन्थ ) आदि गद्यपद्यात्मक कितने ही ग्रन्थोंकी रचनाएं की हैं। इसी प्रकार व्याकरण, सांख्यकौमुदी, कुवलयानन्द, श्रुतबोध-सटीक, अनेक विधिविधानके पत्र, ज्ञानपञ्चमी, शीलवती, कामघटकथा, पर्वकथाएं अनित्यपंचपञ्चाशत, तत्त्वार्थसूत्र, सार्थषड़ावश्यक, रूपसेननृपचरित्रादि ३९ ग्रन्थों का लेखन भी आपने सुचारु रूपसे किया, जो साहित्य संसारमें चिर-स्मरणीय रहेंगे। ...
परिश्रमकी आप प्रतिमूर्ति हैं । समय-परायणता आपकी
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨૮
अनुकरणीय है। अपनी अनुभूति पर जो मैंने दीर्घ सहवाससे प्राप्त की है वह कहे विना नहीं रहसकता कि आप समयका एक एक अणु भी व्यर्थ नहीं जाने देते । खाली बैठे मैंने आपको कभी नहीं देखा । लेखन, पठन-पाठन, अध्ययन कुछ न कुछ चलता ही रहता है। आप समयानुसार तपोधनी भी हैं । द्वादश प्रकारकी तपस्या तथा पंच तिथियोंमें उपवास आदि तप नियमित रूपसे करते हैं।
आप अनेक गुणोंके आकर हैं। श्रीमद् विजयभूपेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने आपको गुणोंसे मुग्ध होकर पंन्यास पदसे अलंकृत किया था। वर्तमान आचार्य-श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने अपने पाटोत्सव पर, जो हाल ही में आहोर संवत् १९९५ वैशाखशुक्ला १० दशमी को हुआ था, आपको उपाध्याय पद प्रदान किया है। लेकिन इन उपाधियोंके आप अनिच्छुक और इनसे असन्तुष्ट हैं ।
ऐसे आदर्श, साहित्य-प्रेमी, श्रम-प्रिय, सफल-सुधारक, विद्या-भक्त, धर्म-प्राण, उपाध्यायश्री अपने अमूल्य गुणरत्नों के आलोक से जनता का अज्ञानतम हरते रहें।
मु० बागरा मारवाड़) कुं० दौलतसिंह लोढ़ा 'अर्विन्द' ता० १९-११-३८ । प्रधानाध्यापक-श्रीराजेन्द्रजैनगुरुकुल.
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमद्वीरजिनेन्द्राय नमो नमः । श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पश्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरसद्गुरुभ्यो नमो नमः।
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।
स्वोपज्ञमूलहिन्दीभाषानुवादसहिता च ।
१-तत्राऽऽदौ मङ्गलाचरणम्ऋषभादीन् जिनान्नौमि, मेघवजीवशङ्कराः । सदया गर्भवासेऽपि, लोकेऽस्मिन्नुपकारिणः ॥१॥ पद्यबद्धां च संक्षिप्तां, सरलार्थी सुबोधिदाम् । जीवनोदन्तमञ्जूषां, राजेन्द्रगुणमञ्जरीम् ॥२॥ श्रीमद्राजेन्द्रसूरीणां, त्रिंशद्गुणशालिनाम् । गुरुभक्त्या प्रकुर्वेऽहं, स्वान्यात्मज्ञानहेतवे ॥३॥
॥युग्मम् ॥ ... इस संसार में गर्भवास में भी दयायुक्त महोपकारी मेघके समान जीवों के कल्याण करने वाले चौवीस जिनेश्वरों को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥ आचार्य के. पूर्ण
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। छत्तीस गुणों से अति सुशोभनीय श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-सौभाग्यशाली जैनाचार्य भट्टारक श्री श्री१००८श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की संक्षेप सुगमार्थ सुखपूर्वक सम्यक्त्व देनेवाली श्लोकमय जीवनवृत्तान्त की एक पेटी के तुल्य ‘राजेन्द्रगुणमञ्जरी' को अपने व दूसरों के ज्ञानार्थ गुरुभक्ति से मैं बनाता हूं ॥२-३ ॥
२-पारिखकुलोत्पत्तिः सत्पुरीगुणसम्पन्ना, बभूवातिमनोहरा । चन्देरी नगरी ख्याता, यत्रोषुः सुखिनो जनाः॥ ४॥
१.-आर्य देशोत्पन्न १ कुलीन २ जातिमान् ३ रूपवान ४ दृढशरीरी ५ धैर्यवान ६ निर्लोभी ७ अल्पभाषी ८ अमायी ९ सूत्रार्थ--स्थिर १० आदेय वचन ११ सभाजीत १२ स्वल्पनिद्रालु १३ शिष्यों पर समचित्त १४ शिष्यों व लोगों के देश--काल--भावज्ञ १५-१६--१७ परतीर्थी आदिकों को शीघ्रोत्तर दाता १८ नानादेशभाषावित् १९ पञ्चविधाचारयुक्त २४ चतुर्भङ्गीसे सूत्रार्थदाता २५ सप्रपञ्चनयवादी २६ हेतुद्वारा धर्मस्थापक २७ संक्षेपसे समझानेमें चतुर २८ नयों के अनुसार कथन कर्ता २९ पदार्थग्राहण कुशल ३० स्वपर-सिद्धान्तवेत्ता ३१--३२ उदारस्वभाव ३३ परवादियों को असह्य ३४ कोप रहित, सर्वत्र कल्याणकर ३५ शान्तदृष्टि ३६ । ये और भी अनेक मूलगुण उत्तरगुणों से अतीव सुशोभनीय थे।
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
तस्यामेव च तेजिष्ठो, रम्यराठौरवंशजः । खरहत्थो नृपो न्यायी, योऽभूत्स्वकुलदीपकः ॥ ५ ॥ आचार्य जिनदत्तस्य, पार्श्वे श्रुत्वोपदेशकम् । विक्रमाब्दे खभीतीशे, जैनी राजा बभूव सः ॥ ६ ॥ अम्बदेव १ निम्बदेव २ - भेंशाशाहा ३ssसपालकाः४। तस्याऽभूवन् सुताश्चैते, चत्वारो गुणसागराः ॥ ७ ॥ तृतीयस्य कुमारस्य, पञ्चाssसंश्चारुसुता इमे खलु । कुम्बरजी १ गोलोजी २ - बुच्चोजी ३ पासूजी ४ शैलहत्थाः ५ ।। ८ ।
नगरी के सुन्दर गुणों से युक्त अति मनोहर प्रसिद्ध चंदेरी नाम की नगरी थी, वहाँ पर अति सुखी लोग वसते थे || ४ || उसीमें तेजस्वी सुन्दर राठौरवंश में दीपक तुल्य और नीतिवान खरहत्थ नामक राजा हुआ || ५ || वह नृप विक्रमाब्द १९७० में श्री जिनदत्तसूरिजी के पास में उपदेश सुनकर जैनी हुआ || ६ || उस राजा के अम्बदेव १, निम्बदेव २, शाशाह ३, और आसपाल ४, ये गुणके सागर चार पुत्र हुए || ७ || तीसरे कुंमार के कुम्बरजी १, गोलोजी २, बुच्चोजी ३, पासूजी ४, और शैलहत्थ ५; ये उत्तम पाँच पुत्र हुए ॥ ८ ॥
पासूजीत्यभिधानं, चाऽऽहडनगरस्य नृपश्चन्द्रसेनः । क्रेतुं सद्रत्नादीन् प्रेम्णा स्वपार्श्वेऽस्थापयत्तम् ॥ २९ ॥
"
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। श्रीमालाऽऽख्योऽन्यदा कश्चिद्, विदेशी नृपसंसदि। एकं हीरकमादाय, भूपमित्थमवोचत ॥१०॥ भूपास्य प्रेक्षणं सम्यग् , विधेयं गुणमूल्ययोः। परीक्षकानथाऽऽहूय, स हीरकमदर्शयत् ॥११॥ प्रसशंसुस्ततस्तेऽपि, गुणदोषविदांवराः। इतः कार्यवशादत्र, पासूज्याख्योऽप्यगाद् गुणी॥१२॥ गुणमूल्ये नृपोऽप्राक्षी-द्धीरकस्य मुदाऽथ तम् । सोऽवकस्ति महन्मूल्यं, किन्त्वेकोऽस्मिन्नसद्गुणः १३॥
आहड़नगर के चंद्रसेन राजाने सप्रेम उस पासूजी को रत्नादि खरीद करने के वास्ते पास में रक्खा. ॥ ९ ॥ एक समय राजा की सभा में कोई विदेशी श्रीमाल नामक व्यापारी एक हीरे को लाकर इस प्रकार भूप से बोला ॥ १० ॥ हे राजन् ! इस हीरे की गुण मूल्य की अच्छी तरह परीक्षा करना चाहिये, बाद में राजाने परीक्षकों को बुलाकर हीरा दिखलाया ॥११॥ गुण दोषों के जानकार व्यापारियों ने भी हीरे की खूब प्रशंसा की, इस मौके पर कार्यवश गुणज्ञ पासूजी भी आगए ॥ १२ ॥ अब नृपने सहर्ष हीरा का गुण मूल्य पासूजी को पूछा, वे बोले कि-हीरा बड़ा कीमती है, लेकिन इस में एक बड़ा अवगुण है सो सुनिये ॥ १३ ॥ रक्षेद्यः कोऽपि पार्श्वेऽदो, म्रियेत तस्य सुन्दरी। .. चेदस्ति तेऽत्र सन्देहः, पृच्छयतांतर्हि तत्पतिः॥१४॥
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। स श्रीमालं ततोऽपृच्छत्, तेनोक्तं चैवमेव हे!। पासूज्याख्यं विना राजन् !,दृष्टो नेहक परीक्षकः।।१५।। यदिनान्मेऽस्ति पार्श्वेऽदो, द्वे भार्ये मम मम्रतुः। अथेदं भूप ! विक्रीय, पुनर्लग्नं हि कामये ॥१६॥ श्रीमालोदन्तमाकर्ण्य, नृपः स्वान्तेऽहषत्तदा । वाहवाहेत्यवक् तस्मै, सुन्दरोऽसि परीक्षकः ॥१७॥ तघस्रात्पारिखाख्येन, नित्यं भूपस्तमाह्वयत् । तथैवामुं प्रजाप्यूचे, सास्ति राजानुगामिनी ॥१८॥
जो कोई इसको पास में रक्खेगा उस की स्त्री मर जायगी, इसमें आप को संदेह हो तो उसके स्वामी को पूछे ।। १४॥ बाद श्रीमाल को पूछा, उसने कहा हे नृप ! इसी प्रकार है, पासूजी के सिवाय ऐसा परीक्षक मैंने कहीं भी नहीं देखा ॥ १५ ॥ जिस दिन से मैंने इसे रक्खा है तो मेरी दो स्त्रियाँ मर गई । अब हे भूप ! इस हीरे को बेचकर फिरसे लग्न करूंगा ॥१६॥ उस वक्त भूप श्रीमाल के मुख से यह वृत्तान्त सुनकर मन में बहुत ही खुश हुआ और बोला कि-वाह वाह तुम अच्छे परीक्षक हो॥१७॥ बस उसी दिनसे वह राजा पारिख नाम से उस के साथ सदैव व्यवहार करने लगा। राजा के अनुकूल चलनेवाले कुल लोग भी वैसा ही कहने लगे ॥१८॥ तदैवात्र गुणज्ञाश्च, सत्यतत्वविदांवराः। प्रसशंसुः समे सभ्या, धन्यवादमदुर्भृशम् ।। १९॥
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
यतः - "यो गुणी गुणिनं वेत्ति, गुणी गुणिषु मत्सरी । गुणी च गुणरागी च, सरलो विरलो जनः ॥ २० ॥ विद्वानेव विजानाति, विद्वज्जनपरिश्रमम् । नहि वन्ध्या विजानाति, गुर्वी प्रसववेदनाम्" ॥२१॥ इत्थंकारेण लोकेऽस्मिन् जातं पारिखगोत्रकम् । इतिहासेन तद्वत्तं प्रोक्तं बोधरसप्रदम्
"
॥२२॥
"
३ गुरुजन्मादिपरिचयःअथाऽस्मिन्नेव सद्गोत्रे, पूज्यरत्नस्य सद्गुरोः । समुत्पत्तिः कथं जाता ?, चात्र स्वल्पेन सोच्यते ॥ २३ ॥
उस वक्त में गुणी सच्चे तच्च के जानकार सभी लोग अत्यन्त धन्यवाद युक्त उस की खूब प्रशंसा करने लगे ॥ १९ ॥ क्योंकि - जो गुणी है वह गुणी को जान सकता है, और कोई गुणी गुणी में ईर्ष्या भी रखता है । लेकिन गुणी और गुण का रागी सीधा मनवाला कोई कहीं होता है ॥ २० ॥ पण्डित ही पण्डिताई का परिश्रम जान सकता है, किन्तु मूर्ख नहीं । जैसे वन्ध्या स्त्री पुत्र जनने के दुःख को नहीं जान सकती ||२१|| संसार में इस प्रकार पारिखवंश उत्पन्न हुआ, सो श्रोता जनों के लिये ज्ञानरसप्रद यत्किञ्चित् कहा || २२ || अब इसी पारिखवंश में पूज्यों में रत्न के समान चरित्र - नायक गुरुमहाराज की उत्पत्ति कैसे हुई ? वह यहाँ संक्षेपसे कहते हैं ॥ २३ ॥
1
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
॥२४॥
अस्त्यस्मिन् भारते क्षेत्रे, चतुस्त्रिंशत्कमीलके । आगरानगराद् दूरे, भरतादि पुरं वरम् महोत्तुङ्गगृहश्रेणी - सरः कूपादिमण्डितम् । सप्तविंशवकारैर्यत्, पुरर्ध्या च समन्वितम् ॥२५॥ तथैव शास्त्रेऽप्युक्तं पुरवर्णनम् -
वापी-वप्र-विहार-वर्ण वनिता वाग्मी वनं वाटिका, विद्वब्राह्मणवादिवारिविबुध वेश्यावणिग्वाहिनी । विद्या - वीर - विवेक-वित्त-विनया वाचंयमो वल्लिका, वस्त्रं वारण-वाजि-वेसरवराः स्युर्यत्र तत्पत्तनम् ||२६||
इसी दक्षिण भरतक्षेत्र में अछनेरा रेल्वे स्टेशन से १७ मील और आगरा नगर से चौंतीस मील दूर पश्चिम राजपूताना में एक उत्तम भरतपुर नगर है || २४ ॥ वह बड़े ऊंचे गृहों की पंक्तियों से व तालाब कूपादिकों से सुशोभित, और नगर की सुऋद्धि तथा सत्ताईस वकारों से युक्त है ।। २५ ॥ बावड़ी १, कोट २, देव - मन्दिर ३, चार वर्ण ४, सुन्दर स्त्रियाँ ५, चतुर वक्ता ६, वन ७, बागबगीचे ८, पण्डित ९, ब्राह्मण १०, वादी ११, जलस्थान १२, देवता १३, वेश्या १४, व्यापारी लोग १५, नदी व सेना १६, विद्या १७, वीरनर १८, विवेक १९, धन २०, विनय २१, मुनिराज २२, अनेक जाति की लताएँ २३, वस्त्र २४, हस्ती २५, घोड़े २६, और खच्चर गधे २७, इन सत्ताईस वकारों के नाम से वह भरतपुर अति सुशोभित है || २६ ॥
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। तत्र पारिखगोत्रीय, ओसवंशैकभूषणः। सुशीलो ज्ञानसम्पन्नः, श्रद्धादयोऽखिलतत्त्ववित्।२७) त्यागी लोकविरुद्धस्य, श्राद्धषट्कर्मसाधकः । श्रेष्ठी ऋषभदासोऽभूत्, सम्मतः किल नागरैः ॥२८॥ अनुकूला सदा तुष्टा, दक्षा साध्वी पतिव्रता । केसरी तस्य सद्भार्या, शीलालङ्कारभूषिता ॥ २९ ॥ गर्भाधानेऽथ साऽद्राक्षीत् , स्वप्ने रत्नं महोत्तमम् । तत्प्रभावात्ततोऽनेके, तस्या जाताः सुदोहदाः ॥३०॥ प्रीत्या पपार सुश्रेष्ठी, तान् सश्चि तदैव सः । गर्भरक्षां प्रचक्रे सा, ह्यप्रमादा यथाविधि ॥३१॥
वहीं पर पारिखगोत्रीय ओसवंश में एक अलङ्कार रूप, सदाचारी, ज्ञानी, देवगुरुधर्म में श्रद्धालु, पूर्ण तत्त्वके जानकार, लोकमें विरुद्ध कार्य के त्यागी, श्रावक के छहों कर्म के साधक, और नगर के लोगों से माननीय श्रेष्ठिवर्य ऋषभदासजी बसते थे ॥ २७-२८ ॥ अनुकूल, सदैव प्रसन्न, चतुर, सुशीला, पतिव्रत धर्म को पालने वाली और शीलरूपी भूषणों से सुशोभित, उनके केसरी नामा स्त्री थी ॥ २९ ॥ उसने गर्भावस्थामें स्वममें सर्वोत्तम रत्न को देखा, उसके प्रभाव से अनेक उत्तम उत्तम दोहद उत्पन्न हुए ॥३०॥ उन सबको वह शेठ शीघ्र ही सप्रेम पूर्ण करता था और केसरी भी प्रमाद रहित सविधिगर्भ का पालन करने लगी ॥३१॥
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। पूर्णमासे ततः शान्त्या, प्राच्यादित्यमिव प्रभुम् । कुक्षिशुक्तेः सुवेलायां, साऽसोष्ट सुतरत्नकम् ॥३२॥ गुणाष्टद्रव्यभूम्यब्दे, सप्तम्यां पौषशुभ्रके। सर्वे कुटुम्बिनो लोका,जहषुः सुखशान्तिकैः ॥३३॥ ज्ञातीनां भोजनं दत्त्वा, रसैः षड्भिः समन्वितम् । सोत्सवेन स पुत्रस्य, रत्नराजाऽभिधां ददौ ॥३४॥ सत्कार्यदानपुण्यादि-जिनपूजाप्रभावनाः । खसाधर्मिकवात्सल्यं, श्रेष्ठी चक्रे विवेकतः ॥३५॥
४ शैशवसद्गुणवर्णनम्शुक्लपक्षद्वितीयेन्दु-वदैधत सुखेन सः। सौभाग्यश्रीवरस्थानं, सतां शश्वच मुत्प्रदः ॥३६॥
फिर पूर्ण मास होने पर जैसे पूर्व दिशा सूर्य को जन्म देती है, वैसे ही उसने फॅख रूपी सीप से विक्रमाब्द १८८३ पौष सुदि ७ के रोज सुसमय में सर्व शक्तिशाली सुपुत्ररूप रत्न को जन्म दिया । अतएव सभी स्वकुटुंबके लोग सुखशान्ति पूर्वक अत्यन्त खुश हुए ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ शेठने पुत्रका जन्मोत्सव सह स्वकुटुम्बियों को षद्स भोजन जिमाकर 'रत्नराज' नाम रक्खा ॥३४॥ और विवेकसे दान-पुण्य-जिनपूजा-प्रभावनादि सत्कार्य के साथ शेठने स्वसाधर्मिक वत्सल भी किया ॥ ३५॥
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । अब रत्नराज सौभाग्यसंपत्तिका उत्तम स्थान रूप, सुदि पक्ष की दूज के चन्द्र तुल्य सुख से प्रतिदिन बड़ा होता हुआ सत्पुरुषों को अतीव खुश करने लगा ॥ ३६ ॥ जगामोत्संगमुत्संगात्, प्रतिक्षणमनाकुलः । राजहंसोऽतिहर्षेण, पंकजादिव पङ्कजम् ॥ ३७॥ क्रीडयन्तः समे बालं, संलापैस्तमनेकधा। सदुक्तिनृत्यतामापु-मोदचाटुलयोगतः ॥ ३८ ॥ स्वाऽऽसन्नवेइमवासिन्यः, प्रीतिबुद्धया सुयोषितः । प्राकुर्वन् तस्य सन्मानं, पानभोजनमज्जनैः ॥ ३९ ॥ सहसा वृद्धभावोऽस्य, बाल्येऽप्यासीत्सुपुण्यतः । नाकरोद् बालचापल्यं,किश्चिदप्यन्यदुःखदम् ॥४०॥ सोऽर्भकोऽपि करोतिस्म, यदा गूथादिकां क्रियाम् । तदा चक्रे च संकेतं, स्फुटं शश्वत्सुधीरधीः ॥ ४१ ॥ ___ जैसे राजहंस एक कमलसे दूसरे कमल पर जावे, वैसे ही वह समाधि युक्त सहर्ष प्रतिक्षण एक की गोद से अन्य प्रेमीकी गोदमें जाकर रमता था ।। ३७ ।। सभी कुटुम्बी उस बालक को अनेक प्रकार से खेलाते हुए समोद वाचालता के योग से सुवाक्य बोलने रूप नृत्य करते थे ।।३८॥ पड़ोसकी स्त्रियाँ भी प्रीतिकी बुद्धि से पान भोजन और स्नान द्वारा उसका सन्मान करती थीं ।। ३९ ॥ अकस्मात् सत्पुण्ययोग से बाल्यावस्थामें भी उसका वृद्धभाव था, अतएव वह किश्चिद्
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। भी दुःखद चपलता नहीं करता था ॥४०॥ वह मतिमान् बालक हमेशा साफ संकेत के साथ देहचिन्तादि कुल क्रिया करता था ॥४१॥ प्रासुकं बुभुजे प्रायो, नाऽभक्ष्यं कन्दकादिकम् । हंसवत्क्रीडयन्नित्यं, नृवृन्दं च ह्यमोदयत् ॥४२॥ दर्शयन् स समैबालः, समं प्रीतिं समां क्रमात् । दशाब्दिक्यामवस्थायां, सर्वप्रीतिकरोजनि ॥४३॥ मातापित्रादिसर्वेषां, विनयानन्दकारकः । कालेऽल्पेऽखिलशिक्षायां, प्रवीणोऽभूत्सुधीनिधिः॥४४
___यतो नीतिशास्त्रेऽप्युक्तम्पुण्यतीर्थे कृतं येन, तपः क्वाप्यतिदुष्करम् । तस्य पुत्रो भवेद्वश्यः, समृद्धो धार्मिकः सुधीः ॥४५॥ वरमेको गुणी पुत्रो, न च मूर्खशतान्यपि । एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति, नैव तारागणोऽपि च ॥४६॥
प्रायः अभक्ष्य प्याज लशुन आदि नहीं खाकर, भक्ष्य वस्तु को ही खाता था । सभी बालकों के साथ राजहंसके सदृश बालक्रीड़ा से नरगण को हर्षोत्पन्न, व पूर्ण प्रेम दिखाता हुआ क्रमसे दश वर्षकी अवस्थामें सभीको सुहावना लगने लगा ॥४२-४३॥ बुद्धिनिधान वह उत्तम बालक कुछ समयमें ही सब विषयोंमें चतुर हो, माता पिता ज्ञानी आदि गुणवन्त
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । पुरुषों को अपने विनयादि गुणों से रञ्जन करने लगा ॥४४॥ क्योंकि-सुपुत्रका वर्णन शास्त्रमें भी इस तरह कहा है-जिसने किसी पवित्र तीर्थमें अति कठिन तप किया हो, उसके धार्मिक, बुद्धिशाली, गुणपरिपूर्ण, आज्ञाकारी पुत्र होता है॥ ४५ ॥ गुणी उत्तम पुत्र एक ही अच्छा है, मूर्ख सैंकड़ों भी अच्छे नहीं । जैसे एक ही चन्द्रमा सारे अन्धकार को हटाता है, वैसे ताराओं का समुदाय नहीं ॥ ४६ ।। गुणिगणगणनारम्भे, न पतति कठिनी ससंभ्रमाद्यस्य । तेनाम्बायदि सुतिनी, वद वन्ध्या कीदृशी भवति? ४७ शर्वरीदीपकश्चन्द्रः, प्रभाते दीपको रविः। त्रिलोकीदीपको धर्मः, सुपुत्रः कुलदीपकः ॥ ४८ ॥ दाने तपसि शौर्ये च, यस्य न प्रथितं यशः। विद्यायामर्थलाभे च, मातुरुच्चार एव सः" ॥ ४९ ॥ पुनर्माणिकचन्द्राख्यः, सर्वसगुणभूषितः । वृद्धबन्धुश्च तस्याऽऽसी-ल्लघ्वी प्रेमा भगिन्यपि ॥२०॥ किं चक्षीयाऽखिलं चारु, वृत्तं तस्याऽजनिष्ट वै । मातापित्रादिपादाब्जे, नित्यं प्रातर्नमस्कृतिः ॥५१॥ तदाज्ञापालने धर्म, स्वाशीर्वाक्ये त्वमन्यत । सुभगा चित्तवृत्तिस्तु, वैराग्येऽतिरता मतिः ॥ ५२ ॥ पूज्येषु च परा भक्ति-मित्रभावोऽखिलैः समम् । गुणिज्ञानिषु सद्रागः, सुलाभं तत्समागमे ॥३॥
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।
१३ गुणीगण की गिनती के प्रारंभमें अकस्मात् जिसके नाम पर लेखिनी नहीं पड़े उस पुत्रसे यदि माता सुतवाली कही जाय तो वन्ध्या स्त्री कैसी होती है सो कहो ? ॥४७॥ रात्रिका दीपक चन्द्र, प्रभातका दीपक सूर्य, त्रिलोकका दीपक धर्म, ऐसे ही कुलका दीपक सुपुत्र है॥४८॥ दानमें, तपमें, शूरतामें, विद्यामें और धनोपार्जन करनेमें जिसका यश नहीं फैला, तो वह पुत्र केवल माताकी बड़ी शंका (विष्ठा ) रूप ही है" ॥ ४९ ॥ उनके सर्वोत्तम गुणों से मण्डित बड़ा भाई माणिकचन्द्र, व लघु बहिन प्रेमाबाई थी ॥ ५० ॥ सब वृत्तान्त कहाँ तक कहें ? कुल मनोहर ही था। जैसे कि-माता पित्रादि बड़े पुरुषोंके चरणकमलोंमें नमस्कार करना, उनकी
आज्ञामें व शुभाशीर्वादमें धर्म सुख मानना आदि चित्तवृत्ति बड़ी निर्मल और वैराग्यनिमग्न थी ।। ५१ ॥ ५२ ॥
पूज्यपुरुषों में उत्कृष्ट भक्ति, समस्त जनों के साथ मित्रभाव, गुणी, तथा ज्ञानी पुरुषों में अनुराग और श्रेष्ठ जनों की संगति में वह उत्तम लाभ मानता था ॥ ५३॥
५ धुलेवतीर्थयात्रा, परोपकृतिश्चत्रयोदशाब्द एवायं, यात्रां कर्तुमथान्यदा। धुलेवादिसुतीर्थानां, भ्रात्रा सार्धं चचाल सः ॥५४॥ मार्गेऽमरपुरस्थान-सौभाग्यमल्लकात्मजाम् ।..' डाकिन्याहितदोषेणा-ऽमोचयत्स स्वविद्यया ॥५५॥
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। भिल्लदुःखात्तथाऽरक्ष-त्तत्कुटुम्बं ततः सुताम् । दातुमैच्छत्स तस्मै तां, परं नैषीद् हृदापि सः ॥५६॥ तत्राऽर्चामादिनाथस्य, कृत्वाऽऽत्मनि सुभावनाम् । दत्त्वा दानं सुपात्रेभ्यः, मुखेनाऽऽजग्मतुर्ग्रहम् ॥५७।।
एक समय त्रयोदश वर्षकी वयमें धुलेवादि तीर्थोकी यात्राके लिये रत्नराज बड़े भाईके साथ चले ॥५४॥ मार्गमें अमरपुर-निवासी श्रेष्ठिवर्य-सौभाग्यमलजी की लड़की को अपने विद्याबलसे डाकिनके दोषसे छुड़ाई ॥ ५५ ॥ तैसे ही भीलोंके दुःखसे उसके कुटुम्बकी रक्षा की, अतः शेठने अपनी पुत्री देनेके लिये इच्छा जाहिर की लेकिन परमवैरागी रत्नराजजीने तो उसकी त्रियोगसे भी वॉछा नहीं की ॥५६।। वहांपर आत्मामें सुभावना सह, आदिनाथ भगवान की पूजा, भक्तिकर और सुपात्रमें दान देकर पीछे सुख पूर्वक दोनों भाई अपने घर आए ।। ५७ ॥
६ सिंहलद्वीपगमनं, मातापित्रोवियोगश्चकियत्काले गृहे स्थित्वा, द्रव्योपार्जनहेतवे । पुनस्तौ सिंहलद्वीपं, साऽऽज्ञयाऽगच्छतां मुदा ॥५८॥ प्राज्यं द्रव्यमुपाज्यव, कलकत्तादि वीक्ष्य तौ। पितृसेवेच्छया शीघ्रं, प्रापतुः स्वाऽऽलयं पुनः ॥५९॥
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। जगज्जिघत्सुनाऽनेन, कालेन कवलीकृतौ । पितरौ ज्ञानवैराग्या-नाऽशोचिष्टामुभावलम् ॥६०॥ यतः-कालः पचति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः। कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः ॥ ६१ ॥
द्रव्याणि भूमौ पशवश्च गोष्टे, __ भार्या गृहद्वारि जनाः श्मशाने । देहश्चितायां परलोकमार्गे,
कर्मानुगो गच्छति जीव एकः ॥६२॥ दोनों भाई कुछ समय ठहरकर फिर सहर्ष मा बाप की आज्ञा युक्त धनोपार्जनके लिये सिंहलद्वीप (शिलोन) गए ॥ ५८ ।। वे यथेच्छ धन कमाकर कलकत्तादि नगरों का अवलोकन कर फिर शीघ्र ही मातापिता की सेवा की इच्छासे घर आए ।। ५९ ॥ अपने वृद्धतम मातापिता की दिलोजान से कुछ दिन तक सेवा की । बाद में तीन जगत को खानेवाले कालसे वे कवलित हुए। दोनों भाईयोंने सशोक हो उनका अग्निसंस्कारादि कार्य किया। दोनों भाई समझदार थे वास्ते ज्ञानवैरागसे अधिकतर शोक संताप नहीं किया ॥ ६० ॥ क्योंकि-काल जीवोंको पचाता है, प्रजा को हरण करता है, सबके सोने पर खुद जागता रहता है, वास्ते काल दुलंघनीय है ॥६१ ॥ भूमिमें धन, गोस्थानमें पशुवर्ग, घरके दरबाजे तक स्त्री, अपने सगेवाले लोग श्मशान तक,
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। और शरीर चिता तक जाता है, बाद शुभाशुभ कर्मोंके अनुसार अकेला ही आत्मा परलोक के मार्गमें जाता है ॥६२॥ प्रायेणाऽतो मनो धर्म-ध्याने ताभ्यां नियोजितम् । अन्यस्तु विषयान्मुक्त्वा , हृद्यैषीन् मुनिसङ्गमम् ॥६३॥
७ प्रमोदसूर्युपदेशदीक्षाग्रहणम्कल्याणसूरिसच्छिष्यः, प्रमोदः सूरिरन्यदा। भूतले विचरन्नागा-त्तस्मिन् हि भरते पुरे ॥१४॥ स्थित्वा पौषधशालायां, संघेभ्यो देशनां ददौ। विनश्वराणि गात्राणि, शाश्वत्यो नैव सम्पदः ॥६५॥ दुःखं स्त्रीकुक्षिमध्ये प्रथममिह भवे गर्भवासे नराणां, बालत्वे चापि दुःखं मललुलिततनु स्त्रीपयःपानमिश्रं। तारुण्ये चापि दुःखं भवति विरहजं वृद्धभावोऽप्यसारः, संसारे हेमनुष्याः ! वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति
किश्चित् ॥ ६७॥ इस कारण दोनों भाइयोंने बहुत ही मनको धर्मध्यानमें लगा दिया, और लघु भाई तो सांसारिक सब विषयोंको छोड़ कर दिलमें मुनिसंगति चाहने लगा ।। ६३ ॥
उसी अरसेमें विहार करते हुए कल्याणसूरिजीके शिष्य प्रमोदसूरिजी उस भरतपुरमें पधारे ॥ ६४ ॥ पौषध
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। शालामें ठहरकर इस प्रकार संघको उपदेश दिया किसारे शरीर विनाशी हैं, संपत्तियाँ शाश्वती नहीं हैं ॥ ६५ ।। और देखिये इस संसारमें प्रथम तो गर्भावस्था में मनुष्यों को स्वीकूँख के अन्दर कितना व कैसा दुःख होता है ? बाल्यावस्था में भी मलसे भरा हुआ शरीर स्त्रीके दूध पीनेका दुःख भोगना पड़ता है, तरुणवय में वियोगादिक से दुःख भोगता है, और वृद्धावस्था में तो शरीर की कमजोरी इन्द्रियों की हीनतादि कारणसे कास श्वास अजीर्णादि अनेक दुखोंका अनुभव करना पड़ता है, वास्ते हे मनुष्यो ! संसारमें स्वल्प भी जो सुखका अंश हो तो बतलाओ ? ॥ ६६ ॥ आयुर्नश्यति कालेन, विधेयो धर्म एव हि । संसाराऽसारतां श्रुत्वा, वैराग्यं सोऽगमत्परम् ॥६७॥ स्वकर्मलाघवत्वेन, जीवो धर्म चिकीर्षति । सर्वमोहं विमुच्यातः, प्रपद्ये गुरुपत्कजम् ॥ ६८॥ सोऽनुमत्या कुटुम्बस्या-ऽचालीत्साकमथाऽमुना। वेदाभ्ररत्नभूवर्षे, ह्यासन् सद्यतयस्तदा ॥६९ ॥ प्रमोदसूरिवर्यस्य, साधुदेश्यानुवर्तिनः। हेमविजयनाम्नोऽसौ, पार्श्वे दीक्षां मुदाऽग्रहीत् ७० ददेऽस्य रत्नवन्मत्वा, श्रीरत्नविजयाऽऽह्वयम् । यतो यस्मिन् गुणाः श्रेष्ठाः, शीलसन्तोषकादयः ७१
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। यमराज आयुष्यको नष्ट करता है, वास्ते उभय लोकमें हितकारी धर्म करना ही योग्य है, इस प्रकार संसारकी असारताको सुनकर रत्नराज तो परम वैराग्यको प्राप्त होगया ॥६७॥ क्योंकि जीव जब लघुकर्मी होता है तब धर्मकरने की वांछा करता है, अतः वह विचारने लगा कि मैं सब प्रकारकी बाह्य वस्तुओंके मोहको छोड़कर गुरुके चरणकमलका शरण लूँ.॥ ६८ ॥ वह अब अपने कुटुम्बकी आज्ञा लेकर प्रमोदसूरिजीके साथ चला, क्योंकि संवत् १९०४ में यतिलोक अच्छे थे ॥ ६९ ॥प्रमोदसूरिजीका वरताव तो साधूके समान ही था, बाद रत्नराजने प्रमोदसूरिजीके बड़े गुरुभ्राता श्री हेमविजयजीके पास संवत् १९०४ वैशाख सुदि पंचमी शुक्र वारको सहर्ष दीक्षा ग्रहण की ॥ ७० ॥ अमूल्य रत्न तुल्य मानकर इनका रत्नविजयजी नाम दिया गया क्योंकि इनमें शील सन्तोषादि अनेक महोत्तम गुण थे ॥ ७१ ॥
८-शास्त्राभ्यासः, बृहद्दीक्षा, पंन्यासपदश्च-- मूकीसरस्वतीत्येत-दुपाधि दधतः सतः। श्रीमत्सागरचन्द्राख्य-यतिवर्यात्सुमेधसम् ॥ ७२ ॥ काव्याऽलङ्कारसत्तर्क-कोषव्याकरणादिकम् अध्यापिपद् गुरुश्चैनं, चारुलक्षणलक्षितम् ७३युग्मम् ॥ तपोगच्छेशदेवेन्द्र-सूरेः पार्थेऽथ धीवरः। आगमानां च योऽभ्यासं, सम्यग् रीत्याऽकरोदरम्
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । श्रीपूज्योऽयं पुनश्चास्य, रञ्जितो विनयादिकैः । श्रीहेमविजयाख्येन, गुर्वी दीक्षामदीदपत् ॥ ७९ ॥
फिर कुछ समय बीतने पर गुरु श्रीप्रमोदसूरिजीने बुद्धिमान् सुन्दर लक्षण युक्त इन सुशिष्य श्रीरत्नविजयजीको 'मूकीसरस्वती' पदवीके धारक याने मारवाड़में उस समयके यतियोंमें प्रखर विद्वान् यतिश्रेष्ठ श्रीसागरचन्द्रजीके पास रखकर काव्य, अलङ्कार, न्याय, कोश, और व्याकरण आदिका अतिसुन्दर रूपसे अभ्यास करवाया। गुरूकी शुभ कृपासे * श्रीरत्नविजयजी' ने कुछ समयमें ही जैनागमोंका भी अवगाहन किया, तथापि गुरुगम्यात्मक होने के लिये श्रीपूज्य 'श्रीदेवेन्द्रसूरिजी' के पास शङ्का समाधान सहित सुचारु रूपसे शीघ्र ही जैनागमोंका भी अभ्यास करलिया ।। ७२ ।। ७३ ॥ ७४ ।। और श्रीपूज्यजीने रत्नविजयजीके विनय विवेक आदि उत्तम गुणोंसे रञ्जित होकर इनको श्रीहेमविजयजीसे उदयपुरमें बड़ी दीक्षा दिलाई ।। ७५ ॥ पंन्यासपदमेतस्मै, तथास्मिन्नुदये पुरे। पुनरूचेऽथ तेनायं, ममायुर्निकटागतम् ॥७६ ॥ मच्छिष्यधरणेन्द्राख्य-सूरेः शिक्षाप्रपाठनम् । सर्व कार्य त्वयैवास्य, ह्येवमेवेत्यवक् तदा ॥७७ ।। स्वशिष्योऽपि तथाऽभाणी-दस्याऽऽदेशे प्रवर्तनम् । पठनीयस्त्वयावश्यं, तद्वचोऽङ्गीचकार सः ॥७८ ॥
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । ततो देवेन्द्रसूरिस्त्वा-हारं त्यक्त्वा समाधिना । श्रीराधनपुरे रम्ये, सद्ध्यानेन दिवं ययौ ॥ ७९ ॥
___९-श्रीधरणेन्द्रसूरिपाठनम्स धरणेन्द्रसूरिश्च, रत्नविजयमाह्वयत् । गुर्वादेशान्मिथःप्रीत्या, सोऽप्यागच्छत्तदन्तिक॥८॥
और पंन्यास पद प्रदान करवाया, फिर श्रीपूज्यजीने श्रीरत्नविजयजीसे कहा कि-मेरा आयु तो समीप आगया है, मैंने मेरे पाटपर शिष्य धीरविजयको धरणेन्द्रसूरि नामसे विभूषितकर स्थापन किया है, अभी इसकी लघु वय है वास्ते इसको अनेक सुशिक्षाएं देना व पढ़ाना और इसका कुल कार्य तुमको ही करना होगा । यह सुनकर विनीत पं० रत्नविजयजीने कहा कि-इसी मुजब करूंगा ॥ ७५ ॥ ७६ ॥ ७७ ॥ और शिष्य विजयधरणेन्द्रसूरिजीसे भी कहा कि-तुम पं० रत्नविजयजीकी आज्ञामें चलना विद्याभ्यास भी जरूर करना । उन्होंने उनके वचनोंको स्वीकार किया ॥७८ ॥ बाद श्रीदेवेन्द्रसूरिजी चारों आहारका त्यागकर शुभ ध्यान पूर्वक समाधिसे राधनपुरमें स्वर्ग गए ॥ ७९ ॥
तदनन्तर श्रीधरणेन्द्रसूरिजीने श्रीरत्नविजयजीको बुलाया, और वो भी परस्पर अतिप्रीति होनेसे गुरू के आदेशसे श्रीपूज्यजीके पास आए ॥ ८० ॥
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। पूज्यश्च यतयोऽन्येऽपि, सम्मानविनयैः समम् । रत्नविजयपंन्यासा-च्छिष्यवत्पेठुरादरात् ॥ ८१ ॥ यतः-"गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते, न महत्योऽपि सम्पदः। पूर्णेन्दुन तथा वन्यो, निष्कलङ्को यथा कृशः ॥८२॥ शरीरस्य गुणानां च, दूरमत्यन्तमन्तरम् । शरीरं क्षणविध्वंसि, कल्पान्तस्थायिनो गुणाः" ॥८३।। जाताः षोडशविद्वांसो, हृष्ट्वा पूज्योऽथ तद्गुणैः। विद्यागुरुप्रतिष्ठायै, दफ्तरीतिपदं ददौ ॥८४ ॥ यतः-" गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणी,
बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बलः । मधोर्गुणं वेत्ति पिको न वायसः,
करी च सिंहस्य बलं न मूषकः ॥ ८५ ॥ अब पंन्यास श्रीरत्नविजयजीका सन्मान विनय रखते हुए श्रीपूज्य व दूसरे यति भी सादर शिष्यकी तरह उनसे विद्याभ्यास करने लगे ॥ ८१ ।। क्योंकि-सब जगह गुण पूजे जाते हैं, किन्तु बड़ी बड़ी संपत्तियां नहीं, जैसे अकलङ्कित निर्बल दूजका चन्द्र वन्दन करने योग्य होता है, वैसा पूनमका नहीं ।। ८२ ॥ फिर शरीरके और गुणोंके परस्परमें बहुत ही अन्तर है, जैसे शरीर क्षणभरमें विनाशशील है, परन्तु कल्पान्त काल पर्यन्त स्थिर रहने वाले तो गुण ही हैं ॥८३।। अतः पं० रत्नविजयजीके शुभ परिश्रमसे सोलह यति विद्वान् हुए, वास्ते
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। श्रीधरणेन्द्रसूरिजी ने, पंन्यासजीके सद्गुणोंसे अति खुश होकर विद्यागुरू श्रीरत्नविजयजीकी प्रतिष्ठा बढ़ानेके लिये दफ्तरीका पद दिया ॥ ८४ ॥ क्योंकि-गुणवान् नर ही गुणीके गुणोंको जान सकता है, निर्गुणी नहीं, बलवान् बलिष्ठके बलको जान सकता है लेकिन निर्वली नहीं, जैसे वसंतऋतुके गुणोंको कोकिल जानती है, किन्तु कौआ नहीं, एवं सिंहका बल भी हाथी ही जान सकता है पर चूहा नहीं ॥ ८५ ।। मन्त्रज्योतिश्चमत्कारैः, स्वर्णयष्ट्यादिसपटान् । योधपुर-बिकानेर,-भूपाभ्यां यो व्यतीतरत् ।। ८६॥
१० श्रीपूज्याद्वालुकवादे पृथग् भवनम् ,
(श्रीपूज्यानां शिथिलताचरणं च ) रामाक्षिनेन्दभूदर्षे, घाणेरावाख्यपत्तने । पूज्यस्याऽभूचतुर्मासी, पश्चाशद्यतिभिस्सह ॥ ८७ ॥ प्राप्ते पर्युषणे क्रीत-मैलेयं तेन सूरिणा। पंन्यासस्तत्परीक्षायै, समाहूतो द्रुतं मुदा ॥ ८८ ॥
१-श्रीपूज्यों में दफ्तरीका पद सम्माननीय माना जाता है, या यों समझिये कि यही एक श्रीपूज्योंका अमात्य है। अपराधी यतियोंको दण्ड देना, उपाध्याय, पंन्यास, गणिपद आदिका पट्टा लिखना, चातुर्मासका आदेश-पत्र देना और श्रीपूज्य संबन्धी सम्पत्तिके आय-व्ययका हिसाब रखना, यह सब दफ्तरी के अधिकार में ही रहता है ।
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। कीदृग्गन्धं कियन्मूल्यं, हठात्पृष्टः पुनः पुनः । तदोवाच शिरो धुन्वन् , नैव पर्वणि युज्यते ॥ ८९ ॥ भाविवशाच्च दाक्षिण्या-दीहङ् मूल्याद्युवाच सः। श्रुत्वा पूज्योतिगर्वेण, तद्धास्यमकरोत्कुधीः ॥९० ॥
फिर रत्नविजयजीने अपने मंत्र, ज्योतिष, आदि चमत्कारके बलसे जोधपुर-बीकानेरके नरेशोंसे सोनेकी छड़ी, दुशाले, आदि श्रीधरणेन्द्रसूरिजीको भेंट करवाये ।। ८६ ॥
सज्जनगण ! संवत् १९२३ का चातुर्मास श्रीपूज्यजीका पं० रत्नविजयजी आदि ५० यतियोंके सहित घाणेरावमें हुआ ॥ ८७ ॥ वहां श्रीपूज्यजीने भरपर्युपणमें इत्र खरीदकर
१-कारण कि-यति सिद्धिविजयजी के समयसे इन दोनों नरेशोंके ओरसे तपागच्छीय श्रीपूज्यों को छड़ी, चामर, आदि भेंट बन्द होगई थी । वही आपने अपनी प्रतिभासे धरणेन्द्रसूरिजीको फिरसे दिलवाना प्रारंभ करवा दी। श्रीपूज्यों में यह प्रथा सम्राट अकबरसे प्रचलित है । श्रीहीरविजयसूरिजीने अकबरको धर्मोपदेश दिया, जिससे प्रसन्न होकर अकबरने सूरिजी की इच्छा न होने पर भी, अपनी भक्तिके स्मरण स्वरूपपालखी, चामर, छड़ी आदि राजसी उपकरण भेंट किया था, जो संघकी इच्छासे आचार्यके आगे आगे चलता रहा । कालान्तरमें शिथिलताके कारण श्रीपूज्य-दयासूरि, किसी किसीके मतसे श्रीपूज्य-विजयप्रभसूरि पालखीमें बैठने लगे। तभीसे यह परिपाटी श्रीपूज्यों में आज पर्यन्त प्रचलित है।
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
उसकी परीक्षाके वास्ते सहर्ष श्रीरत्नविजयजीको बुलाये || ८८ || और वार वार उनसे पूछा कि यह इत्र कैसा सुगन्धि व कितना कीमती है ? उस समय वैराग्य वश शिर कम्पाते हुए पंन्यासजी बोले कि ऐसे उत्तम पर्व में विषयपौष्टिक इत्र खरीदना बिल्कुल उचित नहीं है। क्योंकि - यत्र विरागस्तत्र सरागः कथमिति नीतेः ।। ८९ ।। फिर भावी योगसे श्रीपूज्यजी के साग्रह पूछने पर रत्नविजयजी दाक्षियतासे वोले कि - यह इत्र इतना कीमती ऐसा सुगन्धि है इत्यादि सुनकर कुमतिवश श्रीपूज्यजीने अतिगर्व से पंन्यासजीका उपहास्य किया ।। ९० ।।
1
यतः - " षडेते मूर्खचिह्नानि गर्यो दुर्वचनं मुखे । विरोधी विषवादी च कृत्याकृत्यं न मन्यते ॥ ९१ ॥
"
"
यौवनं धनसम्पत्तिः, प्रभुत्वमविवेकिता । एकैकमप्यनर्थाय किं पुनस्तच्चतुष्टयम् ॥९२॥ विषयेऽस्मिन् विवादोऽभूत्, पूज्य - पंन्यासयोस्तदा । पूज्येनोक्तं विवादान्ते, मर्मवाक्यं सुधा यथा ॥ ९३ ॥ लिष्टा यदि ते शक्ति- र्भवेत्पूज्यो भवानपि । नवशिक्षासमाचार्या -मस्याऽऽनेतुमचिन्तयत् ||१४||
लेकिन नीतिवाक्य है कि अहंकार रखना, मुखसे कुबचन बोलना, विरोध करना, टण्टा - फिसाद करना, और कर्त्तव्य अकर्तव्य नहीं मानना ये छहों मूखोंके चिह्न हैं ॥९१॥
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
और युवावस्था, धनादि संपद्, मालिकपन, और निर्विवेकपन, इनमें से एक-एक भी अनर्थके लिये होते हैं तो फिर जहाँ चारों का संयोग मिले तो वहां अनर्थ होनेका पूछना ही क्या ? ॥ ९२ ॥ उस मौके पर इस इनके विषयमें श्रीपूज्यजी और पंन्यासजी के बहुत ही विवाद बढ गया, विवादके अन्तमें श्रीपूज्यजीने व्यर्थ मर्मका वचन भी कहा, जैसे कि जो तेरी बलवती शक्ति हो तो जा तूं भी श्रीपूज्य बनजा, तब उसी वक्त पंन्यासजीने श्रीपूज्यजीको नत्र प्रकारकी गच्छ - मर्यादामें लाने वास्ते मनमें ही शुभ विचार करलिया ॥९४॥
२५
॥ ९६ ॥
अपि च त्रयः स्थानं न मुञ्चन्ति, काकाः कापुरुषा मृगाः। अपमाने त्रयो यान्ति, सिंहाः सत्पुरुषा गजाः ॥ ९५ ॥ वार्तालापं मिथः कृत्वा, सद्बुद्ध्या सन्नरोत्तमः । ततः प्रमोदरुच्यादि-श्रीधनविजयैस्सह आहोरं विहरन्नागात्, प्रमोदगुरुसन्निधौ । भूतपूर्वश्च वृत्तान्तो, गुर्वग्रे तेन सूदितः ११ - श्री पूज्यपदप्राप्तिर्जावराचतुर्मासी चगुरुः श्री पूज्यशिक्षायै, संघेन सह संमतिम् । कृत्वोत्सवेन शिष्याय, सूरिमन्त्रं वितीर्य च ॥ ९८ ॥
॥ ९७ ॥
फिर मनमें सोचा कि - कौआ, कायरपुरुष, और हरिण, ये तीन अपमान होने पर भी स्थान नहीं छोड़ते हैं, लेकिन
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। सिंह, उत्तम नर, और हाथी, छोड़ देते हैं, वास्ते अब मुझे यहाँ ठहरना योग्य नहीं ॥ ९५ ॥ उसके बाद नरश्रेष्ठ पंन्यासजी सुबुद्धिसे परस्पर वार्तालाप कर श्रीप्रमोदरुचिजी श्रीधनविजयजी आदि सुयोग्य यतियोंके साथ ' नाडोल ' आदि पुर ग्रामों में विहारकर आहोर विराजित श्रीप्रमोदसूरि गुरुजीके पास आए, और पूर्वभूत कुल वृत्तान्त गुरु व संघके अगाड़ी अच्छी तरहसे कहा ।। ९६ ॥ ९७ ॥
गुरुने श्रीपूज्यको शिक्षा देनेके लिये श्रीसंघकी संमतिसे सुन्दर गीत मंगल ध्वनिके साथ महोत्सव युक्त संवत् १९२४ वैशाख सुदि ५ बुधवारके रोजवेदनेनवेलाब्दे, ऽकरोत्सद्गीतमङ्गलैः। माधवे शुक्लपञ्चम्यां, राजेन्द्रसूरिनामतः ९९ युग्मम् श्रीयशोवन्तसिंहस्तद्-ग्रामाधीशो मुदा ददौ । शिबिकासूर्यमुख्यादि-चामराणि च सूरये ॥ १० ॥ अथो राजेन्द्रसूरीशो, विचरंश्वारुसाधुभिः । प्राप्तः शंभूगढं यातः, फतेसागरसङ्गमम् ॥ १०१ ॥ यतिवर्योऽत्र भूपेश-कार्यकर्ता ह्यकारयत् । सोत्सवमुपहारं च, ततोऽगाजावरापुरम् ॥ १०२ ॥ तत्र संघश्चतुर्मासी, भावेनाऽकारयन्मुदा। व्याख्यानेऽवाचयत्तेन, पश्चमाङ्गं यथाविधि ॥ १०३ ॥
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। अपने शिष्यको मूरिमंत्र देकर 'श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरि' नामसे प्रख्यात किया ॥ ९८ ॥ ९९ ॥ उसी सुअवसर पर गुरुके प्रभावसे आहोरके ठाकुर-'श्रीजसवन्तसिंहजी' ने सहर्ष श्रीपूज्यजीको छड़ी, चामर, पालखी, सूरजमुखी, आदि भेंट किये ॥ १०० ॥ तदनन्तर श्रीपूज्य श्रीविजयराजेन्द्रसूरिजी महाराज अपने सुयोग्य यतिमण्डल सह पुर ग्रामादि विचरते हुए मेवाड़देशान्तर्गत ' श्रीशंभूगढ़ ' आए, यहाँ श्रीफतेसागरजीसे मिलाप हुआ, और यतिवर्यजीने सोत्सव राणाजीके कामेतीसे भेंट पूजा करवाई । बाद
१-आहोर का ठिकाना जोधपुरराज्य के प्रथम दर्जे के ताजिमी सरायतों में से एक है-जिसको प्रथम नम्बर का दीवानी फोजदारी हक, डंका निशान और सोनानिवेश का मान प्राप्त है। इस गादी के साथ ठाकुर जसवंतसिंहजीसे ही इस ठिकाने का अच्छा सहयोग रहा है । वर्तमान ठाकुर साहब रावतसिंहजीने भी अपने पूर्वजोंके समान आचार्यपदप्रदान महोत्सव पर आये हुए अगणित भावुकों के जानमाल की रक्षा का अच्छा प्रबंध किया । समय समय पर स्वयं पधार कर महोत्सव की शोभामें . अच्छी वृद्धि की । आचार्य श्रीयतीन्द्रसूरिजी महाराजके सदुपदेशसे संवत् १९९५ वैशाखसुदि ३ से ११ तक उत्सवके ९ दिनोंमें हिंसा रोकने, प्रतिवर्ष ४ बकरे अमर करने, सदाके लिये हिरणका शिकार बन्द रखने और प्रतिवर्ष वैशाखसुदि १० के दिन हिंसा व शिकार बन्द करने की उदारता प्रगट की जो धन्यवादके लायक है।
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
૧૮
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
बन्दाते हुए आपश्री जावरे पधारे । वहाँके श्रीसंघ ने सहर्ष अतीव भावसे आपश्रीका चौमासा करवाया, व्याख्यानमें विधियुक्त ' श्रीभगवतीसूत्र वाँचा ॥१०१-१०३ ।। संश्रुत्य यवनाधीशः, संघाऽऽस्यात्पूज्यवर्णनम् । प्रश्नोत्तरेण हृष्टस्सन्, सूर्यमुख्यादिकं ददौ ॥१०४॥ विहरन् मालवे देशे ऽनेकाञ्छ्राद्वान् प्रबोधयन् । असौ ज्ञानक्रियाभ्याम-मुमुदत्तन्मनस्सुधीः ॥ १०५॥ १२- श्रीधरणेन्द्रसूरेः शङ्कासमाधानम्
"
ततो राजेन्द्रसूरेस्तु, श्री पूज्यस्यातिविस्तृता । चतुर्दिक्षु महाकीर्ति-भीतः पूज्यो हि तेन सः ॥१०६॥ यतयो ! मम पूजायां, महाहानिर्भविष्यति । किञ्च गह्रर एकस्मिन्नुभौ सिंहौ न तिष्ठतः ॥ १०७॥
यहाँ श्रीनवाब साहबने श्रीपूज्यजीका अति रमणीय वर्णन सुनकर उनसे प्रेश्न पूछे। उनके प्रत्युत्तरसे खुश होकर
१ नबाब - प्राणीमात्र में समभाव रखनेवाले आप जैसे महात्मा हमारे घरका आहार ले सकते हैं या नहीं ?
उत्तर——आहार-व्यवहार आचार और लोकमर्यादा पर अबलम्बित है । इसका आहार के बजाय विचार के साथ अधिक सम्बन्ध है । अन्त्यज होकरके यदि क्रियाकलाप को शुद्ध रखता और अभक्ष्य वस्तुओं को छोड़ देता है, वह ब्राह्मण
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणभञ्जरी । नवाबसाहबने सूरजमुखी आपदागिरि आदि भेंट दिये॥१०४॥ फिर ये बुद्धिविचक्षण श्रीपूज्य मालव देशमें विचरकर अनेक श्रावकोंको प्रतिबोध देते हुए अपने ज्ञान क्रियादि गुणोंसे श्रीसंघके मनको खूब ही खुश किया ॥ १०५॥ या श्रेष्ठकुलीन से भी अधिक है । उसके घर का आहारादि लेना अनुचित नहीं है । इससे उलटा यदि उच्चकुलीन होकरके अपने आचार विचार को शुद्ध नहीं रखता तो पतित ही है। उसके घरका आहारादि लेना शास्त्र व शिष्टमर्यादासे निषिद्ध ही समझना चाहिये। तात्पर्य कि धर्ममात्र का ध्येय एक ही है, इसलिये ज्ञातियों के भेद उपभेद उसमें बाधक नहीं है। इस वास्तविक उत्तरसे नवाब साहब के हृदय में नये प्रकार का ज्ञान दीपक प्रगट हो गया और उन्होंने अपनी हार्दिक प्रसन्नता प्रगट की।
दीवान--- आपके पास अनेक स्त्रियाँ वन्दनार्थ आती हैं ऐसी दशा में आपका मन अचल कैसे रहता होगा ?
उत्तर-मांस-लोलुपी जिह्वा मांसको देखकर ललचाये विना नहीं रह सकती । परन्तु सच्चे मुसलमान को सूअरके मांस पर घृणा हुए विना न रहेगी । इसी प्रकार हमारी दृष्टी रमणीमात्र में घृणाजनक वस्तुओं का पुंज देखती है और इसी कारण स्त्रियों के प्रति हमारा मन नहीं ललचाता । अतः हम स्त्रियाँमात्र को बहेन के समान मानते हैं, आपही कहिये ऐसी परिस्थिति में विकारभावना को स्थान किस प्रकार मिल सकता है ?, नहीं । इस उत्तर को पाकर दीवानसाहब भी बड़े प्रसन्न हुए और उपस्थित जनता में आपकी भूरि प्रशंसा की।
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
उसके बाद श्री पूज्य श्री विजयराजेन्द्रसूरिजी महाराजका चारों दिशाओं में यशः कीर्तिका साम्राज्य फैल गया, इससे वे प्राचीन श्रीपूज्य मनमें अत्यन्त घबराये ॥ १०६ ॥ और बोले कि - हे यतियो ! अब मेरी पूजामें बड़ी हानि पहुँचेगी, क्योंकि - एक गुफा में दो सिंह निवास नहीं कर सकते ॥ १०७॥ विमृश्यैवं स सन्धित्सु -दलं दत्वा च प्रेषितौ । यतिमुख्यतमौ सिद्ध-कुशल - मोतिनामकौ ॥ १०८ ॥ पूज्योदन्तमथाग्रे ता - हृदतुः संघपूज्ययोः । संघोsवादीदिदं वाक्यं मन्ये पूज्यं गुणान्वितम् १०९ ततो राजेन्द्रसूरिं तौ वन्दित्वैवमथो चतुः । शुभाशुभन्तु गच्छस्य, भवच्छीर्षेऽस्ति बुद्धिमन् !११० बहुनाशनमल्पार्थे, त्वादृशां नैव युज्यते । त्वयैवोत्फुल्लिता वाटि - नश्यते साधुना कथम् ११११ दयार्द्रीकृतचेतास्स, श्रुत्वा पूज्योऽवगीदृशम् । अनेनोपाधिना ह्यात्मा, स्फुटं मे खिद्यतेऽनिशम् ११२
इस प्रकार विचारकर सम्पकी इच्छासे श्रीधरणेन्द्रसूरिजीने एक रुक्का देकर अपने यतिश्रेष्ठ सिद्धकुशलजी व मोतीविजयजीको जावरे भेजे ॥ १०८ ॥ उन दोनोंने आकर श्रीसंघके आगे श्रीपूज्यका कुल वृत्तान्त कहा, उसे सुनकर संघने यह जवाब दिया कि हम तो गुणयुक्त श्रीपूज्यको मानते हैं, इन्हें योग्य देखकर माने हैं एवं दूसरेको
-
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
भी मानेंगे || १०९ ॥ बादमें वे दोनों श्री राजेन्द्रसूरिजीको वन्दना करके ऐसे बोले कि हे सुमतिन् ! गच्छका सब शुभाशुभका भार आपश्रीके ही शिर पर है ।। ११० ।। थोड़ेके वास्ते बहुतसा नुकसान करना आप जैसे सत्पुरुषोंके लिये योग्य नहीं है, आपने ही यह वाड़ी प्रफुल्लित की है तो इस वक्त में उसका नाश कैसे करते हैं ? ॥ १११ ॥ श्रीपूज्यजी इस प्रकार सुनकर दयार्द्र चित्तसे बोले कि मेरी आत्मा साफ इस श्री पूज्यकी उपाधि से सदैव खींजती है याने महादुःखी होती है ॥ ११२ ॥
३१
भोः ! क्रियोद्धारकर्तास्मि, कल्याणार्थं निजात्मनः । नवधात्मकगच्छीय- समाचार्यां चलेद्यदि ॥ ११३ ॥
१३ - श्री पूज्येन समाचारीस्वीकारणम्
"
तथाह्यावश्यकं संधैः सार्धं व्याख्यानवाचनम् । जिनगेहं च गन्तव्यं, याप्ययानादिकं विना ॥ ११४ ॥ विनोपकरणं साधो-नैव स्वर्णादिभूषणम् । यतयः परिदध्युश्च कार्या स्थापनलेखना ॥ ११५ ॥ यन्त्रमन्त्रादिकं कृत्यं, नाऽनुष्ठेयं तथाऽमुना । व्येतव्यं ह्यधिकं नैव, नाऽऽरोहेच्च हयानसी ॥ ११६ ॥ नाऽलङ्कारं स्पृशेज्जातु नो दध्यात् क्षुरिकादिकम् । नrseपेच स्त्रिया सार्धं, विजने तां न पाठयेत् ॥११७॥
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। हे यतियो ! यदि वे प्राचीन श्रीपूज्य नवप्रकारकी गच्छ मर्यादामें चलें तो आत्माके कल्याणार्थ मैं तो क्रियोद्धार करनेवाला हूं॥११३।।।
श्रीविजयराजेन्द्रसूरिजी महाराजने पूर्व श्रीपूज्यजी को गच्छ की नव समाचारियां स्वीकार करवाई। वे क्रमशः ये हैं, १-संघ के साथ हमेशा प्रतिक्रमण करना, एवं व्याख्यान देना, पालखी आदि वाहनके विना ही दर्शनार्थ जिनमन्दिर जाना, यतियोंको यतियोग्य उप. करण के शिवाय सोना चांदी आदिके गहने नहीं पहिरना, स्थापनाकी पडिलेहन सदा करना, श्रीपूज्यको यंत्र मंत्रादि कर्म करना नहीं। २-व्यर्थ अधिक खरचा नहीं करना, घोड़े गाड़ीपर बैठना नहीं । ३-छुरी, तलवार, आदि शस्त्र नहीं रखना, भूषणका तो स्पर्श भी नहीं करना। ४-एकान्तमें स्त्रियोंके साथ वार्तालाप नहीं करना, नहीं पढाना, और उपदेश भी नहीं देना, नपुंसक, वेश्या, आदि कुसंगति नहीं करना ॥ ११४-११७॥ नोपदिशेत्त्यजेत्क्लीब-गणिकादिकुसङ्गतिम् । नो पेयं भङ्गगजादि,त्याज्यं नैशिकभोजनम् ॥११८॥ अप्रत्याख्यानिनं साधु, पलाण्डुलशुनाशिनम् । व्यभिचारेऽनिशं रक्तं, नो रक्षेद्यतिमीदृशम् ॥११९॥ वनस्पति सचित्तं नो, छिन्द्यादन्तान मार्जयेत् । न कूपादिजलस्पर्शी, पिवेदुष्णं सदा जलम् ॥१२०॥
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। तैलादिमर्दनं नैव, सद्व्यवहारमाचरेत् । रक्षेद्धिंसकभृत्यादि, न चाधिकतरं तथा ॥१२१ ॥ क्षमाश्रमणदानानि, श्रीसंघात्कलहेन च । हठाद् द्रव्यं न गृह्णीयात्, श्रीपूज्येन सुधीमता ॥१२२॥
५-भांग, गाँजा, तमाखू आदि नहीं पीना, रातमें भोजन नहीं करना, त्याग-हीन, कांदा, लशुनादि खानेवाले, और व्यभिचार-रक्त ऐसे यतिको भी नहीं रखना। ६-सचित्त वनस्पतिको नहीं काटना, दांतोंकी सफाई नहीं करना, कुआँ तलाव आदि के कच्चे जलको नहीं छूना, सदैव उष्ण जल पीना, कारण विना तैलादि मर्दन नहीं करना, और सबको प्रिय लगे ऐसे उत्तम व्यवहारमें चलना। ७-अधिक नौकर नहीं रखना, और हिंसकको तो कभी नहीं रखना। ८-अकलमन्द श्रीपूज्यजीको श्रीसंघके पास झगड़े से व हठ से खमासमण, और द्रव्य नहीं लेना ॥ ११८ ।। ॥ ११९ ॥ १२० ॥ १२१ ॥ १२२ ॥ मार्ग प्ररूपयेच्छुद्धं, सम्यक्त्वं येन सम्भवेत् । नो शारीशतरञ्जादि-देवनं केशरञ्जनम् ॥ १२३ ॥ रात्रौ बहिर्न गन्तव्यं, सदा जह्यादुपानही । गाथापञ्चशती नित्य-मावाखिलसाधुभिः ॥१२४।।
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। मुक्त्वापवादमार्ग हि, श्रीपूज्यो यदि पालयेत् । इत्थं नवसमाचारी-रित्वा तस्मै निवेद्यताम् ॥१२॥ ततस्तो शीघ्रमेतासां, दलं लात्वा समागतो। पूज्याऽभ्यर्णेऽखिलोदन्त-स्ताभ्यां सम्यग् निवेदितः पठित्वा ताश्च पूज्योऽपि, मत्वैता. हितकारिकाः । प्रमाणं मे किलैताश्च, स चकार कराक्षरम् ॥ १२७ ॥
९-स्वपरकी सम्यक्त्वकी शुद्धि व वृद्धि हो वैसा उपदेश देना, शारीपाशा, शतरंज आदि खेलना नहीं, केश रंगना नहीं, रातमें बाहर नहीं घूमना, जूते पहिनना नहीं, हमेशा यतियों को ५०० सौ गाथाकी आवृति करना, अपवाद (कारण) मार्ग को छोड़कर यदि तुम्हारे श्रीपूज्य इस प्रकार ९ नव समाचारी पालें, पला तो उन्हें जाकर निवेदन करो ।। १२३ ॥ १२४ ।। १२५ ॥ उसके बाद वे दोनों यति शीघ्र ही इन समाचारियोंका पत्र लेकर श्रीपूज्यजीके पास आए और उनसे अच्छी तरहसे कुल वृत्तान्त निवेदन किया । वे श्रीपूज्यजी उनको वाँचकर उन्हें हितकारी मानकर मुझे ये सब समाचारियाँ मंजूर हैं, ऐसा कहकर उस पत्र पर संवत् १९२४ मिति माह सुदि ७ लिखकर खुदकी सही करदी और पार्श्ववर्ती यतिमुख्य पं० मोतीविजयादि ९ यतियोंके हस्ताक्षर भी करवा दिये ।। १२६ ॥ १२७ ॥
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। १४-पूर्णाभिग्रहे यथाशास्त्रं क्रियोद्धृतिःआचार्योपाधयेऽदायि, हर्षेण सम्मतिस्तथा। . . पूर्णोऽभूत्पश्चवर्षीया-भिग्रहो सद्गुरोरयम् ॥१२८॥ इत्थं स्वीकार्य तेनासौ, राजेन्द्रसूरिसदगुरुः। श्रीपूज्यधरणेन्द्रेण, समाचारीगणेयतीः ॥१२९ ॥ वैराग्येण च संघस्य, चारुप्रार्थनयोत्सवैः । श्रेष्ठैः प्रमोदरुच्यादि-श्रीधनविजयैस्समम् ॥ १३०॥ श्रपूज्यानि प्रौक्यैव, चाऽऽदिनाथजिनालये। सूर्यास्याशिबिका यष्टि-चामराणि मुदा तदा ॥१३॥ बाणहस्तनिधीलाब्दे, आषाढाऽसितदितिथौ । शनिवार सुवेलायां, क्रियोद्धारं चकार सः॥ १३२॥
॥ चतुर्भिः कलापकम् ।। और पूर्व श्रीपूज्यजीने निर्ग्रन्थ जैनाचार्य होनेके लिये सानुमोदन सम्मति भी दी, इधर गुरुमहाराजका क्रियोद्धार करनेका पाँच वर्षका अभिग्रह भी पूर्ण हो चुका ॥ १२८ ।। इस प्रकार श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिजी महाराजने श्रीपूज्य श्रीधरणेन्द्रसूरिजीको गच्छकी नव समाचारियोंको स्वीकार करवाकर जावरा श्रीसंघकी सुन्दर प्रार्थनासे वैराग्य युक्त यतिश्रेष्ठ श्रीप्रमोदरुचिजी श्रीधनविजयजी आदि मुनिवरों के
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
साथ अपनी श्री पूज्यसंबन्धी छड़ी, चामरादि कुल चीजोंकी ताम्रपत्र पर नामावली लिखकर प्राचीन श्रीसुपार्श्वनाथजी के मंदिर में लगा और चीजें आदिनाथ के मंदिर में चढ़ाकर संवत् १९२५ आषाढ़ वदि १० शनिवारके रोज महोत्सवके साथ शुभ समय में क्रियोद्धार किया ।। १२९ - १३२ ॥ सहस्रशस्तदाऽऽसीद्वै, श्रीसंघानामुपस्थितम् । अबो भूवीजयारावः, श्रीसंघमुखसम्भवः ॥ १३३ ॥ त्यक्त्वा सर्वभवोपाधिं, भूत्वा सत्यमहाव्रती । भव्यानामुपकाराय, स्वशिष्यैर्विचचार सः ॥ १३४ ॥ साम्भोगिकं गुरुं कञ्चिद्, विनासावकरोत्कथम् ? | क्रियोद्धारं स्वहस्तेन, जानन्नपि समाssगमान् ॥ १३५ ॥ स्वगच्छे गुरुसप्ताष्ट-पारम्पर्य उपेयुषि । कौशील्यं नियतं सद्भि- गुरुरन्यो विधीयते ॥ १३६ ॥
१ - वह इस प्रकार है--" जावरानयरे श्रीजिनाय नमः । संवत् १९२५ आषाढ़ ददि १० भ० श्रीविजयराजेन्द्रसूरिभिः क्रियोद्धारः कृतः, तैः श्रीआदीश्वर प्रासादे राता बिबादिवस्तूनि भगवदर्थेऽर्पितानि । यथा - छड़ी १, चामर २, सूरजमुखी ३, छत्र ४, सुखासन ५, ए चीजां भेट कीनी श्री ऋषभदेवजीरे | ए वस्तु माहेसुं कोई देवे देवावे, भांगे तेहने तथा पत्राने उखेले तेने श्रीचौवीसीनी आण छे, हमीरविजयना द० छे श्रीहजूरआदेशात् शुभम् ।
""
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। एकादित्र्यन्तके त्वेवं, स्वहस्तेम क्रियोद्धतिम् । तृतीयेऽध्ययने वक्ति, महानिशीथ आगमः॥ १३७ ॥ तत्र साधुसमाचारी, नैव नश्यति सर्वथा । कुरुतेऽतः स्वहस्तेन, क्रियोद्धारं हि नान्यथा ॥१३८॥
उस समय अनेक गाँवोंके हजारों की संख्या में श्रीसंघ उपस्थित थे, उन श्रीसंघके मुंहसे आपश्रीके नामका जय जय शब्दोचारने सारे शहरको गुंजा दिया था । तदनन्तर संसारवर्धक सब उपाधियोंको छोड़कर सच्चे पञ्च महाव्रतधारी वे गुरुमहाराज भव्यजीवोंके उपकारार्थ सुशिष्य युक्त विचरते हुए। यहाँ कोई प्रश्न पूछे कि-श्रीराजेन्द्रसूरिजीने आगमोंको जानते हुए भी किसी सांभोगिक गुरुके विना अपने हाथसे ही क्रियोद्धार कैसे किया ? | उसको जवाब दिया जाता है कि-यदि स्वगच्छमें सात आठ गुरुकी परंपरामें कुशील बढ़ गया हो तो क्रियोद्धार कर्ता सत्पुरुषोंको अवश्य दूसरा गुरू करना योग्य है । एक दो और तीन गुरूकी परंपरामें खुदके हाथसे क्रियोद्धार कर सकता है, इस प्रकार महानिशीथ सूत्रके तीसरे अध्ययन में अधिकार है । तीन गुरू तककी परंपरामें सर्वथा समाचारी नष्ट नहीं होती, अतः स्वहस्तसे भी क्रियो। द्धार कर सकता है, इससे विपरीत हो तो नहीं कर सकता ॥ ॥ १३३ ॥ १३४ ॥१३५ ॥ १३६ ।। १३७ ॥ १३८ ॥
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। १५-खाचरोदचतुर्मासीतः परं कूकसीसंघोपदेशःवर्षेऽस्मिन् खाचरोदश्री-संघप्रार्थनया मुदा । तस्थौ पूज्यश्चतुर्मास्यां, श्रीसंघोपचिकीरसौ ॥१३९।। प्राभूवन धर्मकार्याण्यु-पदेशादेव सद्गुरोः। जीर्णानि धर्मधामानि, चोहरेयुरनेकशः ॥१४० ।। श्रावका धर्मशिक्षां च, श्रद्धारत्नमुपागमन् । गुरूणां वन्दनायाऽऽगुः, श्रावकास्तु सहस्रशः।।१४१|| सप्तसहस्रं रूप्याणां, श्रीसंघेन व्ययीकृतम् । परा धर्मोन्नतिस्तेन, चक्रेऽन्तेऽष्टाह्निकोत्सवम् ।।१४२।। विहरश्च प्रतिग्रामं, कूकसीपत्तनेऽप्यगात् । आसोजी-देविचन्द्रादि-श्राद्धाः प्रश्नोत्तरैर्गुरोः ॥१४३।।
क्रियोद्धार करने के बाद १९२५की सालमें श्रीसंघोपकारी श्रीराजेन्द्रमूरिजी खाचरोद श्रीसंघ की प्रार्थनासे चौमासे खाचरोद रहे। गुरुदेवके सदुपदेशसे यहाँ अनेकानेक धर्मकार्य हुए, जीर्ण मंदिर, धर्मशालादिकों के उद्धार भी हुए । जैन नामधारी बहुतसे श्रावकों को धर्मशिक्षा व सम्यक्त्व रूपी रत्न प्राप्त हुए और आपश्री को वन्दन करनेके लिये तो हजारों भावुक आए । फिर चौमासे के अन्तमें श्रीसंघकी तर्फसे अट्ठाइ महोत्सव किया गया, उसमें बहुत ही धमकी उन्नति हुई, इस चौमासेमें संघके सात हजार रुपये खर्च हुए।
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। बाद गुरुजी प्रतिग्राम विचरते हुए 'नीमाड' प्रान्तस्थ श्रीकूकसी नगरमें पधारे । यहाँ आसोजी, देवीचन्दजी आदि अच्छे २ पण्डित श्रावक रहते थे, उन्होंने आपश्रीसे षट्कर्मग्रन्थादिकों के कठिनतर अनेक प्रश्न पूछे उनके उत्तर आपने बड़ी ही सरलतासे दिये ।। १३९-१४३ ॥ तव्याख्यानैस्तदाचारैः, परीक्ष्याऽमलहेमवत् । प्रेक्ष्य सद्व्यवहारं ते, श्रद्धाधिक्यं प्रदधिरे ॥१४४॥ यथाविध्यागमस्यैव, तथा श्राद्धव्रतानि च । कल्याणार्थ ततोऽभूवन , जैनमार्गानुसारिणः॥१४॥ व्याख्यानेऽनेन कूकस्यां, सर्वेषां बोधवृद्धये । जिनागमाः समूलार्थाः,सम्यक् सर्वेऽपि वाचिताः१४६ उपादिश्य तथा संघान् , लेखितास्तेऽमुना वराः । अन्यत्रापि चकारैवं, ज्ञानवृद्धिं बहुस्थले ॥१४७॥
महोत्तम व्याख्यानोंके श्रवणसे और उनके आचारविचारों द्वारा सुन्दर साधुके व्यवहारको देखकर सौटंचके सोने की तरह परीक्षाकर बहुतसे श्रावक श्राविकाओंने आग. मविधि पूर्वक शुद्ध सम्यक्त्व सह द्वादश व्रतोंको धारण किये, यहाँ एक मासकल्पकी स्थिरतामें कइएक श्रावक जैनमार्गानुसारी बनाये । फिर आपश्रीने इस १९२७ कूकसीके चौमासेमें सब संघको ज्ञान होने के लिये ४५ मूल जिनागमोंको व्याख्यानमें वाँचे, वैसे ही संघको उपदेश देकर ४५ जिनागम
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
लिखवाये, इस प्रकार अन्यत्र भी अनेक स्थानों में ज्ञानवृद्धि की ।। १४४ ।। १४५ ।। १४६ ।। १४७ ॥
१६ - गुरुनिर्णीतनवसिद्धान्त - संक्षिप्तस्वरूपम् -
।
तस्याssसन्नवसिद्धान्ता, नतिस्तुत्योश्च वन्दनम् । अव्रतिनां सुरादीनां वन्देनं नैव युज्यते ॥ १४८ ॥ तत्पार्श्वे याचनाsयोग्या, निषेधत्वाजिनागमे । कर्ममान्यो जिनो धम्मों, निराशी सोडत उच्यते १४९ तुर्यस्तुंत्यां सुतद्रव्य- कान्तादिसुखमार्गणम् । पौषurssasaraौ त - द्वेयं भावस्तवे सदा || १५० || यतोऽस्मिन् तद्विधानेन, जिनाज्ञाभञ्जनं भवेत् । त्रिस्तुतिः सूत्र पंचांग्य-सृत्यैव पुरातना ॥ १५१ ॥
गुरुमहाराज के नव सिद्धान्त थे वे क्रमसे ये हैं
४०
5
( १ ) चन्दन शब्द नमस्कार और स्तवना करने अर्थ में है, इसलिये व्रतीको अत्रती देव देवी आदिका वन्दन करना अयोग्य है और जिनेश्वरोंके सूत्रोंमें मनाई होनेसे उनके पास याचना करना भी अनुचित है, इसीलिये जैनधर्म कर्मप्राधान्य, और निराशी ही कहाता है ।
( २ ) चौथी थुई में पुत्र धन रमणी आदि अनित्य पौगलिक सुखोंकी याचना भरी है, इसलिये वह पौषध,
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
४१
प्रतिक्रमण, सामायिक आदि निरवद्य धर्मानुष्ठानमें सदैव त्याज्य है, क्योंकि इस भावस्तवमें उस स्तुतिके करनेसे जिनेश्वरों की आज्ञाभंग रूप दोष लगता है ||
( ३ ) सूत्रोंकी पंचांगीके अनुसार तीन स्तुति ही प्राचीन है ।। १४८ - १५१ ।।
विस्तृताssसीद्धि सर्वत्र, सैव संघे चतुर्विधे । विधेयाऽतोऽखिलैः सद्भिर्भावानुष्ठानकेऽनिशम् ॥ १५२ पूजादौ पुण्यकार्ये तु चतुर्थी स्तुतिरागमे । नैव प्रोक्तापि गीतार्था -ऽऽचरणात्सा विधीयताम्। १५३
इसलिये पूर्वकालीन चतुर्विध श्रीसंघ में तीन स्तुति ही विस्तार रूप से प्रचलित थी, इस कारण मोक्षाभिलाषी उत्तम जीवोंको भावानुष्ठानमें हमेशा तीन स्तुतियाँ ही करना चाहिये ||
और चौथी थुई आगमोक्त नहीं होने पर भी गीतार्थी की आचरणासे पूजा, प्रतिष्ठाञ्जनशलाका, शान्तिस्नात्र आदि पुण्य कार्योंमें ही करना चाहिये ।। १५२ ।। १५३ ।। सच्चैत्यर्वेन्दनं कृत्वा, ततः शक्रस्तवादिकान् । प्रसिद्ध पंचसत्पाठ - त्रिस्तुति - प्रणिधानकान् ॥ १५४ ॥
यावत्सम्पादयेत्ताव-त्स्थेयमेव जिनौकसि | कारणेन ततोऽप्यग्रे, विद्यते शास्त्रसम्मतिः || १५५ ॥
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्र गुणमञ्जरी ।
(४) चैत्यवन्दन किये बाद शक्रस्तवादि प्रसिद्ध पांच दण्डक यानि-नमुत्थुणं०, अरिहंत चेड़०, लोगस्स ०, पुक्खरवर०, सिद्धाणंबु० तीन श्लोक प्रमाण तीन स्तुतियाँ और प्रणिधानप्रार्थना पाठ जब तक कहे जायँ तभी तक जिनमन्दिर में ठहरना चाहिये | इसके बाद किसी शुभ कारण वश सविधि अधिक ठहरने के लिये भी शास्त्रोंकी अनुमति हैं ।। १५४ ।। १५५ ।। शास्त्रोक्त्या साधुसाध्वीना-माद्यान्तिमजिनेन्द्रयोः । मानोपेतं सदा धार्य, जीर्णप्रायं सिताम्बरम् || १५६ || वस्त्रवर्णं च कल्कादि-पदार्थैः परिवर्तितुम् । कारणेन यदाज्ञप्तं, ग्राह्यमेव तदापदि कालेsस्मिन् कारणाभावा-त्सद्भिराद्रियते न तत् । शास्त्रगच्छविरुद्धत्वा-द्रञ्जनं न च धारणम् ॥ १५८ ॥ आवश्यके त्रिदेवीनां, कायोत्सर्गे स्तुतेस्तथा । द्वयशान्तिकपाठस्य, विधानं नैव युज्यते ॥ १५९ ॥
॥ १५७ ॥
४२
(५) शास्त्रोक्त प्रमाणसे प्रथम - ऋषभदेव और अन्तिमवर्धमानस्वामी के शासन में साधु-साध्वियों को जैसा मिला वैसा सदैव प्रमाणबन्ध, जूनासा, स्वल्प कीमती, इन तीन विशेषणोंसे सफेद वस्त्र ही रखना चाहिये और शास्त्र में राजादिकों के उपद्रवादि कारणसे कल्कादि पदार्थों से वस्त्रका वर्ण बदलाने के लिये जो आज्ञा दी है, वह पूर्वोक्त विपत्ति कालमें ही ग्रहण करना चाहिये । लेकिन इस वर्त्तमान समय में वैसा
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। कोई कारण उपस्थित न होने पर शास्त्र और गच्छमर्यादाके विरुद्ध साधु-साध्वियोंको वस्त्रोंका रंगना और केसरिया आदि रंगीन वस्त्रों को धारण भी नहीं करना चाहिये । यानि भगवान महावीरस्वामीके इस शासनमें विना कारण वैसा आचरण करे तो वह शास्त्रविरुद्ध (अयोग्य) ही है ।।
(६) प्रतिक्रमणमें श्रुतदेवी, क्षेत्रदेवी, और भुवनदेवी की कायोत्सर्गमें स्तुति कहना वैसे ही लघुशान्ति, बड़ीशान्ति का पाठ कहना भी अनुचित है ।। १५६-१५९ ।। यतश्चागमपञ्चांग्यां, पूर्वाचार्यकृतेषु वै ॥ सदन्थेष्वनुपालब्धे-स्तद्विधानं हि दोषकृत् ।। १६० ।। पुनरिह पाक्षिक-चातु-र्मासिकाऽऽब्दिकाऽऽवश्य
कान्ते करणे। भुवनसुरी-क्षेत्रदेव्यो-राज्ञार्थमुत्सर्गेनैव दोषः॥१६१।।
क्योंकि जैनागमोंकी पंचांगी और पूर्वाचार्य-विहित प्रमाणिक शास्त्रोंमें उनके उपलब्ध न होनेसे उनका करना कराना दोषयुक्त ही है। परन्तु साधुओंके लिये पाक्षिक, चातुर्मासिक, और सांवत्सरिक प्रतिक्रमणकी समाप्तिमें आज्ञा निमित्त भुवनदेवी, क्षेत्रदेवीका कायोत्सर्ग कर लेनेमें कोई दोष नहीं है ॥ १६० ॥ १६१ ॥ सामायिकस्य पाठस्य, जैवोचारणानन्तरम् ॥ कार्येर्यापथिका नित्य-मृद्धिकार्द्धिकगेहिनाम् ॥१६२।।
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
तस्मादादौ सुयोगेन, वन्दित्वा विधिना गुरुम् । ततः सामायिकं कुर्यात्तत्पाठास्सन्ति चाऽऽगमे । १६३ ।
(७) ऋद्धिसम्पन्न - राजा, श्रेष्ठिवर्य आदि और ऋद्धि रहित - सामान्य पुरुष आदि इन दोनों श्रावकोंको सामायिकदण्डको चार के बाद ही हमेशा इरियावही करना चाहिये । उस कारण प्रथम शुद्ध त्रियोग से विधिके साथ गुरुको वन्दना किये बाद सामायिकदण्डक उच्चरे, इसलिये जिनागमों में उसके पाठ इस प्रकार हैं
आवश्यक सूत्रवृहट्टीका - १ इड्डित्तो सामाइयं करेइ, अणेण विहिणा करेमि भंते ! सामाइयं सावजं जोगं पच्चक्खामि जाव नियमं पज्जुवासामिति काऊण पच्छा ईरियं पडिकंतो वंदित्ता पुच्छति पढति वा ।
6
"
ऋद्धिप्राप्त श्रावक सामायिक करे (तो) इस विधि से ( विधिपूर्वक ) करेमि भंते ! इत्यादि सामायिक पाठ उच्चरके इरियावही पडिक्कमण करे फिर गुरु को वंदन करके बैठे, सूत्रार्थ पूछे या पढ़े पढ़ावे ।। १६२ - १६३ ।।
२ श्रीविजय सिंहाचार्यकृत-श्रावक प्रतिक्रमणचूर्णि - 'वंदि - ऊण य छोभवंदणेण गुरुं, संदिसाविऊण सामाइयमणुकड्डिय ( जहा ) करेमि भंते ! सामाइयं ( इत्यादि ) तओ ईरिया पडिक्कमिय आगमणमालोएइ पच्छा जहाजेङ्कं साहुणो बंदिऊण पढइ सुणइ वा !!
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
४५
थोभवन्दन से गुरु को वन्दन करके ' संदिसाउं ' इत्यादि आदेश मांगके 'करेमि भंते ! सामाइयं' इत्यादि सामायिकदंडक उच्चरके पीछे इरियावहि पडिकमण करे । फिर आगमन की आलोचना करके यथा ज्येष्ठ साधुओं को वांदकर पुस्तक पढ़े अथवा सुने ||
३ श्रावकधर्मविधिप्रकरण -
सामायिकं कार्यं श्राद्धैः सदा नोभयसन्ध्यमेव कथं १ तद्विधिना खमासमण दाऊं इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामाइय मुहपत्तिं पडिलेहिमि त्ति भणियं बीयं खमासमणपुवं मुहपत्तिं पडिले हिय, खमासमणेण सामाइयं संदिसाविय, बीयमासमणपुवं सामाइयं ठावित्ति वुत्तुं खमासमणपुत्रं अद्भावणयगतो पंचमंगलं कड्डित्ता करेमि भंते ! सामाइयं इच्चाइ सामाइयसुत्तं भणइ पच्छा ईरियं पडिक्कमइ ।
श्रावकों को सामायिक सदा करना चाहिये, दोनों टाइम ही करना ऐसा नियम नहीं । किस विधि से १ इसके उत्तर में आचार्य विधि दिखाते हैं कि- खमासमण देके 'इच्छाकारेण संदि० सामायिक मुहपत्ति पड़िलेहूंजी ' ऐसा बोले, फिर खमासमण पूर्वक मुखवत्रिका की प्रतिलेखना करके इच्छामि खमा० इच्छाका० सामायिक संदिसाउं इच्छामि ख० इच्छाका० सामायिक ठाऊंजी' कहके खमासमण पूर्वक अर्द्धाविनत हो नवकार गिनकर ' करेमि भंते !
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
કેંદ્
श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
सामाइयं' इत्यादि सामायिक सूत्र कहे, फिर इरियावही पडिकमण करे | इत्यादि स्थान २ पर ऐसे अनेक पाठ हैं ।।
पात्राद्युपकरणानां, किंकरश्रावकादिभिः । न चाप्युत्थापयेदल्पं, प्रक्षालयेन्न वाससाम् || १६४|| स्वस्थाने च समानीतं, वस्त्रपात्राद्यनिच्छुकः । देशान्तरात्समानाय्य, ग्रहणं कम्बलादि नो ॥ १६५ ॥
( ८ ) अपने स्वल्प भी पात्रादि उपकरण नोकर व श्रावकादि से नहीं उठवाना, एवं उनसे वस्त्र भी नहीं धुलवाना, अपने निवासस्थान पर लाये हुए वस्त्र पात्रादि लेने की इच्छा नहीं रखना, परदेश से कीमती कम्बलादि मंगवाकर नहीं लेना ॥ १६४-१६५ ॥
नित्यपिण्डं परित्यक्तं, क्षारपिण्डं तथांशुके । परिधानं पटोपानत्, नोघाटास्येन भाषणम् । १६६ । कार्बुर रौप्यकफ्रेम - युक्तोपनयधारणम् । न च देयं गृहस्थानां, तद्वृत्ताढ्यं कचिद्दलम् ॥१६७|| एते सर्वेऽप्यनाचारा -लोकनिन्द्याश्च सर्वथा । या मोक्षार्थिनिर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीनामतोऽनिशम् । १६८ ।
एक ही घरका सदैव आहारादि नहीं लेना, विना कारण वस्त्रों में साबू सोड़ा आदि खारे पदार्थ नहीं लगाना, कपड़े के मौजे भी नहीं पहिनना, वार्तालाप, व्याख्यान आदि
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७
श्रीराजेन्द्रगुणभञ्जरी । कमें उघाड़े मुख नहीं बोलना, शोभाप्रदर्शक सोना चांदी आदि धातुके फ्रेम युक्त चश्मा नहीं लगाना, और सांसारिक समाचारोंसे भरे हुए गृहस्थ लोगोंको पत्र नहीं देना, ये सभी लोकनिन्दनीय अनाचार होनेसे मोक्षाभिलाषी जिनाज्ञापालक सभी साधु साध्वियों को सर्व प्रकारसे सदैव त्याग करने योग्य हैं ।। १६६-१६८ ॥ अथाहतां च बिम्बानां, तत्सपर्याविधानकम् । जिनागमे च पंचांग्यां, बहुशः प्रत्यपादि वै ॥१६९।। तत्तुल्यानामतः साक्षाद, भक्तिभावेन ह्यङ्गिनाम् । भद्रकृजिनबिम्बाना-मर्चनादिकमस्ति वै ॥ १७० ॥ इत्थं मौलिकसिद्धान्तं, लक्ष्यीकृत्येह सद्धिया। तितीर्घः स्वयमन्येषां, तितारयिषयाप्यसौ ॥१७॥ श्रीमद्राजेन्द्रसूरीशो, मालवादौ तदाचरन् । स्वमान्यं स्थापयामास, निर्भीत्या विहरन् गुरुः १७२
(९) जिनेश्वर भगवानके बिम्बोंका तथा उनकी पूजाविधि आगम और पंचांगीमें अनेक स्थान पर दिखलाई गई है इसलिये जिनप्रतिमाओंकी भी भक्तिभाव सहित पूजन दर्शन आदि साक्षात् जिनेंद्र भगवानके समान ही प्राणियोंके कल्याण करनेवाले हैं।
इस प्रकार मौलिक सिद्धान्तों को लक्ष्यमें रखकर सद्:
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । बुद्धिसे स्वयं तिरने और अन्योंको तारने की इच्छासे उन सिद्धान्तोंका आचरण करते और विचरते हुए निर्भयतासे विश्वोपकारी गुरुमहारान श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजीने मालवा, मारवाड़, गुजरात आदि देशोंमें स्वमाननीय सिद्धान्तोंको स्थापन किये ॥ १६९-१७२ ॥
१७-रत्नपुरीचर्चायां त्रिस्तुतिसिद्धिर्जयश्चअथाऽभवन् पुरेष्वेषु, चतुर्मास्योऽस्य सद्गुरोः । रत्नपुर्यां च सत्पुर्या, पुरे राजगढेऽपि वै ॥ १७३ ॥ रत्नपुर्या पुनस्तस्यां, स्तुतिचर्चात्र चाजनि । जवेरसागरैः सार्धं, बालचन्द्रश्च वाचकैः ॥ १७४ ।। श्रीपञ्चाशकटीकायां, त्रिस्तुतिर्विधिनोदिता । नवीनैव स्तुतिस्तुर्या, प्रस्फुटीकुरुते किल ॥१७५ ॥ त्रिस्तुत्यैव मता चैत्ये, चोत्कृष्टा चैत्यवन्दना । जघन्यमध्यमौ भेदो, ह्येतावपि प्रदर्शितौ ॥ १७६ ॥ स्पष्टीकृता तथा चैवं, श्रीपञ्चाशकटिप्पने । श्रीबृहत्कल्पभाष्येऽपि, व्यवहारसुभाष्यके ॥१७७॥
फिर संवत् १९२६ का चौमासा रतलाम, १९२८ राजगढ, और १९२९ का चौमासा रतलाममें हुआ, इस चौमासेमें संवेगी जवेरसागरजी और यति बालचन्द्रजी
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। उपाध्यायके साथ तीन चार थुइ विषयिक चर्चा हुई। जिसमें आपश्रीने शास्त्रप्रमाणोंसे इस प्रकार जवाब दिये कि-तृतीयश्रीपंचाशकटीकामें चैत्यवन्दनविधि तीन स्तुतिसे कही है, चौथी थुइको 'किल ' शब्दसे साफ नवीन प्रकट की है।
१-श्रीमान् हरिभद्रसूरिकृत-तृतीय पंचाशक' और उस पर श्रीमान् अभयदेवसूरिकृत-टीका ऊपरसे संक्षेपमें गुर्जर भाषामय सद्गुणानुरागी-मुनिराज श्रीकर्पूरविजयजीने विक्रम सं० १९७३ की साल में 'शुद्धदेवगुरुधर्मनी सेवा-उपासनाविधि' नामक पुस्तकके पृष्ठ ३३-३४ वें की लिखी भाषा यहाँ ज्योंकी त्यों वांचकर निष्पक्षपाती सज्जनगण प्राचीन-अर्वाचीन तीन चार स्तुति करनेका यथायोग्य स्थान निर्णय करसकते हैं
(१) श्रीवर्धमानस्वामीने भावथी नमस्कार करी उत्कृष्ट मध्यम अने जघन्य रूप त्रण भेदे, मुद्रा विधानवड़े विशुद्ध एवं " चैत्यवंदनविधिन " स्वरूप (संक्षेपथी) कहीश.
(२) एक नमस्कार (स्तुति) वड़े जघन्य चै० जाणवू. "अरिहतचेइयाणं;" रूपदंडक पछी एक स्तुति कहेवा वड़े अथवा शक्रस्तव; अरिहंतचेइआणं; लोगस्स; पुक्खरवर० अने सिद्धाणं० रूप पांच दंडको अने प्रसिद्ध चार थोइओ वड़े मध्यम चै० जाणवू, तथा उत्कृष्ट चैत्य० प्रसिद्ध पांच दंडको साथै त्रण स्तुतिओ तथा जय वीयरायना पाठथी थाय छे ( चतुर्थ स्तुति अर्वाचीन ज छे)
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
अर्थात् चैत्यमें उत्कृष्ट चैत्यवंदना तीन स्तुति से ही बतलाई है, और जघन्य मध्यमभेद भी बतलाये हैं ।
तेमज बीजा आचार्यो एम कहे छे के पांच शक्रस्तवना पाठयुक्त चैत्य० संपूर्ण कहेवाय. मतलब के पौषधादिकमां आजकल जे चैत्य० प्रचलित छे ते उत्कृष्ट, अने प्रतिक्रमण समये जे चैत्य ० विधि प्रचलित छे ते मध्यम चैत्य० जाणवुं. ते पण • पांचे अभिगम ' ' त्रण प्रदक्षिणा ' तेमज पूजादि विधान संहित करवुं. एवी रीते चैत्यवंदना ऋण प्रकारे समजवी ( ये दरेकना पाछा ऋण ऋण भेद थइ शके छे )
"
" अथवा प्रकारान्तरे तेना त्रण भेद बतावे छे
(३) अथवा सामान्य रीते अपुनबंधक विगेरे योग्य जीवोना परिणाम विशेष अथवा गुणस्थानक विशेषथी सर्वे जघन्यादि प्रकारवाली चैत्यवंदना त्रण प्रकारे जाणवी. एटले अपुनबंधने जघन्य, अविरति सम्यग्दृष्टिने मध्यम, अने विरतिवंतने उत्कृष्ट, अथवा अपुनर्बंधक प्रमुख दरेकने पण परिणाम विशेथी ते त्रणे प्रकारनी चैत्य० जाणवी |
और श्रीआत्मारामजीकृत - जैनतत्वादर्श में भी जिनमंदिर में तीन स्तुतियाँ करने का ही साफ २ लिखा है, पृष्ठ ४२३, पंक्ति १४, परिच्छेद ९ वें और यह ग्रन्थ संवत् १९५६ की साल भावनगर में छपा है ।
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
इसी प्रकार पंचाशकै टिप्पनमें, बृहत्कंल्पभाष्यमें, और व्यवहारभाष्य टीका आदि आगम और प्रमाणिक जैनाचायोंके मान्य अनेक ग्रन्थोंमें प्राचीन काल से आत्मावलम्बी भवभीरु प्राणियोंके लिये निरवद्य क्रियाओंमें तीन थुई करने का ही विधान है | ॥। १७३ ।। १७७ ।।
१ - व्यवहारभाष्ये स्तुतित्रयस्य कथनात् चतुर्थस्तुतिरर्वाचीना, इति गूढाभिसन्धिः । किञ्च नायं गूढाभिसन्धिः, किन्तु स्तुतित्रयमेव प्राचीनं प्रकटमेव भाष्ये प्रतीयते । कथमिति चेत् ?, द्वितीयभेदव्याख्यानावसरे 'निस्सकडे ' इति भाष्यगाथायां ' चेइए सव्वेहिं थुइ तिष्णी ' इति स्तुतित्रयस्यैव ग्रहणात् एवं भाष्यद्वय पर्यालोचनया स्तुतित्रयस्यैव प्राचीनत्वं, तुरीयस्तुतेरर्वाचीनत्वमिति ।
२ - चतुर्थस्तुतिः किलार्वाचीना, किमित्याह - उत्कृष्यत इति उत्कर्षा - उत्कृष्टा । इदं च व्यारव्यानमेके—
तिण्णी वा कड्डइ जाव, थुइओ तिसिलोइया । तात्र तत्थ अणुन्नायं, कारणेण परेण वि ॥ १ ॥ इत्येतां कल्पभाष्यगाथां, 'पणिहाणं मुत्तसुत्तीए' इति वचनमाश्रित्य कुर्वन्ति ।
३ - श्रुतस्तवानन्तरं तिस्रः स्तुतीखिश्लोकिकाः लोकत्रयप्रमाणा यावत्कुर्वते, तावत्तत्र चैत्यायतने स्थानमनुज्ञातं, कारणवशात्परेणाप्युपस्थानमनुज्ञातमिति ।
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। श्रीसंघाचारभाष्यस्य, वृत्तावपि तथैव च । आवश्यकस्य चूयां वै, बह्वागम-प्रकीर्णयोः ॥१७८॥ विधानं त्रिस्तुतीनां भोः!, सूक्तमेव पदे पदे । तुर्यस्तुतेर्विधानं तु, कारणेनाऽपुरातनैः ॥ १७९ ॥ निषिद्धं सर्वथैवास्ति, भावानुष्ठान आगमैः । वन्द्या असंयता नैवा-ऽग्राह्या देवसहायता ॥१८॥ ____ संघाचारभाष्यकी वृत्तिमें, आवश्यकचूर्णिमें, इस प्रकार बहुत आगम व प्रकरणोंमें तीन स्तुतियोंसे चैत्यवंदनका विधान स्थान स्थान पर कहा है। तुर्यस्तुतिका करना पाश्चात्य
आचार्योंने आचरणा व कारणसे बतलाया है, और भावानुष्ठानमें अर्थात् सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध आदि निरवद्य धर्मक्रियामें चौथी थुइ करना आगमोंने साफ मना की है, जैसे कि-असंयंत-अत्यागी वन्दन करने योग्य नहीं, और देवदेवियों की सहायता भावस्तव में कभी नहीं लेना चाहिये १७८-१८०
१-चैत्यवन्दनान्ते शक्रस्तवाद्यनन्तरं तिस्रः स्तुतयः श्लोकत्रयप्रमाणाः प्रणिधानार्थं यावत्कथ्यन्ते प्रतिक्रमणानन्तरमङ्गलार्थ स्तुतित्रयपाठवत् तावच्चैत्यगृहे [स्थान ] साधूनामनुज्ञातं, निष्कारणं न परत इति । २-श्रुतकेवलिश्रीभद्रबाहुस्वामिविरचितायामावश्यकनियुक्तौ" असंजयं न वंदिज्जा, मायरं पियरं सुयं । सेणावई पसत्थारं, रायाणो देवयाणि य" ॥ १॥ .
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
५३
श्रीभगवतीसूत्र के द्वितीय शतक के पांचवें उद्देशा में लिखा है कि
,
असहिज- देवा - सुर-- नाग - सुवण्ण- जक्ख -- रक्खसकिन्नर - किंपुरिस - गरुल- गंधव्व महोरगादिएहिं देवगणेहिं णिग्गंथाओ पावयणाओ अगतिकमणिजा " टीका - असहिजेति - अविद्यमानं साहाय्यं परसाहाय्यकम् अत्यन्तसमर्थ - त्वाद् येषां ते, असहाय्यास्ते च देवादयश्च ' इसि कर्मधारयः १, अथवा व्यस्तमेवेदम् तेन असाहाय्याः आपद्यपि देवादिसाहायकानपेक्षाः, 'स्वयं कृतं कर्म स्वयमेव भोक्तव्यम् ' इत्यदीनमनोवृत्तय इत्यर्थः २, अथवा पाखण्डिभिः प्रारब्धाः सम्यक्त्वाविचलनं प्रति न परसाहायकमपेक्षन्ते, स्वयमेव तत्प्रतिघातसमर्थत्वात्, जिनशासनात्यन्तभावित्वाच्चेति ।
"
ऊपर के पाठकी श्री अभयदेवसूरिजी महाराजने तीन प्रकार की व्याख्या की है । प्रथम व्याख्यामें उस तुंगिया नगरीके श्रावक अत्यन्त शक्तिशाली होनेसे देव, असुर - नाग, सुवर्ण, यक्ष-राक्षस - किन्नर - किंपुरुष, गरुल - सुवर्णकुमार, गंधर्व और महोरग आदि देवसमूहसे नहीं चल सकते । द्वितीय व्याख्या में उन देवतादिकसे आपत्ति काल में भी सहायता नहीं चाहते, क्योंकि अपना किया हुआ कर्म अपने को ही भोगना चाहिये, अतएव वे अपनी दीनता किसीको नहीं बतलाते । तृतीय व्याख्यामें पाखंडी लोग कितना ही क्यों न सतावें
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। परन्तु सम्यक्त्व कभी न छोड़ें, पर सहाय की अपेक्षा नहीं करें, किन्तु पाखंडियों के उपद्रवों को जिनशासनमें दृढ़ विश्वास होनेके कारण वे खुद ही हटा सकते हैं। अत्रैतस्यां जयं प्राप, जैनागमसदुक्तिभिः।। निर्ममे तत्र सिद्धान्त-प्रकाशग्रन्थमेषकः ॥ १८१ ॥ व्योमाग्निनन्दचन्द्राब्दे, जावरापत्तनेऽभवत् । श्रीआहोरे चतुर्मास्या-वभूतामस्य हेतुतः ॥१८२॥ जातिस्फोटस्तदाऽऽसीत्तं, भत्तवैक्यं कृतवानयम् । यतोऽतिश्रेष्ठलाभाय, जिनाज्ञास्ति जिनागमे ॥१८३॥
इस चर्चामें जैनसिद्धान्तोंके प्रमाण देनेसे आपश्रीकी ही विजय हुई, और इसी विषयिक अति सुन्दर 'सिद्धान्तप्रकाश' नामक ग्रन्थ भी रचा । फिर संवत् १९३० का चौमासा जावरामें, १९३१ और १९३२ ये दोनों चौमासे आहोरमें ही हुए, चातुर्मास ऊपर चातुर्मास क्यों किया ? जबाब-न्यातिमें बड़ा भारी क्लेश था उसको तोड़कर सम्प किया, वास्ते ऐसे अत्युत्तम लाभके लिये जैनसाधुओंको चौमासा ऊपर चौमासा करनेकी भी जिनागमोंमें जिनेश्वर भगवानकी आज्ञा है ।। १८१-१८३ ।।
१८-मोदराग्रामेऽरण्ये घोरतपस्याअन्यदा मोदराग्राम, विहरन्नागतो गुरुः । आशापुर्या गृहाऽभ्यर्णे, देव्याश्चारुवनान्तरे ॥१८४॥
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। तरुश्रेणी शुभा भाति, वन्यचौरादिसंकुले । तत्राऽरण्ये तपश्चक्रे, धोरं षष्ठाष्टमादिकम् ।। १८५॥ शर्वर्या पौषमासेऽस्थात् , कायोत्सर्गिकमुद्रया। तथैवाऽऽतापनां चक्रे, तप्तवालुशिलोपरि ॥ १८६ ॥ काञ्चित्तत्तुलनां पार्श्वे, श्रीधनविजयोऽपि सः। शिष्यज्येष्ठोऽकरोद्विद्वान्, यथाशक्त्यात्मसाधनम् रजन्यामेकदा तत्र, जन्यैः सार्धं च ठक्कुरः। वीक्ष्योत्सर्गस्थमेनं हि, तरुमूले विनाऽञ्चलम् ॥१८८॥ ततोऽपृच्छत्ससन्देह-स्त्वं कोरे ! विकटे वने । मौनवृत्त्या गुरुस्त्वस्थात्, शुमध्याने विनोत्तरम् १८९
एक समय गुरुमहाराज विचरते हुए मोदरा ग्राम पधारे, वहाँपर दुष्ट श्वापदों और चौरादिकोंसे व्याप्त वनके अन्दर आशापुरी देवीके मन्दिर समीप रमणीय वृक्षोंकी पंक्ति शोभित है । उसी वनमें गुरुजीने बेला तेला आदि बहुत कठिन तप किये । एक वक्त पौष मासकी रातमें कायोत्सर्ग मुद्रासे ध्यानमें खड़े थे, और ऊन्हालेमें दिनमें तपी हुई रेती व शिलाके ऊपर आतापना लेते थे, एक तर्फ पासमें ही शिष्योंमें बड़े और विद्वान् श्रीधनविजयजी भी यथाशक्ति आत्मसुधाराकी गुरु जैसी कुछ तुलना करते थे । एक वक्त वहाँ जानके साथ एक ठाकुर आया । वृक्षके नीचे वस्त्र रहित कायोत्सर्गस्थ उन गुरुको देखकर वह सन्देह युक्त पूछने
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६
श्रीराजेन्द्र गुणमञ्जरी ।
लगा - अरे ! इस भयंकर वनमें अकेला तूं कौन है ? परन्तु गुरुदेव तो उत्तर दिये विना ही अपने मौनवृत्ति से शुभ ध्यानमें अकेले खड़े थे ।। १८४ - १८९ ।।
सोऽनार्यः खङ्गमुत्पाट्य, मारणाय प्रधावितः । पार्श्ववर्त्तिव शिष्येण तदैवासौ निवारितः ॥ १९० ॥
5
1
sa मे गुरवश्चैते, कुर्वन्त्यात्मसुसाधनम् | ततो मत्वा चमत्कारं, पादपद्मं ननाम सः ॥ १९१ ॥ भूयो भूयो निजागांस, क्षमयित्वा च तत्क्षणम् । मदिरामांसयोर्लेभे, नियमं शिष्यशिक्षया ।। १९२ ।। गुरुशिष्य ततो नत्वा, स्वस्थानं ठक्कुरोऽगमत् । एवं तत्र कियन्मासान्, तपस्यां विदधे गुरुः ॥१९३॥
थोड़ी देर के बाद वह अनाड़ी तो खड्ग लेकर मारने दौड़ा, उसी वक्त उसको निकटवर्ती उनके शिष्यने रोक दिया, और बोले कि अरे ठाकुर ! यहाँ मेरे गुरुमहाराज आत्मसाधन करते हैं, यह सुनते ही उसने आत्मामें बड़ा चमत्कार मानकर गुरुके चरणों में धोक देकर नमस्कार किया और वार वार अपने अपराधको क्षमाकर चेलाके सदुपदेशसे मदिरा मांसका त्याग लेकर गुरु-शिष्यको नमस्कार कर अपने स्थान पर गया । इस प्रकार गुरुमहाराजने मोदरा ग्राम के वनमें कइएक मास तक बड़े बड़े तप किये ।। १९०-१९३॥
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्चरी। १९-तीर्थोद्धृतिर्लुम्पकोपदेशश्चर्चा चजालोरे पत्तने दुर्गे, कुम्भश्रेष्ठिजिनौकसि । भटै राज्ञो भृते शस्त्रै-श्चापसारि समं ततः ॥१९४॥ श्रीयक्षवसतौ वीर-चैत्यं जीर्णत्वमागतम्। समुद्धारं प्रकार्यैव, संघेनैतद्वयोरपि ॥१९५॥ सूत्सवेन प्रतिष्ठा च, विधिनाऽनेन कारिता । शासनोन्नतिमित्थं स, चक्रे शक्त्या पदे पदे ॥१९६॥ पुरा सुन्दरदासोऽपि, जयमल्लसुतोऽत्र सः। हस्तचन्द्रमुनीलाब्दे, जीर्णं चार्वकरोन्मुदा ॥१९७॥ शीघ्रं निरुत्तरीकृत्य, शास्त्रयुक्त्या च सद्धिया । सप्तशतं गृहाँश्चक्रे, गुरुवादेऽत्र लुम्पकान् ॥१९८॥
फिर संवत् १९३३ का चातुर्मास शहर 'जालोर में हुआ, श्रीसंघको उपदेश देकर गढ़ ऊपर कुंभाशा शेठके बनवाये हुए ' चौमुखजी' के मंदिरमेंसे राजकीय सिपाही और उनके सारे सामान को निकलवाया। तथा यक्षवसतीमें वीरजिनेश्वर भगवानके मंदिरका भी जीर्णोद्धार करवाकर महोत्सवसे विधिपूर्वक दोनों मन्दिरकी प्रतिष्ठा करवाई। इस प्रकार गुरुमहाराजने यथाशक्ति स्थान स्थान पर जिनशासनकी महोन्नति की ॥१९५-१९६ ॥ पहिले भी इसी गढ़ पर संवत् १७१२ की सालमें जयमलजीके सुपुत्र
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। सुन्दरदासने भी सुन्दर जीर्णोद्धार करवाया था, और गुरुदेवने यहाँपर ढूंढियोंको विवादमें सुबुद्धि व शास्त्रयुक्तिसे निरुत्तरी बनाकर सात सौ घर मूर्तिपूजक बनाये ॥ १९७-१९८ ।। राजगढे रत्नपुर्या, श्रीमाल-शिवगंजाऽऽलीराजपुरे । कूकस्यां राजगडे,-ऽहमदावादे त्वभूदरोन्नतिश्च १९९ आत्मारामेण चर्चाऽभूत् , पत्रैः सार्धमनेकधा । तत्कालीनात्प्रजाबन्धु-दलाद् ज्ञेयाऽत्र सा जनैः २०० __ संवत् १९३४ राजगढ़, १९३५ रतलाम, १९३६ भीनमाल, १९३७ शिवगंज, १९३८ आलीराजपुर, १९३९ कूकसी, १९४० राजगढ़, और १९४१ का चौमासा शहर अमदावादमें हुआ, इसमें आत्मारामजीके साथ पत्र द्वारा बहुत चर्चा हुई, वह उस समयके 'प्रजाबन्धु' नामक पत्रसे जिज्ञासुओंको जानलेना चाहिये, एवं जिनशासनकी उन्नति भी बहुत हुई ।। १९९-२००॥ _____२०-तीर्थस्थापनं कोशनिर्माणारंभश्चराजदुर्गनिवासी यः, संघवीतिपदान्वितः। दल्लातनुज-लूणाख्यो, वृद्धप्राग्वाटवंशजः ॥ २०१॥ साफल्याय स्ववित्तस्य, गुरूणामुपदेशतः । नृणां सिद्धाद्रितीर्थस्य, दिश्ययात्राचिकीर्षया ।।२०२।। ख्यातं मोहनखेडाख्यं, तीर्थस्थापनमातनोत् । पूर्णवेदनवैकाब्दे, सप्तम्यां मार्गशीर्षके ॥ २०३ ॥
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। राजगढ़ निवासी वृद्ध पौरवाल संघवी दल्लाजी सुतलूणाजीने गुरुमहाराजके सदुपदेशसे अपने धनको सफल करनेके लिये एवं सबको सिद्धाचल तीर्थकी दिशि जुहारनेकी इच्छासे राजगढ़से एक कोशके अन्दर संवत् १९६० मगसिर सुदि सप्तमी बुधवारके दिन प्रसिद्ध 'मोहनखड़ा नामक तीर्थ स्थापन किया ॥ २०१-२०३ ॥ वुधवारे सुवेलायां, सूरीशेन मुदाऽमुना। आदिनाथादिबिम्बानां, प्रतिष्ठाऽकारि साञ्जमा १४ पौषशुक्लस्य सप्तम्यां, राजदुर्गाद् द्विमीलके ।। चैत्रोर्जपूर्णिमायां च, यात्रिकास्तु सहस्रशः ॥ो समायान्ति सुतीर्थेऽस्मिन् , गुरुदेवदिदृक्षया । मन्ये युगप्रधानं त-मन्वर्थ पश्चमारके ॥२०६॥ धोराजीपत्तने प्रीत्या, श्रीधानेरापुरे वरे। तत्रत्याः स्थविराः श्राद्धा-स्तमद्यापि स्मरन्ति वै २०७ गुर्जरे वीरमग्रामे, सियाणाख्ये मरुस्थले । अत्राभिधानराजेन्द्र-कोषकार्यमचीचलत् ॥२०८॥ बालोतरागुडाग्रामे-ऽत्यन्तानन्दैरलंकृता । यत्र यत्र गुरुयातो, धर्मवृद्धिरभूद् बहुः ॥ २०९ ।।
वहाँ पर श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिजी महाराजने सुवक्तमें साञ्जनशलाका श्रीआदिनाथ आदि अनेक जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा कराई । उस तीर्थ में विशेष रूपसे चैत्र कार्तिक पूर्णिमा
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। और पौष सुदि सप्तमी के रोज देवगुरुके दर्शनार्थ हजारों यात्री आते हैं । इस पंचम कालमें यथार्थ सूरिगुण युक्त उन गुरुमहाराजको मैं युगप्रधानरूप मानता हूँ। फिर संवत् १९४२ का चौमासा धोराजीमें, १९४३ धानेरामें किया । वहाँ के बड़े बड़े श्रावक आज दिन पर्यन्त गुरुको याद करते हैं। १९४५ वीरमग्राम (गुजरात) १९४६ सियाणा (मारवाड़) में चौमासा हुआ। इसमें 'अभिधानराजेन्द्र' कोषका काम शुरू हुआ, और १९४७ बालोतराके गुड़ामें अत्यानंद पूर्वक चातुर्मास पूर्ण हुआ। एवं जहाँ जहाँ गुरुमहाराज पधारे वहाँ वहाँ धर्मकी अतीव वृद्धि हुई ॥ २०४-२०९ ॥ २१ सिद्धाचलगिरनारादितीर्थवन्दितुं संघनिर्गमः व्याख्याने च थिरापद्रे, पञ्चमाङ्गमवाचयत् । विध्युत्सवैश्च संघोऽत्रा-ऽश्रौषीत्प्रश्नोत्तरार्चनैः।।२१०॥ आसन् षोडशसाध्व्यश्चै-कादशमुनिपुङ्गवाः । उद्यापनमभूत्सिद्ध-चक्रस्य विंशतेस्तथा ॥२११॥ शरीरादेरनित्यत्वं, लक्ष्म्यास्त्वस्ति सुचापलम् । सोऽन्ते चोपदिशेत्संघ, शास्त्रैर्यात्राफलं महत्।।२१२॥ आरंभाणां निवृत्तिविणसफलतासंघवात्सल्यमुच्चैनैर्मल्यं दर्शनस्य प्रणयिजनहितं जीर्णचैत्यादिकृत्यं । तीर्थोन्नत्यं जिनेन्द्रोदितवचनकृतिस्तीर्थकृत्कर्मबन्धः, सिद्धरासन्नभावःसुरनरपदवी तीर्थयात्राफलानि२१३॥
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। संवत् १९४४ थराद के चौमासेमें 'श्रीभगवतीसूत्र' व्याख्यानमें वाँचा-जिसका श्रीसंघने बड़ा भारी उत्सव किया और प्रतिप्रश्नोत्तरकी रोकड़ आदिसे पूजा की ॥२१०॥ यहाँ ग्यारह साधु और सोलह साध्वियाँ थीं। चौमासे बाद वीसस्थानक और नवपदजीके उद्यापन भी हुए ॥ २११ ॥ गुरुमहाराजने श्रीसंघको ऐसा उपदेश दिया कि शरीरादि कुल अनित्य हैं, लक्ष्मी अति चपल है, और शास्त्रोंसे तीर्थयात्रा के महान् लाभ बतलाये जैसे कि-तीर्थयात्रामें सब आरंभोंका रुकना, धन सफल होना, स्वसाधर्मि-वात्सल्य (भक्ति), सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट निर्मलता, प्रेमी जनकी हितवाँछा, जीर्ण मन्दिर आदिके उद्धार, जिनशासनकी उन्नति, जिनेन्द्रभगवानके वचनोंका परिपालन, तीर्थंकर कर्मोपार्जन, उत्तम देव व मनुष्यकी पदप्राप्ति, और नजदीकमें मोक्षपद पाना, ये सब तीर्थयात्राके फल हैं ॥ २१२-२१३ ॥ नमस्कारसमो मंत्रः, शत्रुञ्जयसमो गिरिः। वीतरागसमो देवो, न भूतो न भविष्यति ॥ २१४॥ एकैकस्मिन् पदे दत्ते, शत्रुञ्जयगिरिं प्रति । भवकोटिसहस्रेभ्यः, पातकेभ्यो विमुच्यते ॥ २१५ ॥ कृत्वा पापसहस्राणि, हत्वा जन्तुशतानि च। . . इदं तीर्थ समासाद्य, तिर्यश्चोऽपि दिवं गताः ॥२१६॥
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
ર
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
छणं भत्तेणं, अपाणएणं च सत्त जत्ताओ । जो कुणइ सत्तुंजे, सो तइयभवे लहइ सिद्धिं ॥ २१७॥
वपुः पवित्रीकुरु तीर्थयात्रया, चित्तं पवित्रीकुरु धर्मवांछया । वित्तं पवित्रीकुरु पात्रदानतः,
कुलं पवित्रीकुरु सच्चरित्रतः ॥ २९८ ॥
णमोकार के समान मंत्र, शत्रुञ्जय के समान तीर्थ, वीतराग के समान देव न हुआ, न होगा || २१४ ॥ शत्रुञ्जयगिरिके तरफ एक एक पैर गमन करने पर कोटिहजार भवों के किये हुए पापोंसे प्राणी छूट जाता है || २१५ ।। हजारों पाप और सैंकड़ों जीवों की हिंसा करनेवाले तिर्यञ्च भी इस तीर्थ की यात्रा कर स्वर्गको प्राप्त करते हैं ॥ २१६ ॥ जल रहित बेलाकी तपस्या से जो प्राणी शत्रुञ्जय की सात वार यात्रा करता है वह तीसरे भव में सिद्धिको पाता है । इसलिये तीर्थयात्रा से शरीरको, धर्मवांछा से चित्तको, पात्रदानसे धनको और उत्तम चरित्रसे कुल को पवित्र करो ।। २१७-२१८ ॥
श्री तीर्थपान्थरजसा विरजीभवन्ति, तीर्थेषु भ्रमणतो न भवे भ्रमन्ति ।
द्रव्यव्ययादिह नराः स्थिर संपदः स्युः,
पूज्या भवन्ति जगदीशमथार्चयन्तः ॥ २१९ ॥
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। सम्मत्तं सत्तुंजे, सचं सामाइयं च सव्वण्णू । साहुत्तं सुत्ता सवणं, सत्त ससा दुल्लहा होंति॥२२०॥ श्रुत्वैवं मोतिपुत्रेण, चाऽम्बाजीत्यायेन वै । सिद्धाद्रिरैवतादीनां, संघो निर्गमितो वरः ॥२२॥ संघेऽस्मिन्नित्थमासीच, संपञ्चैत्ये द्वये वरे । राजेन्द्रगुणमञ्जर्या, नायको मेऽपरो गुरुः ॥२२२॥ श्रीधनचन्द्रसूरिश्च, मोहनविजयादयः ।। साधूनां स्वान्यगण्यानां, सपादशतमत्र वै ॥२२३॥ ___तीर्थमार्गकी धूलि लगनेसे नर कर्मरूप रजसे रहित होते हैं, तीर्थों में घूमनेसे संसारमें नहीं घूमते, तीर्थों में धन खर्च करनेसे संपत्तियाँ स्थिर रहती हैं, और भगवानकी पूजा करनेसे नर पूजनीय होते हैं ॥ २१९ ॥ सम्यक्त्व, शत्रुजय, सत्य, सामायिक, सर्वज्ञ-अरिहंतदेव, साधुता, सूत्रोंका श्रवण, ये सात सकार जीवोंको मिलना बहुत ही दुर्लभ हैं ॥ २२० ।। इस प्रकार उपदेश सुनकर मोतीजीके सुपुत्र अम्बाजीने सिद्धाचल, गिरनार आदि तीर्थोंका उत्तम संघ निकाला ॥ २२९ ॥ इस संघमें इस तरह विभूति थी-दो जिनमंदिर, श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिजी, श्रीधनविजयजी [श्री. मद्धनचन्द्रसूरिजी], मुनिश्री मोहनविजयजी आदि स्वपरगच्छके १२५ साधु थे ॥ २२२-२२३ ॥
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
एकाशीतितथैवाऽऽर्याः, स्वाचारैः समलंकृताः । श्रीप्रेम श्रीस्तु मानश्रीः, श्रीयुक्तश्च मनोहरः ||२२४||
६४
यात्रिकत्रिसहस्रन्तु, मध्ये संघमिवर्षयः । षड्रीयुक्तास्त्वनेकेऽत्र, श्रावकाः पादचारिणः ॥ २२५॥
षड्रीकारास्त्वमी
एकाहारी भूमिसंस्तारकारी,
पद्भ्यां चारी शुद्धसम्यक्त्वधारी । यात्राकाले यः सचित्तापहारी,
पुण्यात्मा स्याद् ब्रह्मचारी विवेकी ॥२२६॥
सद्वस्त्रैर्वेष्टितानां च, गन्त्रीणां कथितं शतम् । पत्तीनां संघरक्षायै, त्रिशतं तेन रक्षितम् ॥ ५२७ ॥ प्रवीणा अश्ववाराश्च वाजिनो वेगवत्तराः । शतशश्चेलुरुष्ट्रास्तु, चतुःशतान्यनांसि वै ॥२२८॥
साध्याचार - विभूषित श्रीप्रेमश्रीजी, मानश्रीजी, मनोहर श्रीजी आदि ८१ साध्वियाँ थीं । संघमें तीन हजार यात्रीलोग थे और इनमें साधुओंके समान छः 'री' पालनेवाले अनेक श्रावक साथ थे । छः री के अर्थ इस प्रकार हैं१ एक टाइम भोजन करना, २ जमीन पर संथारा करना, ३ पैदल चलना, ४ निरतिचार सम्यक्त्व पालन करना, ५ सचित्तका त्याग करना, और ६ ब्रह्मचर्यमें रहना । यात्रा
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। के समय जो इस भाँति वरतता है वही पुण्यशाली विवेकात्मा है । संघमें वस्त्राच्छादित सेजगाड़ियाँ १०१, रक्षाके लिये शीघ्रगामी घोड़ोंके ऊपर बैठे हुए सवार तथा सिपाही ३००, शकट ४०० और सेंकड़ों भारवाही ऊंट थे ।। २२४-२२८ ॥ बहवः किंकराश्चाऽऽसन् , सर्वकार्यविचक्षणाः सेवकनरगन्धर्व-महात्मन्यतिकादयः । ॥ २२९ ।। व्याख्यानं च प्रतिस्थाने, संघभोज्यं प्रभावना । सानन्देनाभवन्नित्यं, तत्तत्काले समागते ॥ २३० ॥ संघश्रेष्ठो ददौ द्रव्यं, सप्तक्षेत्र्यां प्रतिस्थले। संघः शंखेश्वरं तीर्थं, ववन्दे हर्षनिर्भरः ॥ २३१ ॥ जगामाहमदावाद-वाटिकायामतःपरम् । तत्रत्यः प्रमुदा संघः, संघमेनं व्यशिश्रियत् ॥२३२॥ चातुर्मासस्य विज्ञप्ती, जातायां बहुधाऽऽग्रहैः । सूत्तरं संघदाक्षिण्यान् , मिष्टवाक्यैर्गुरुादात्॥२३३।।
सभी कार्यों में हुशियार बहुतसे नौकर और सेवक, भोजक, महात्मा, यति आदि अनेक लोग संघमें थे ॥२२९॥ सानन्द हरएक मुकाम पर व्याख्यानका श्रवण, संघको भोजन देना, प्रभावना वाँटना, इत्यादि अपने अपने समय आने पर कुल कार्य हमेशा होते थे ।।२३०।। संघपति स्थान २ पर सात क्षेत्रोंमें धन देता हुआ सहर्ष संघ सहित उसने शंखेश्वर तीर्थको वन्दन
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । किया ।। २३१ ॥ इसके बाद क्रमसे संघ अहमदावादकी वाड़ीमें पहुँचा, वहाँके संघने अतिहर्षसे इस संघकी खूब ही सेवा की ॥ २३२ ॥ फिर बहुत आग्रहसे चौमासाकी विनति होनेपर गुरुमहाराजने मधुर वचनों से संघकी दाक्षिण्यतासे संघको संतोषकारक उत्तम जबाब दिया ।। २३३ ।। संघोऽथ वीरमग्राम, गत्वा तस्थौ सरस्तटे। संघोऽत्रत्योऽकरोद् भक्तिं, संघस्य बहुभिर्विधैः ॥२३४ चतुर्मासीयविज्ञप्ति-रभूच नवकारसी। चतुर्मासे विलम्बोऽस्ति, गुरुरेवंतमूचिवान् ॥ २३५॥ ततः संघः समागत्य, सिद्धक्षेत्रपरीसरे । मत्वा वर्धापयामास, मौक्तिकैस्तच्छिवंकरम् ॥२३६॥ सिद्धाद्री शिवसोपाने, चटित्वा शीघ्रतो गुरुः । विधिनैव युगादीशं, संधैः सार्धमवन्दत ॥ २३७ ॥ सर्वेषां जिनबिम्बानां, हर्षेण प्रतिमन्दिरे। नौकायितं भवाब्धौ हि, चक्रे दर्शनमुत्तमम् ।।२३८॥ ___ बाद संघ वीरमगाम जाकर तालाबकी पाल पर ठहरा, यहाँके संघने भी इस संघकी अनेक प्रकारसे भक्ति की ॥ २३४ ॥ नवकारसियाँ हुई, चातुर्मासकी विज्ञप्ति की गई, “ पर चौमासे का अभी विलम्ब है" गुरुने ऐसा संघको जबाब दिया ॥ २३५ ॥ पीछे क्रमसे संघ सिद्धाचलके नज़दीक आकर उसको मोक्षदाता मानकर मुक्ताफ
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
६७
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । लोंसे वधाया ॥ २३६ । गुरुमहाराजने मोक्षके सोपान समान सिद्धाचल पर शीघ्रगतिसे चढ़कर संघके साथ विधि सहित आदिनाथजीको वन्दन किया ॥ २३७ ॥ भवसमुद्रसे तिरने के लिये नावके समान हरएक जिनमंदिरमें विराजित सभी जिनबिम्बोंके हर्षसे उत्तम दर्शन किये ।। २३८ ॥ सुन्दरैः स्तवनस्तोत्र-स्तुतिकाचैत्यवन्दनः । नाभेयस्य नुतिं चक्रे,सद्भावार्थविभूषिताम् ॥२३९॥ संपत्ति सकलीकर्तु, चक्रे सोऽष्टाहिकोत्सवम् । सप्तक्षेत्र्यां च वीयाय, यथाशक्ति निजं धनम् ॥२४० सुपात्रेभ्यो ददौ दानं, दानभूषणपश्चकैः । नेमिनाथसनाथं स, रैवताद्रिं ततोऽगमत् ॥ २४१ ।। शिवानेरिव तत्रापि, व्यधात्सर्व मुदैव सः । यात्रां विधाय सानन्दं, थिरापद्रं समाययौ ॥२४२॥ अत्रापि संघवात्सल्यं, जिना भावनान्वितम् । सोऽष्टाहिकोत्सवं चक्रे, गीतनृत्यादिमण्डितम् ॥२४३
पीछे गुरुजीने मनोहर स्तवन-स्तोत्र-स्तुति-चैत्यवन्दनादिकोंसे उत्तम भावार्थसे सुशोभित श्रीआदिनाथ भगवानकी स्तुति की ॥२३९॥ संघपतिने अपनी संपत्तिको सफल करनेके लिये अष्टाहिक महोत्सव किया, और अपनी शक्ति अनुसार सात क्षेत्रोंमें द्रव्य व्यय किया ॥२४० ॥ हर्षाश्रु भरे नेत्रोंसे १, अत्युल्लसित भावसे २, प्रेमके वचनोंसे ३, अतीव
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । आदरसे ४ और उसका अनुमोदन कर याने उस दानको अच्छा समझ कर देना ५ इन दानके पाँच भूषण युक्त सुपात्रको दान दिया, बाद नेमिनाथ जिसके स्वामी हैं ऐसे गिरनार तीर्थ पर संघ पहुँचा ॥२४१॥ सिद्धाचलके समान वहाँपर भी सहर्ष यात्रा कर और धर्मकर्मादिके कुल शुभ कार्य करनेके बाद आनन्द पूर्वक संघ थिरपुर-थराद आया ॥ २४२ ॥ यहाँपर भी संघपतिने साधर्मिकवात्सल्य, जिनेंद्रभगवानकी पूजा, प्रभावना और सुन्दर गीत नृत्यादिकोंसे सुशोभित अष्टाहिक महोत्सव किया ॥ २४३ ।। गुरुवाक्येन संघेऽस्मिन् , द्विलक्षव्ययमातनोत् । कुर्वन्नेवं प्रतिस्थाने, गुरुश्चेयाय सद्यशः ॥ २४४ ॥ २२--प्रतिष्ठाञ्जनशलाकयोर्विजयो लुम्पकपराजयश्च मेघातनुज-वन्नाजी-हर्षचन्द्रवरेभ्यकैः । शिवगंजपुरे ख्याते, कारितं जिनमन्दिरम् ॥२४५॥ तपसः शुक्लपंचम्यां, सिद्धिवेदनवेन्दुके । प्रतिष्ठाजितनाथादेः, कारिता साञ्जनाऽमुना।।२४६।। धर्मद्वेषिजनैर्विना, विहिता बहवोऽत्र वै। कृतं राज्येऽपि पैशून्यं, सन्मुहूतॊ नृपास्ति नो॥२४७॥ परं भूतं बलं तेषां, निष्फलं शरदभ्रवत् । प्रत्युताऽऽपुस्तिरस्कारं, सज्जनैस्ते पदे पदे ॥ २४८ ॥
१९४८
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। इस संघ में गुरुमहाराजके वचनसे दो लाख रुपये व्यय हुए । इस प्रकार धर्मोन्नति करते हुए गुरुदेवने स्थान स्थानपर उत्तम यशको प्राप्त किया ॥ २४४ ॥ . श्रेष्ठिवर्य-पौरवाल-मेघाजीके सुपुत्र वनाजी हर्षचन्द्रजीने प्रसिद्ध शिवगंजमें त्रिशिखरी जिनेन्द्र भगवानका मंदिर बनवाया ॥२४५।। फिर उसकी संवत् १९४८ माघ सुदी ५ के रोज मूलनायक श्रीअजितनाथ आदि अनेक जिनबिम्बोंकी गुरुजीने अञ्जनशलाका युक्त प्रतिष्ठा की ॥२४६॥ उस मौके पर धर्मद्वेषी लोकोंने बहुतसे उपद्रव खड़े किये, और राज्यमें चुगली भी खाई कि-राजन् ! मुहूर्त अच्छा नहीं है ॥२४७॥ लेकिन उनके उपद्रवका जोर शोर केवल शरद ऋतुके वादलके समान व्यर्थ ही हुआ, उलटे वे लोग सजनों से पग २ पर अपमान के शिरपावको प्राप्त हुए ॥ २४८ ॥ यथाविधि वराऽभूत्सा, महानन्दैश्च सूद्धवैः । जयं लेभे गुरुस्तत्र, सुमुहूर्त्तप्रभावतः ॥२४९ ॥ तथा गुरूपदेशाच, वन्नाजीश्रेष्ठिनाऽमुना। न्यायोपार्जितवित्तेन, धर्मशालाऽपि कारिता ॥२५०॥ श्रीआहोरे चतुर्मास्यां, धर्मोद्योतस्त्वभूद् बहुः । श्राद्धश्राद्ध्यस्तदा जाता, व्रतसम्यक्त्वधारकाः॥२५१ निम्बाहेडापुरे साधं, चर्चाऽभूल्लुम्पकेन च। . नन्दरामं विजित्यैष, चक्रे षष्टिगृहान् स्वकान् ।२५२।
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। श्रद्धालौ खाचरोदे च, पुरे राजगढे पुनः। . बभूवतुश्चतुर्मास्यो, कोशनिर्माणहेतुना ॥२५३ ॥
अत्यानन्द पूर्वक महोत्सवके साथ सविधि वह प्रतिष्ठा समाप्त की गई। वहाँ शुभ मुहूर्तानुभावसे गुरुजीकी जय हुई ॥ २४९ ॥ तैसेही गुरूपदेशसे इन वनाजीने अपने न्यायो. पार्जित द्रव्यद्वारा मंदिरके नीचे धर्मशाला भी करवाई ॥२५०॥ १९४८ आहोर के चातुर्मासमें बहुत धर्मोद्योत हुआ, और अनेक श्रावक श्राविकाएँ सम्यक्त्व युक्त द्वादश व्रतधारी हुए ॥ २५१ ॥ १९४९ निम्बाहेड़ाके चौमासामें लुम्पकनन्दरामके साथ मूर्तिमान्यता विषयिक चर्चा हुई, अन्तमें उसे जीतकर जैनमंदिरमार्गी ६० घर बनाये गये ॥ २५२॥ १९५० का चौमासा श्रद्धालू खाचरोदमें हुआ और १९५१-५२ ये दो चौमासे राजगढ़ में ' अभिधानराजेन्द्र ' कोष बनाने के कारणसे हुए ॥ २५३ ॥
२३--प्रतिष्ठानुभावः संघनिर्गमश्चकडोदेऽथ वरे ग्रामे, पौरवालकुलोद्भवा । सुश्रेष्ठ्युदयचन्द्रेण, कारितः श्रीजिनालयः ॥ २५४ ॥ तत्प्रतिष्ठासमीपेऽस्य, चौरधाटिहेऽपतत् । रूप्याशीतिसहस्राणि,स्तेनितानि च तस्करैः ॥२५५॥ घोरचिन्ता समुत्पन्ना, श्रेष्ठिचित्ते ततस्तदा। तृतीये दिवसे तत्र, गुरुः शिष्यैः समाययौ ॥२५६॥
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। तदिभ्योदन्तमाकर्ण्य, गुरुरेवमुवाच तम् । चिन्ताजालं सदा हेयं, भावी भवति नान्यथा॥२५७॥ नाऽतः शोच्यं पुनस्तेऽदः, पश्चाद्रव्यं तु लप्स्यसे । प्रतिष्ठां कारय श्रेष्ठिन् !, शुद्धचित्तेन तद्भुतम् ॥२५८॥
सुन्दर गाँव कडोदमें पौरवाल गोत्रीय-श्रेष्ठिवर्य उदयचन्दजीने सौधशिखरी जिनालय बनवाया ॥२५४॥ उसकी प्रतिष्ठाके समीप उसके घर पर अकस्मात् चौरोंकी धाड़ पड़ी, चौरोंने अशी हजारके मालकी चौरी की ॥ २५५ ॥ उस कारण सेठके मनमें अतीव चिन्ता पैदा हुई, वहांपर तीसरे दिवस शिष्यों युक्त गुरुमहाराज पधारे ॥२५६ ।। उस सेठका वृत्तान्त सुनकर गुरुजी उसको इस प्रकार बोले कि-सेठ ! चिन्ता हमेशा त्याज्य है क्योंकि होनहार कभी नहीं टल सकता ॥ २५७ ।। इस लिये शोच नहीं करना चाहिये फिर तुम जो निर्मल मनसे शीघ्र प्रतिष्ठा करा दो तो यह तुम्हारा धन तुमको पीछा मिल जायगा ॥ २५८ ।। उपदेशात्ततः सोऽपि, बहुव्ययमहामहै। वैशाखसितसप्तम्यां, चन्द्रवारेऽतिहर्षतः ॥ २५९ ॥ तां प्रतिष्ठां सुवेलायां, वासुपूज्यजिनस्य वै । विधिना कारयामास, सद्विदा गुरुणामुदा ॥२६०॥ विजहार ततोऽन्यत्र, गुरुराजो विनेयकैः। . स इभ्योऽपि सुखेनैव, धर्मध्याने त्ववर्तत ॥ २६१ ॥
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। मासत्रय्याहितश्चौरै-गृहीतैर्भटयत्नतः । अथेभ्यस्य समं वित्तं, धराधीशेन दापितम् ॥ २६२ ।। प्रससार प्रभावश्च, पुण्यमूर्तेरमायिनः ।। श्वेताम्बरी जयं लेभे, चूलाद्रेस्तीर्थविग्रहे ॥ २६३ ॥
बस इस सदुपदेशसे सेठने भी संवत् १९५३ वैशाख सुदि ७ चन्द्र वारके रोज बहुत द्रव्य व्यय पूर्वक महोत्सबके साथ अति हर्षसे इन सुविज्ञ गुरुमहाराजसे विधि युक्त शुभ समयमें वासुपूज्य भगवानकी प्रतिष्ठा करवाई ॥ २५९ ।। २६० ॥ बाद विनीत शिष्योंके साथ गुरुराज तो कहीं अन्यत्र विचर गए और सेठ भी सुख पूर्वक धर्मध्यान करने लगा ॥२६१ ॥ पीछे तीन मासके बाद स्वयमेव राजके सुभटोंने उन चौरोंको पकड़े और राजाने सेठका कुल धन दिलवाया ॥ २६२ ।। अतएव उन निष्कपट पवित्र मूर्ति गुरुदेवकी लोकमें सर्वत्र वचनसिद्धि की महिमा फैल गई ॥२६३॥ और बावनगजा चूलगिरितीर्थ के लिये श्वेताम्बर और दिगम्बर जैनों के बीच मुकदमा सन् १८६० में बढ़वानी हाईकोर्टमें पेस हुआ । उसमें आपके दिये हुए पुख्ता अकाट्य प्रमाणोंको देखकर सन् १८९४ में आखिरी चुकावा दिया कि चरणपादुका व चूलगिरिका स्वामित्व हमेशाके मुआफिक श्वेताम्बरजैनोंका ही है । अतः गुरुदेवके अनुभावसे श्वेताम्बरी जैनसंघ जय को प्राप्त हुआ। इस फेसले की मयमिसलके असली कोपी आहोर(मारवाड़)के बृहद्ज्ञानभंडारमें सुरक्षित है ॥२६३॥
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
७३
निष्कासितश्च संघोsपि, सिद्धाद्रेः श्रेष्ठिना मुना | उपदेशाद् गुरोर्द्रव्यं, प्राज्यं तत्र व्ययीकृतम् || २६४|| २४ गुरोरुन्नतिर्मगसी तीर्थ- संघनिर्गमश्च -- जावरांपत्तने चाssसी - चारुराष्टाहिकोत्सवः । रौप्यं विंशतिसाहस्रं, श्रीसंघेन व्ययीकृतम् ॥ २६५ ॥ दत्ता लुम्पकशिक्षा च, जाता धर्मोन्नतिः परा । रत्न पुर्यामपि ज्ञेयं, जावरावदुदन्तकम् ॥ २६६ ॥ श्राद्धानामयुतं चैयो, गुरुवन्दन हेतवे । पाखण्डिखण्डने जाते, व्यस्तृणोद्धि भवद्यशः ॥ २६७ निक्षिपेयो वेधूलि, पतेत्तदुपरीह सा । स्वनिष्यति तथा गर्त, यस्तस्मिन् स पतिष्यति ॥ २६८
फिर गुरुके उपदेश से उस सेठने सिद्धाचलजीका संघ भी निकाला और उसमें खूब धन खर्च किया ॥ २६४ ॥
सं० १९५३ जावरा चौमासा में तथा उसके हर्षमें श्रीसंघने सुन्दर अष्टाहिक महोत्सव किया उसमें वीस हजार रुपये व्यय किये ।। २६५ ।। यहां लुम्पकों ने अफण्ड खड़ा किया वास्ते उनको शिक्षा दी गई और धर्मकी उन्नति भी बहुत अच्छी हुई । १९५४ रतलाम में भी जावरा तुल्य ही कुल वृत्तान्त समझना ।। २६६ || इस चौमासा में गुरुमहाराजको वन्दन करनेके लिये दश हजार श्रीसंघ आए और
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्र गुणमञ्जरी ।
पाखण्डियों का पाखण्ड खण्डन करनेसे आपश्रीका ही सुयश विस्तृत हुआ || २६७ ।। कहावत भी है कि जो सूर्यके सामने धूलि डालता है वह पीछी उसीके ऊपर आकर पड़ती है एवं जो खड्डा खोदेगा वही उसमें पड़ेगा || २६८ ।।
७४
लूणावच्चान्दमल्लेन, खाचरोदनिवासिना । व्यज्ञापि बहुधाऽथैवं योजिताञ्जलिना गुरुः ॥ २६९॥ मगसी - पार्श्वनाथस्य, तीर्थयात्रां विधापय । पूज्याssगतोऽस्मि तद्धेतोः, कृपयाssगम्यतामितः तद्विज्ञप्तिं समाधाय, गुरुराजोऽपि तत्पुरम् । शिष्य श्रेष्ठैः समं शीघ्र -मागच्छल्ला भहेतवे ॥ २७९ ॥ ततः कृत्वा प्रयाणं स, मुहूर्तेन हितेच्छया । सूपदेशं ददत्संघ, प्रतिग्रामं क्रमेण च ॥ २७२ ॥ चैत्र कृष्णदशम्यां च वेदबाणनिधीन्दुके । ववन्दे श्रीजिनं पार्श्व, संधैः सार्धं गुरुर्गुणी ॥२७३ ||
बाद खाचरोद - निवासी लूणावत्-सेठ चांदमलजीने हाथ जोड़कर गुरुजी को इस प्रकार बहुत प्रार्थना की ॥ २६९ ॥ हे पूज्यवर्य ! हमें तीर्थ मक्षी पार्श्वनाथजीकी यात्रा करावें उसी हेतु मैं आपश्रीसे अर्जके लिये आया हूँ वास्ते कृपाकर पधारें ॥ २७० ॥ गुरुमहाराज भी उस अर्जीको मान देकर श्रेष्ठ शिष्यों युक्त यात्रालाभके लिये जल्दी ही खाचरोद पधारे || २७१ || फिर शुभ मुहूर्त्तसे प्रस्थान कर हितकी
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणभञ्जरी । चाहनासे गुरुजी हरएक गाँवके संघकों उपदेश देते हुए क्रमसे संवत् १९५४ चैत्र वदि १० के रोज संघ के साथ गुणसंपन्न गुरुने श्रीपार्श्वनाथजीको विधिसे वन्दन किया ॥ २७२-२७३ ॥ संघभक्तिजिना दौ, सादरणामितंपचाः। संघश्रेष्ठो गुरूक्त्यासौ, विदधेऽतिधनव्ययम् ॥२७४॥ यात्रां कृत्वा सुखेनैवं, स चाऽऽगत्य निजं पुरम् । संघभोज्यादिकंसर्व, चक्रेत्रापि यथोचितम्॥२७५।। ददत्पूज्यः प्रतिस्थानं, प्राणिनां धर्मदेशनाम् । विदधे जिनधर्मस्य, महादीप्तिं पदे पदे ॥२७६ ॥ २५-नवशतार्हद्विम्बाऽञ्जनशलाका प्रतिष्ठा
पञ्चत्रिंशद्--गच्छसमाचारीबन्धनं चअमुष्य गुरुराजस्य, प्रसादाद् गुणशालिनः । आहोरे सून्नतिर्या या, तांतां वक्तुंक्षमेत कः ?॥२७७॥
वहाँ गुरुमहाराजके वचनसे उदार चित्तसे चाँदमलजीने संघभक्ति जिनपूजा आदि शुभ कार्यों में खूब ही धन खर्च किया ॥ २७४ ॥ इस प्रकार यात्रा कर सुखसे अपने गांव आकर भी स्वामिवात्सल्य आदि कुल यथोचित शुभ कार्य किये ।। २७५ ॥ एवं पूज्यवर्यने स्थान २ पर प्राणियोंको धर्मोपदेश देते हुए हरजगह जिनधर्मका बड़ा ही उद्योत
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। किया ॥ २७६ ॥ गुणशाली गुरुमहाराजकी शुभ कृपासे श्रीआहोरमें जो जो उन्नति हुई उन सबको कहने के लिये कौन समर्थ हो सकता है ? ॥ २७७ ॥ गोडीपार्श्वबहिश्चैत्ये, द्विपञ्चाशत्सुमण्डिते । नवशत्याश्च बिम्बानां, यः साञ्जनशलाकया ॥२७८।। फाल्गुनेऽसितपञ्चम्यां, प्रतिष्ठां समचीकरत् । संघानांतत्र पञ्चाशत्-सहस्रे कापि न व्यथा ॥२७९॥ आद्य एव मरौ चाऽस्मि-नीदृशः सूद्धवोऽजनि । प्रभावो भवतामेष, लक्षं मुद्रा यदागताः ॥ २८० ॥ पुरेऽथ शिवगञ्जेऽस्मिन् , श्रीसंघहितकाम्यया । . पश्चत्रिंशत्समाचारीः, समयज्ञो बबन्ध सः॥२८१॥ सर्वसंधे प्रसिद्धाश्च, तथा मुद्रापिता अपि । श्रोतृज्ञप्त्यै स्वयं वाच्या, गोष्ठ्यांगुरुनिदेशगैः।।२८२।। . छोटे बड़े बावन जिनमंदिरोंसे सुशोभित श्रीगोड़ीपार्श्वनाथजीके जिनालयमें गुरुदेवने नव सौ जिनबिम्बोंकी फाल्गुन वदि ५ गुरुवारके रोज अञ्जनशलाका युक्त प्रतिष्ठा की। यहां पचास हजार जनसमुदाय एकत्रित होने पर भी किसीको कुछ तकलीफ नहीं पड़ी ॥ २७८ ॥ २७९ ॥ मारवाड़में ऐसा पहिला ही महोत्सव हुआ, जिसमें एक लाख रुपये मंदिरमें आए, यह कुल आपश्रीका ही प्रभाव है ।।२८०॥ बाद १९५६. का चौमासा शिवगंजमें हुआ, इसमें श्रीचतु
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। विध संघकी शुभ चाहना से अबसरज्ञ गुरुदेवने गच्छ सुधाराकी ३५ समाचारियां बाँधीं ॥ २८१ ॥ वे सारे संघमें प्रख्यात हैं, व छप भी चुकी हैं, गुरुआज्ञामें चलनेवाले व्यक्तिओंको श्रोताओंके जाननेके लिये सभाके अन्दर स्वयं वाँचना चाहिये वे ३५ कलमें इसीके अन्तमें छपी हैं ।।२८२।। ग्रन्थवृद्धिभयादेता, मया नैवात्र गुम्फिताः । धीमतां स्वल्पसंकेतो-ऽपि नीरे तैलबिन्दुवत् ॥२८३।। सियाणाख्ये वरग्रामे, सुविधीशस्य चाऽहर्तः। कुमारपालचैत्यस्य, जीर्णोद्धारमकारयत् ॥२८४ ।। उपदेशाचतुर्विंश-त्यहल्लधुगृहाणि च । एषोऽचीकरदेतेषां, स्थापनं विधिनोत्सवैः ॥ २८५ ॥ सप्ततिसहस्रमागा-द्रप्याणां जिनमन्दिरे।। विद्याशालापि संघेन, स्थापिता बोधदायिनी॥२८६॥
२६-वालीपुरीचर्चायां गौरवो विजयः-- गुरुह्येष पुरग्रामो, विचरन्नेकदा मुदा । वालीपुर्यां समागच्छ-च्छिष्यवृन्दैः सुकोविदैः।२८७। ___ यहाँ मैंने ग्रन्थ बढ़नेके भयसे ये समाचारियाँ श्लोकोंके अन्दर नहीं गूंथीं [ रची ] लेकिन बुद्धिमानोंको यह मेरा अल्पमात्र संकेत भी जलमें तैलके बिन्दु समान सुविस्तर रूप होगा ॥२८३॥ सियाणा नामक सुन्दर ग्राममें कुमारपालका
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। बनवाया सुविधिनाथ जिनेन्द्र भगवानके मंदिरका जीर्णोद्धार आपश्रीके शुभोपदेशसे संघने करवाया । एवं उसके चारों ओर २४ जिनेश्वरोंकी छोटी छोटी २४ देहरियां बनवायीं और इनमें संवत् १९५८ माघ शुदि १३ के रोज प्रतिमाएं भी सविधि महोत्सवके साथ आपश्रीके करकमलोंसे ही स्थापित हुई ॥ २८४ ॥ २८५ ।। उसमें सित्तर हजार रुपयोंकी आमदनी जिनमंदिरमें हुई और छात्रोंको ज्ञान देनेवाली एक पाठशाला भी संघने स्थापन की ।। २८६ ॥
एक समय गुरुमहाराज विचक्षण शिष्यों के संग ग्राम नगर विचरते हुए वाली शहर पधारे ॥ २८७ ॥ कियन्तस्तत्र धर्मा-लवः श्राद्धास्त्वनेन वै । वादायाऽऽकारयामास, श्रीहेतविजयाह्वयम् ॥२८८॥ ततोऽपृच्छद बहून् प्रश्नान्, दलैः सार्धं गुरुं प्रति । दत्तानि गुरुणा शास्त्रैः, प्रतिवाक्यानि शीघ्रतः।२८९॥ पुनः स दुर्धिया युक्तः, श्रावकैः प्रेरितो जडैः। विवादं नियतस्थाने, गुरुणा कर्तुमागतः ॥२९० ।। पूर्वमेव गुरुगोष्ठ्यां, सशिष्यैः समुपस्थितः। सोऽमुना गुरुणा प्रोक्तः, कस्ते वादो वद द्रुतम् ।२९१॥ सूर्यरूपे गुरौ दृष्टे, घूकरूपोऽजनिष्ट सः। सभायां चकितो जातः, किश्चिद्वक्तुं शशाक नो।२९२।
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमअरी । वहाँके कितनेक धर्मद्वेषी नामधारी श्रावकोंने गुरुसे वाद करनेके लिये पं० हेतविजयको बुलाया ॥ २८८ ॥ बाद उसने गुरुको पत्रद्वारा अनेक प्रश्न पूछे । गुरुजीने भी शास्त्रोंसे फौरन उनके जबाब दिये ॥ २८९ ॥ फिर वह दुर्मति कतिपय अज्ञ श्रावकोंसे प्रेरित होकर निश्चित किये हुए स्थान पर गुरुके साथ विवाद करने के लिये आया ॥२९०॥ लेकिन गुरुजी तो स्वशिष्यमण्डली सह पहिलेसे ही सभामें उपस्थित होगए थे। वादी के बहुत देरसे आने बाद उससे गुरुजी बोले-तुम्हारा कोन वाद है ? सो जल्द बोलो॥२९१॥ लेकिन बोले कौन ? वह तो गुरुको सूर्य तुल्य देखते ही घूघूके समान, मौनी बाबा हो गया और चौंक कर सभामें कुछ भी नहीं बोलसका ।। २९२ ।। कियद्भिः प्रेरितः सभ्यः, किञ्चिद्वक्तुं प्रचक्रमे । उतो गुर्वाज्ञयाऽवादीत्, श्रीदीपविजयो बुधः।।२९३॥ स्तुतिचर्चा विधातुं चे-दागतोऽसि वदाऽऽदिमे । प्राकृते थुइशद्वस्य, कथं सिद्धिस्तु जायते ॥ २९४ ॥ श्रुत्वैवं मौनमाश्रित्या-ऽस्थाच्छीर्षे हस्तमावहन् । यतीन्द्रविजयोऽप्यूचे, कथं सिद्धिस्तु संस्कृते॥२९॥ अनभ्यासेन तत्रापि, नो दत्त्वा किञ्चिदुत्तरम् । मौनोत्तमसमाचार्या, वकवृत्ताववर्तत ॥२९६ ॥
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
८०
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
कुतो नीतिशास्त्रेऽप्युक्तम् —
" दानं सुरायां सुगजो नृपाणां, युद्धं भटानां विदुषां विवादः । लज्जा वधूनां सुरवः पिकानां
विभूषणं मौनमपण्डितानाम् ” ।। २९७ ।।
परन्तु कितनेक सभा के लोकों से प्रेरित होकर कुछ कहनेके लिये तैयार हुआ, उस मौके पर गुरु आज्ञासे विचक्षण मुनिदीप विजयजी बोले || २९३ || यदि आप स्तुतिकी चर्चा के लिये आए हैं तो प्रथम कहो प्राकृतव्याकरणसे थुइ शद्ध कैसे सिद्ध होता है ? || २९४ || इस प्रकार प्रश्न सुनकर वादी शिरपर हाथ फेरता हुआ मौन धारण करके बैठ गया । बाद मुनि श्री यतीन्द्रविजयजी भी बोले खैर संस्कृतव्याकरणसे तो सिद्धि बतलाओ १ ।। २९५ ।। पर अनभ्याससे दोनों ही स्थानमें कुछ भी जवाब नहीं देकर वकाचरणकी मौन रूप उत्तम समाचारी में ही स्थिर रहा नीतिमें कहा भी है कि दान धनका, सुन्दर हाथी राजाओं का, युद्ध सुभटोंका, विवाद विद्वानोंका, लाज कुलांगनाओं का, मधुर स्वर कोकिलों का, इसी प्रकार मौनपन अपंडितों का परम भूषण है ।। २९७ ।।
वेदषन्दभूवर्षे, चतुर्मास्यां गुडापुरे । श्रीधनचन्द्रसूरीशै - रसौ वादेऽपि हारितः ।। २९८ ।।
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । निस्त्रपेणाऽविमर्शन, शिथिलाचारचारिणा। पण्डितंमन्यमानेन, दुर्धिया वादिनाऽमुना ॥ २९९ ।। शास्त्रे विधिप्रकाशे च, निजौद्धत्यप्रकाशिना । सद्गुर्वोरेतयोः कुत्सा, व्यलेख्यभवभीरुणा ॥३०॥ गुरुणा शब्दशास्त्राभ्यां, द्वाभ्यां शब्दो प्रसाधितौ । गतास्सभ्याश्चमत्कारं, वादिन्नस्ति किमेनयोः॥३०१॥
सं. १९६४ गुड़ाके चौमासेमें श्रीमद् विजयधनचन्द्र. सूरिजीसे भी वादमें यह पंन्यास हार गया था ॥२९८॥ इस नित्रपी अविचारी शिथिलाचारी पंडितमन्य असत्प्रलापी भवाभिनन्दी सुदुर्मति वादीने स्वनिर्मापित 'प्रतिक्रमणविधिप्रकाश' नामक ग्रन्थ में इन दोनों सद्गुरुओंकी स्वकपोलकल्पित पेटभर व्यर्थ निन्दा लिखी है ।।२९९-३००॥ अतः वाचकवृन्द ! वादी की यह भूतपूर्व घटना यहाँ लिखी है सो असंगत न समझें। बाद गुरुमहाराजने दोनों व्याकरणोंसे शब्द सिद्ध करके बतलाए और बोले कि-वादी इनके सिद्ध करने में क्या है ? यह देखकर सभ्य लोक चमत्कारको प्राप्त हुए ।। ३०१ ॥ समयेऽस्मिन् मिथः सभ्याः, सङ्केतेनाऽस्य वादिनः। निर्बलत्वं च दृष्ट्रेवं, जहसुः स्वस्वमानसे ॥३०२॥
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । यो यच्छिष्यैर्विवादन्तु, कर्तुं नाऽलमभूद्यदा । स वादी गुरुणा साधू, चर्चा कर्तुं किमर्हति ? ॥३०३ ॥ चेदाखुः स्वबलेनेलां, मेरुं चापि प्रकम्पयेत् । शेषवक्त्रचपेटाद-स्तर्हि सोऽपि गुरुं जयेत् ॥ ३०४॥ नम्रीभूय ततोऽन्ते स, सुखपृच्छादिपूर्वकम् । बद्धाञ्जलिश्च गुर्वग्रे, नमयामास मस्तकम् ॥ ३०५ ।। बहुघस्रान्ममेच्छाऽऽसीद् , भवत्सद्दर्शनस्य वै । सत्पुण्यात्साऽद्य पूर्णाऽभू-तुष्टावैवं गुरुं मुदा ॥३०६॥
इस मौके पर सभ्य जन इस प्रकार इस वादी की निर्बलताको देखकर परस्परमें संकेतके साथ अपने अपने दिलमें हँसते थे ॥३०२॥ जो वादी जिनके शिष्योंसे भी वादके लिये समर्थ नहीं है, वह गुरुमहाराजके साथ चर्चा करनेके लिये कैसे योग्य हो ? नहीं, सर्वथा नहीं ।।३०३॥ हाँ यदि चूहा अपने बलसे पृथ्वी और सुमेरुको कम्पायमान करे या शेष नागके मुखपर थाप देवे तो वादी गुरुसे जय पावे, नहीं तो नहीं ॥ ३०४ ॥ अन्तमें हाथ जोड़े हुए वादीने गुरुके आगे नम्र होकर सुखशातादिके प्रश्न युक्त मस्तक नमाया ॥३०५॥ और बोला कि-आपश्रीके दर्शनकी मेरे बहुत दिनोंसे इच्छा थी, वह पुण्ययोगसे आज पूर्ण हुई, एवं सहर्ष गुरुकी खूब स्तुति की ॥ ३०६ ॥
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। नाऽऽगतो भवता साध, चात्र वादचिकीर्षया । .. श्रावकाऽतिप्रणुन्नेन, कृतमेतद्धि दुष्कृतम् ॥ ३०७ ॥ समे सभ्या गुरोरेवं, दृष्ट्वा गौरवमद्भुतम् । स्वे स्वे स्थानेऽथ जग्मुस्ते, कुर्वन्तोऽस्य जयारवान् ।३०८। २७-अर्बुदतीर्थयात्रा, सिरोहीभूपसुगोष्ठी चअर्बुदस्थाऽऽदिनाथस्य, सद्यात्रा गुरुणा प्रभोः। कारिताऽखिलशिष्याणां, श्रीसंघेन समं मुदा ।।३०९।। तत्र संघेन हृष्टेन, विदधेऽष्टाहिकोत्सवः । स्वात्मानं सफलं मत्वा, खराडीमगमद् गुरुः ॥३१०॥ भवत्ख्यातिं निशम्यात्र, सिरोहीवसुधाधिपः । श्रीमत्केसरिसिंहाख्यो, दर्शनोत्कण्ठितोऽभवत् ३११
यहाँ मैं आपके साथ वादकी इच्छासे नहीं आया, किन्तु कतिपय श्रावकोंकी अति प्रेरणासे इस अयोग्य कार्यका साहस किया ॥ ३०७ । इस प्रकार गुरुमहाराजकी गुरुताको देखकर समी सभाके लोग गुरुकी जय जय बोलते हुए सहर्ष अपने अपने स्थान पर गए ॥ ३०८ ॥ .. - बाद गुरुमहाराजने १९५६ अक्षय तीजके रोज श्रीसंघके साथ सहर्ष सब शिष्योंको अर्बुदगिरिस्थ श्रीआदिनाथ प्रभुकी उत्तम यात्रा कराई ॥ ३०९ ॥ वहाँ बड़ी ही खुशीसे
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
૮૪
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
श्रीसंघने अष्टाह्निक महोत्सव किया, फिर संघ युक्त गुरुजी अपनी आत्माको सफल मानकर खराड़ी पधारे ॥ ३१० ॥ वहाँ सिरोहीराज्यधानी के स्वामी श्रीमान् नृप केसरीसिंहजी आपश्रीकी प्रसिद्धि सुनकर अति दर्शनाभिलाषी हुए ॥ ३११ ॥ गुरोराहयितुं तेन, प्रेषितं स्यन्दनं वरम् । प्रधानपुरुषैः सार्धं, विज्ञप्तिरपि कारिता ॥ ३१२ ॥ गुरुणोक्तास्तदारोढुं नास्मच्छीलोऽयि ! सज्जनाः ! | पादचारी समेष्यामि, वृत्तमेतन्निवेद्यताम् ॥ ३१३ ॥ शिष्ययुक्तोऽपरे घस्रे, गत्वा काले यथोचिते । उपादिशच्च भूपाय, विविधाभिः सुयुक्तिभिः ॥ ३१४ ॥ धरेशः प्रहरं यावद्, बहुप्रश्नोत्तरैः सह । सच्चर्चा गुरुणा चक्रे, केहग् योगो मिलिष्यति ॥३१५॥ तस्यां गोष्ठ्यां नृपस्वान्ते, संजहर्ष वसन्तवत् । भूयो भूयो गुरुं चैनं, तुष्टाव गुणरागतः ॥ ३६१ ॥
गुरुको बुलानेके लिये राजाने एक वग्धी भिजवाई और अपने प्रधान पुरुषोंके ज़रिये अर्जी भी कहलाई ||३१२ || गुरुने कहा कि सज्जनो ! वग्घी में बैठने का हमारा आचार नहीं है, मैं केवल पैदल ही आऊंगा, यह वृत्तान्त राजा साहबको निवेदन कर देना ।। ३१३ || बाद दूसरे दिन यथायोग्य समय पर शिष्यों युक्त गुरुमहाराजने जाकर अनेक प्रकारकी
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। सुयुक्तियोंसे राजाको उपदेश दिया ॥ ३१४ ॥ नृपने भी विचारा-ऐसा योग मुझे कब मिलेगा ? वास्ते एक पहर पर्यन्त अनेकानेक प्रश्नोत्तरों के साथ गुरुसे धर्म संबंधी उत्तम चर्चा की ॥३१५॥ उस गोष्ठीमें वसन्त ऋतु के समान भूपके दिलमें अतीव हर्ष पैदा हुआ और वह गुणानुरागसे वार वार गुरुकी स्तुति करने लगा कियथा श्रुतस्तथा दृष्टो, भवान् पूज्य ! गुणोदधे !। मद्योग्या दीयतामाज्ञा, श्रूयतां गुरुगोदितः ॥३१७॥ भो राजन् ! जैनसाधुभ्यो, यात्रिकेभ्यस्त्वया करः । निर्ग्रन्थत्वाच न ग्राह्यः, श्रुत्वौमित्यवकादरम् ॥३१८॥ ईशा गुरवस्सन्ति, कलावस्मिन् सुदुर्लभाः। बभूवाऽऽदर्शरूपोऽयं, लोकानां भाग्ययोगतः।।३१९॥
२८ कोरण्टके प्रतिष्ठाञ्जनशलाकेआहोरेऽभूचतुर्मास्ये, धर्मोद्योतस्त्वनेकधा । . .. सूरिणाऽऽद्योपधानं च, संधैः कारितमुद्धवैः ॥३२०॥ कोरंटस्थो बहुद्रव्यैः, संघश्चक्रे जिनौकसम् । मेरुवद् भात्यपूर्व हि, भूस्त्रीशीर्षशिखोपमम् ॥३२१॥
गुणसागर ! पूज्य ! आपश्रीको जैसे सुनते थे वैसे ही देखे, अब मेरे योग्य कोई आज्ञा देवें । तब गुरुजी बोले
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। सुनिये ॥ ३१६ ॥ ॥ ३१७ ॥ आपको जनसाधु यात्रियोंका कर नहीं लेना चाहिये, कारण वे निर्ग्रन्थ-याने रुपया पैसा के त्यागी होते हैं, ऐसा सुनकर राजाने 'हाँ' कहकर गुरुके वचनका आदर किया ॥ ३१८ ॥ महानुभावो ! इस कलियुगमें इस प्रकारके गुरु मिलना अति दुर्लभ हैं, ये तो लोगों के भाग्ययोगसे ही एक आदर्श रूप हो गए ॥३१९॥ ___सं० १९५८ आहोरके चौमासामें अनेक तरहसे धर्मका उद्योत हुआ । फिर संघने उत्सबके साथ आपश्रीसे पहिला उपधान भी कराया ॥ ३२०॥ कोस्टाके संघने बहुत धन लगाकर एक जिनमंदिर बनवाया वह ऊंचाईमें मेरुके समान, पृथ्वी रूप स्त्री के मस्तककी वेणी समान, अद्वितीय ही शोभा देरहा है ॥ ३२१ ॥ नन्दबाणनवैकाब्दे, माधवे पूर्णिमातिथौ । प्रतिष्ठामादिनाथस्य, चक्रेऽसौ विधिनोत्सवैः ।।३२२॥ रुद्रनन्दैकवर्षेऽत्र, ज्येष्ठशुभ्राष्टमीतिथौ । ऋषभः संभवः शान्ति-निर्गताःखननाद्भुवः ।३२३॥ कायोत्सर्गेण राजेते, द्वौ बिम्बौ पार्श्ववर्तिनौ । एतयोरासने लेखः, प्रतिष्ठासूचकोऽस्त्यसौ ॥ ३२४ ॥ विक्रमाब्दे गुणाब्धीशे, वैशाखे मासि सूत्तमे । शुभ्रपक्षद्वितीयायां, गुरुवारे च मञ्जुले ॥३२५ ॥
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
श्रीमद्वीरजिनेन्द्रस्य, श्राद्धो रामाजरूककः । अकारयज्जिनं युग्मं, मनात्वाऽस्थापि तत्स्त्रिया | ३२६ |
उसमें गुरुमहाराजने सं० १९५९ वैशाख सुदि पूर्णिमा के रोज सविधि महोत्सव के साथ प्राचीन अति मनोहर श्री आदिनाथ भगवानकी मूर्ति स्थापन की ॥ ३२२ ॥ १९११ ज्येष्ठ सुदि ८ के दिन जमीन खोदने से श्री ऋषभ, संभवनाथ और शान्तिनाथ ये तीनों के जिनबिम्ब निकले थे ।। ३२३ ।। उनमें आसपासके दो जिनबिम्ब कायोत्सर्ग ध्यान से शोभायमान हैं और इन्होंकी पालगटी पर प्रतिष्ठा सूचक नीचे मुजब लेख भी है || ३२४ ॥ विक्रम संवत् ११४३ उत्तम मास वैशाख सुदि २ गुरुवारके रोज श्रीवीर - जिनेन्द्रके श्रावक रामा जरूकने ये जिनबिम्ब कराये | और उसकी स्त्री मनातुने उन्हें स्थापन किये || ३२५-३२६ ।।
1
"
बृहद्गच्छेऽजितदेव-सूरिशिष्येण सूरिणा । विजयाद्येन सिंहेन, चैतच्चक्रे प्रतिष्ठितम् ॥ ३२७ ॥ पुनर्ग्रामबहिश्चापि वीराङ्गविकलत्वतः । संस्थाप्यान्यत्र तत्स्थाने, एतस्यां पूर्णिमातिथौ ॥ ३२८ स धीमान् शास्त्रवाक्येन, सहाऽञ्जनशलाकया । प्रतिष्ठां नूत्नबिम्बस्य, विदधे तीर्थवृद्धये ॥ ३२९ ॥ गुरुनिन्दां प्रकुर्वन्ति, दुर्जनाः कर्मणाऽमुना । शास्त्रतत्त्वं न जानन्ति, ते दृश्यन्ते निशादनाः ||३३० ॥
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
८८
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । तथैवोक्तं च विवेकविलासे
66
नखाङ्गुलीबाहुनासा - ऽङ्घीणां भङ्गेष्वनुक्रमात् । शत्रुभिर्देश भङ्गश्च बन्धकुलधनक्षयः
।। ३३१ ।।
वड़गच्छ में अजितदेवसूरिजी के शिष्य विजयसिंहसूरिजीने इनकी प्रतिष्ठा की || ३२७ || और गाँव के बाहर जीर्ण जिनमंदिरमें महावीरस्वामी की मूर्ति अंगोपांगों से विकल होने से गुरुमहाराजने शास्त्रप्रमाणसे उनको अन्य योग्य स्थान पर स्थापन कर उनके स्थान में इसी पूर्णिमा के दिन तीर्थवृद्धि के लिये नवीन वर्धमान जिन-बिम्बकी अञ्जनशलाका सह प्रतिष्ठा की और उसके बाद प्राचीन मूर्तिका भी सुधारा करवाकर उसी मंदिर में विराजमान की गई ।। ३२८ ॥ ३२९ ॥ लेकिन इस शुभकार्य से कतिपय धर्मद्वेपी दुर्जन लोक गुरुकी निन्दा करते हैं वे शास्त्रोंके तथ्यको नहीं जानते । अतः वे केवल नरपिशाच व घूघूके तुल्य दिखलाई पड़ते हैं ।। ३३० ॥ देखो ' विवेकविलास ' क्या बोलता है - नख, अङ्गुली, बाहु, नासिका और चरण, इनका भंग होने पर क्रमसे ये फल होते हैं - शत्रुओंसे देशका भंग, बन्धनमें पड़ना, कुल और धनका नाश होता है ।। ३३१ ॥
धातुले पादिजं बिम्बं व्यङ्गं संस्कारमर्हति । काष्ठपाषाणनिष्पन्नं, संस्कारार्ह पुनर्नहि ॥ ३३२ ॥
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। २९-ज्ञान-जिनप्रतिष्ठा, पंन्यासपदार्पणं चजालंधरे च सुश्रद्धा-ऽऽरोपिता मोदिसम्मतिः। तदन्तेऽगान्मुदाऽऽहोरं, श्रीसंघामन्त्रणाद् गुणी।३३३॥ प्रस्तरज्ञानकोषस्य, चाऽस्योच्चैः शान्तिसद्मनः । प्रतिष्ठामकरोत्पूज्यः, शास्त्रोक्तविधिनोत्सवैः ।३३४। कोशेऽस्मिन्नागमीयानि, चाऽन्यानि विविधानि वै । नव्यानव्यानि वर्तन्ते, गौरव्या स्वनुकम्पया॥३३५।।
धातु, लेप, आदिसे बनाया गया जिन-बिम्ब विकलांग हो तो ज़रूर संस्कारके योग्य है । किन्तु काष्ठ एवं पाषाणसे उत्पन्न जिन-बिम्ब तो संस्कारके योग्य ही नहीं है ॥ ३३२ ॥
सं० १९५९ जालोरके चौमासेमें श्रीसंघमें उत्तम श्रीदेवगुरुधर्मकी श्रद्धा और मोदियोंके परस्परका क्लेश मिटा कर सुसम्पकी जड़ रोपी गई। बाद संघके अत्याग्रहसे सद्गुणी गुरुमहाराज सहर्ष आहोर पधारे ।। ३३३ ॥ यहा श्वेत पत्थरके ज्ञानागारकी और इसके ऊपर घूमटदार जिन-मंदिरमें धातुमय शान्तिनाथ आदि तीन बिम्बोंकी शास्त्रविधिसे सोत्सव प्रतिष्ठा की ॥ ३३४ ॥ इस ज्ञानभण्डागारमें ४५
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
आगम उनकी पंचाङ्गी और अनेक प्रकारके नये जूने ग्रन्थ गुरुमहाराजकी सुकृपासे संगृहीत हैं || ३३५ ||
विहृत्याथ गुडाग्रामे, धर्मनाथजिनेश्वरम् । माघेsसौ शुभ्रपञ्चम्या - मस्थापयत्तमुद्धवैः ॥ ३३६ ॥ ततोऽगाच्छिवगञ्जे च, गुरुनिर्देशगामिनः । सहिष्णोः शिष्य भक्तस्य, मोहनविजयस्य वै । ३३७| हृष्टस्वान्तेन पंन्यास - पदं प्रादात्सुशिक्षया । बालीपुर्यां समेत्याऽसौ, तिथिशिष्यैः समन्वितः ३३८ दीक्षां दत्त्वा त्रीछ्राद्वान्, ह्यष्टघस्त्रैर्महोत्सवैः । सत्तीर्थानां च यात्राये, विजहार ततो गुरुः ॥ ३३९ ।। ३० - घुलेवादितीर्थयात्रा, सूर्यपुरे चर्चायां विजयश्च
तीर्थधू लेव- सिद्धाद्रि भोयणीत्यादिकां गुरुः । सद्यात्रां विधिना कुर्वन्नाऽऽगात्सूरतपत्तने ॥ ३४० ॥
बाद विहार कर गुड़ा गाँव पधारे, यहाँ 'अचलाजी' के मंदिर में माघ सुदि ५ के रोज महोत्सव के साथ श्रीधर्मनाथ आदि जिनेश्वरों की स्थापना की ।। ३३६ ॥ वहाँसे शहर शिवगंज पधार कर खुश दिलसे अनेक सुशिक्षाओंके साथ गुरुआज्ञा में चलनेवाले सहनशील भक्त शिष्य मुनि श्री मोहनविजयजी को पंन्यास का पद प्रदान किया और १५
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। शिष्यों सहित 'बाली' पधारे और आठ दिनके महोत्सव सहित तीन श्रावकोंको दीक्षा देकर वहाँसे उत्तम तीर्थोकी यात्राके लिये गुरुदेवने विहार किया श्रीकेसरियाजी, 'सिद्धाचलजी' और भोयणीजी आदि अनेक तीर्थोकी विधिसे उत्तम यात्रा करते हुए शहर 'सूरत' पधारे ॥३३७-३४०॥ आडम्बरैः समं संधैः, गुरोश्च प्राविशत्पुरम् । आदिमेऽत्र बहुश्राद्धाः, षड्द्रव्यादिविचक्षणा::३४१॥ गुरुमेनं महाराज, ज्ञात्वा विद्वांसमुत्तमम् । कर्कशान कर्कशान् प्रश्नान् , पप्रच्छुर्विविधान् वरान् तदुत्तराण्यपूर्वाणि, गुर्वास्येन वराणि वै । जहृषुस्ते निशम्यैव, तुतुषुस्तं पुनः पुनः ॥ ३४३ ।। चतुर्मासीस्थितौ धर्मे-ष्यालु-निन्दकदुर्जनः । कियदज्ञानिभिः श्राद्ध-धर्ममर्मानभिज्ञकैः ॥ ३४४ ।।
यहाँपर श्रीसंघने अतीव धूमधामके साथ गुरूका नगर प्रवेश कराया । यहाँके बहुतसे श्रावक षड्द्रव्यादिक पदार्थोके अत्यंत ज्ञाता हैं ॥ ३४१ ॥ अतः इन आचार्यवर्यको प्रकाण्ड विद्वान् जानकर, विविधप्रकारके शास्त्रीय गूढ एवं कठिनसे भी कठिन अच्छे २ प्रश्न पूछे ॥ ३४२ ॥ युक्ति पूर्वक उनके उत्तरोंको सुनकर श्रावकवर्ग अपने २ मनमें अति हर्ष व संतोषको प्राप्त हुए ॥ ३४३ ॥ चातुर्मासकी
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
९२
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
स्थिरता में कितनेक धर्मके ईर्ष्यालु, निन्दक, दुर्जन, एवं अज्ञ, धर्मके मर्मसे अनभिज्ञ,
उपसर्गे कृतेऽप्यस्य, हानिः कापि तु नाऽजनि । त एवान्ते नतास्सर्वे, नेमुरेनं लसद्गुणम् ॥ ३४५ ॥ विवादे च जयं प्राप, सत्यधर्मप्रभावतः । यत्र यत्र गुरुश्चाऽगा-तत्र तत्र यशोऽजनि ॥ ३४६ ॥ नगर श्रेष्टिनो गेहे, गुर्जरीयप्ररूढितः गुरुरेष चतुर्मास, पर्यवीवृतदादरात् श्रीकदाग्रहदुर्ग्रह - शान्तिमन्त्रान्तु सज्जनैः । विशेषोदन्त उन्नेयः, श्रीराजेन्द्रारुणोदयात् ॥ ३४८ ॥ श्रीकृकसी पुरेऽनेन, सूरिवर्येण चारुणा । प्राकृतं शब्दशास्त्रं च, छन्दोबद्धं विनिर्मितम् ॥ ३४९ ॥
॥ ३४७ ॥
श्रावकोंने उपसर्ग किये तो भी गुरूको तो किसी प्रकारकी हानि नहीं पहुंची, अन्त में वे सभी सनम्र चमत्कारी गुणवाले गुरुको नमते हुए || ३४५|| जहाँजहाँ आपका शुभ गमन हुआ वहाँ वहाँ शास्त्रीय वाद विवादमें आपको जय और बहुत यश ही प्राप्त हुआ || ३४६ || फिर गुरुमहाराजने गुजरात देशकी प्रथाके अनुसार अत्यादरसे नगर सेठके घर पर चौमासा पलटाया ।। ३४७ ।। यहाँ का विशेष वृत्तान्त सज्जन पुरुषों को ' श्रीकदाग्रह दुर्ग्रहनोशान्तिमंत्र' और 'श्रीराजेन्द्र
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। सूर्योदय' इन दो पुस्तकोंके द्वारा जानना चाहिये ॥३४८॥ बाद सं० १९६१ कूकसीके चातुर्मासमें आचार्यवर्यने छन्दोमय प्राकृतव्याकृति' नामक ग्रन्थ बनाया ॥ ३४९ ।।
३१--श्रीउदयसिंहभूपस्य गुरौ भक्तिःश्रीझाबुवानरेशेनो-दयसिंहेन सन्नराः । अत्र विज्ञप्तिपत्रेण, प्रेषिता गुरुसन्निधौ ॥३५० ॥ भवतो बहुकालान्मे, दर्शनेच्छा प्रवर्तते । करुणादानवद्भिवों, दर्शनं देयमाशु वै ॥३५१ ।। चतुर्मासीसमात्यन्ते, तिथिशिष्यैः समन्वितः। झावुवापत्तने चागाद्, विहृत्य धर्मवृद्धये ॥ ३५२ ।। कुर्वाणैरुत्सवैर्भूप-संधैः स प्राविशत्पुरम् । तद्धर्मदेशनां श्रुत्वा, भूपसंघावहृष्यताम् ॥ ३५३ ।। व्याख्यानेऽनेकशोराजा, धर्म श्रोतुमयादसौ। अन्यस्मिन्समयेऽज्ञीप्सत्, धर्मकर्माणि हर्षतः॥३५४ ___एक समय झाबुवाके नरेश श्रीउदयसिंहजीने अपनी ओरसे विज्ञप्ति पत्र सहित प्रधान पुरुषोंको गुरुके पास भेजे ।। ३५० ।। उसमें यह लिखा था कि-मुझे बहुत समयसे आपके दर्शनकी पूर्ण इच्छा लग रही है वास्ते दयाशील! आपश्रीको शीघ्र एक वक्त दर्शन देना चाहिये ॥३५॥
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। चौमासा समाप्त होने बाद १५. शिष्यों युक्त आपश्री धर्म वृद्धिके लिये विहार कर झाबुआ नगर पधारे ॥३५२॥ यहाँ राजा और संघकी ओरसे किये गए उत्सवोंके साथ गुरूका नगर प्रवेश कराया और उनकी धर्मदेशनाको सुनकर भूप व संघ अति ही खुश हुए ॥३५३।। राजा धर्म श्रवणके लिये व्याख्यानमें अनेक वार आए। व्याख्यानके अतिरिक्त दूसरे मौके पर भी सहर्ष धर्मके प्रश्न पूछते थे ।। ३५४ ॥ कियतः शपथान् लेभे, गुरूणामुपदेशतः । बहौ च देवतास्थाने, पशुहिंसां न्यवारयत् ।। ३५५ ॥ गुरोरस्य स्वराज्ये च, बहुमानमकारयत् । भक्त्या चैतत्प्रतिच्छायां, पूजापाठे दधात्यसौ।।३५६।। पुरापि गुरुभक्तोऽयं, धर्मवुद्ध्या नृपस्सुधीः। अत्राञ्जनप्रतिष्ठायां, ददौ सर्वसहायताम् ॥ ३५७ ॥ तस्याद्यापि सुवासिद्धिं, स्मरत्येष गुरोधिया । प्राणिनां किल कालेऽस्मिन् , दुर्लभो गुरुरीदृशः।।३५८॥ ३२-बहुषु पुरग्रामेषु साञ्जनप्रतिष्ठाविधानम्पारिख-च्छोटमल्लेन, कारिते वृषभालये। प्रतिष्ठाऽकारि चैतेन, जावरापत्तने वरे ॥३५९ ॥
गुरूके उपदेशसे राजाने कइएक नियम भी लिये और बहुतसे देवी देवताओं के स्थानों पर पशुओंके वधको निवा
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
रण किया || ३५५ || गुरुमहाराजका इन भूपने राज्यमें बहुत ही सन्मान कराया । और ये पूजापाठ में अति भक्तिसे गुरुकी तस्वीर भी रखते हैं ।। ३५६ ।। पहिले भी इन गुरुभक्त अति विचक्षण नृपने यहाँ १९५३ की सालमें अञ्जनशलाका युक्त प्रतिष्ठामें धर्मबुद्धिसे सब प्रकार की सहायता दी थी || ३५७ || ये नृप उनकी वचनसिद्धिको तथा गुरुबुद्धिसे आज दिन तक भी उनका स्मरण कर रहे हैं । इस कलियुगमें प्राणियों को इस प्रकारके सद्गुरूका योग मिलना अति दुर्लभ है ।। ३५८ ॥
शहर जावराके अन्दर पारिखगोत्रीय-छोटमलजीके तर्फ से बनवाया गया श्री ऋषभदेवजीके मंदिरकी प्रतिष्ठा आपने की ।। ३५९ ।।
श्रीतालनपुरे तीर्थे, गोडीपार्श्वजिनस्य च । पूर्णबनिवैकाब्दे, प्रतिष्ठा कारिताऽमुना ॥ ३६० ॥ वागग्रामेऽथ पूज्योऽयं, श्रीविमलजिनालये । तदञ्जनप्रतिष्ठां वै, विदधे हर्षनिर्भरः ततो राजगढेऽप्यष्टा-पदख्यातजिनालये । महामहेन सानन्दं, यः साञ्जनप्रतिष्ठया ॥ ३३२ ॥ रूपाध्यक्षचुनीलाल-कारितेऽस्थापयज्जिनान् ।
।। ३६१ ।।
श्रीधारा - झाबुवाधीशै - जण्टाश्वाप्यागुरत्र वै ॥ ३६३ ॥
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
राणापुरेऽथ संघेन, कारिते जिनमन्दिरे । योsस्थापयच धर्मेश, सहाञ्जनप्रतिष्ठया ॥ ३६४ ॥
.९६
"
१९५० की सालमें 'तालनपुर ' तीर्थ में श्रीगोड़ीपार्श्वनाथजीकी प्रतिष्ठा आपने कराई । १९६१ गाँव ' वाग' में हर्षभर पूज्यवर्धने श्रीविमलनाथजीकी साञ्जनशलाका प्रतिष्ठा कराई || ३६० ।। ३६१ || बाद शहर ' राजगढ़में ' खजानची चुन्नीलालजी ' के बनवाये हुए ' अष्टापदजी ' के नामसे प्रसिद्ध जिनमंदिरमें सानन्द महोत्सव के साथ अञ्जनशलाका सह २४ जिनेश्वरोंकी स्थापना की। इस उत्सव में सहर्ष धारानरेश, झाबुवानरेश, सरदापुर छावनीके एजण्ट, भी आए थे ।। ३६२ ।। ३६३ || और राणापुर में श्रीसंघकी ओरसे निर्माति जिन - मंदिरमें साञ्जनशलाका श्रीधर्मनाथजीकी प्रतिष्ठा कराई || ३६४ ॥
जावरापत्तनेऽप्येत्य, लक्ष्मीचन्द्रजिनालये । शीतलेशप्रतिष्ठां सो-करोन्निर्मलचेतसा ॥ ३६५ ॥ ग्रामे रङ्गपुराख्ये च, झाबुवाराज्यवर्तिनि । गुरुणा च महानन्दै - देशाई-रींगनोदयोः || ३६६ ॥ सरस्यां खाचरोदे च, मडावदा - कडोदयोः । श्रीटांडा-झाबुवा - रंभा - पुरकाणोदरेष्वपि ॥ ३६७ ।। पुरग्रामेष्वनेकेषु तेनैवं कारिता मुदा । सोद्धवैश्च महानन्दैः, प्रतिष्ठाः साञ्जना वराः ॥ ३६८||
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
९७
फिर विचरते हुए शहर ' जावरा ' में आकर लोढा लक्ष्मीचन्दजीके जिनमंदिरमें श्रीशीतलनाथजीकी प्रतिष्ठा गुरुने निर्मल मनसे की ।। ३६५ ।। ' झाबुवा ' राज्य के मध्यगत गाँव 'रंगपुरा में श्री ऋषभदेवजी की प्रतिष्ठा की । एवं दशाई, रंगनोद, सरसी, खाचरोद, मड़ावदा, कड़ोद, टांडा, झाबुवा, रंभापुर, काणोदर आदि अनेक पुरग्रामों में सहर्ष महानन्द पूर्वक महोत्सवों के साथ गुरुमहाराजने अञ्जनशलाका प्रतिष्ठाएँ कराईं ।। ३६६- ३६८ ॥
३३ - चीरोलानिवासिनां दुःखकथोक्तिः
श्रीखाचरोदसंघस्य, तस्थावत्याग्रहेण सः । भो ! अत्रास्यां चतुर्मास्यां, चीरोलाग्रामवासिनः । ३६९ | व्याख्याने प्रार्थनां चक्रुः, श्राद्धा जातिबहिष्कृताः । पतिताः स्म महाराज !, महादुःखैकसागरे ॥ ३७० ॥
व्यतीयुर्बहुवर्षाणि दीनानस्मांस्त्वमुद्धर । तदैव गुरुणा पृष्टास्तेऽप्यवोचन्निजां कथाम् ||३७१९ ॥
पुरा कश्चिद्धनी श्रेष्ठी, रत्नपुर्यां निजाङ्गजाम् । दातुं करोति वाग्दानं, तद्भार्यापि गृहे तथा ॥ ३७२ ॥
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। सीतामऊपुरस्थेनै-केनेभ्येन सहाऽकरोत् । ततो वृत्तान्तबुद्धेऽपि, समये वरराजको ॥३७३ ॥ जन्यैः सार्धं समायातौ, सज्जीभूय मुदा च तो। परिणेतुं विवादोऽभू-दहमेवेति जल्पतोः ॥३७४॥
श्रीसंघके अत्याग्रहसे १९६२ का चातुर्मास गुरुमहाराजने खाचरोद किया। वाचकवृन्द ! इस चातुर्मासमें गाँव चीरोला निवासी जातिच्युत श्रावक लोक गुरुमहाराजको व्याख्यानमें इस तरह अर्ज करने लगे कि-महाराज ! हम लोक महादुःख रूपी समुद्र में पड़े हुए हैं ॥३६९-३७०॥ आज उस बातको बहुत वरस बीतगये अतः हम दीनोंका आप उद्धार करावें । उसी वक्त गुरूजीके पूछने पर वे भी अपनी कुलबीती कथाको कहते हुए ॥ ३७१ ।। पहिले किसी धनाढय सेठने अपनी लड़कीको देनेके लिये रतलाममें सादी की। इधर घर पर उसकी स्त्रीने भी सीतामऊनिवासी एक सेठके साथ सगपन की बात निश्चय करली । बाद यह कुल वृत्तान्त जानते बूझते भी विवाह के मौके पर वे दोनों वर विवाहकी कुल तैयारी कर जान लेकर आए । अब मैं ही परणूंगा एसा परस्परमें बोलते हुए उन दोनोंमें व्याहनेके लिये वादविवाद होने लगा ॥ ३७४ ।। कन्यामेकां समुद्रोढुं, द्वौ वरौ समुपस्थितौ । तदीक्षितुमनेकेऽत्र, कौतुकार्थिन आययुः ॥ ३७५ ।।
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। अथान्ते पञ्चलोकास्तु, सत्यनीतिविदांवराः । इत्थं न्यायं प्रचक्रुस्ते, प्रमाणं मात्रिकं वचः ॥३७६॥ यतः पुत्री तु मातुश्चै-वाधिकारे प्रवर्तिनी। तथा शास्त्रेषु पुत्र्यास्तु, मात्रङ्गानि विशेषतः ॥३७७॥ इति नीत्यात्र यः सीता-मऊस्थो वरराजकः । कन्यापतिस्तु विज्ञेयः, सज्जनैः सत्यसाक्षिभिः॥३७८॥ सीतामउनिवास्येव, परिणिन्ये हि तां वरः। रत्नपुर्यास्तु मालिन्यं, व्यवहारे तदाऽजनि ॥३७९॥
एक कन्याको व्याहनेके लिये दो वर उपस्थित हुए हैं, इस वृत्तान्तको देखने वास्ते आसपासके अनेक कौतुकार्थी लोक आए ।। ३७५ ।। तदनन्तर सच्चे न्यायके जानकार निष्पक्षपाती पंच लोकोंने इस प्रकार का न्याय किया कि माता संवन्धी सगपनका वचन प्रमाण है ॥३७६।। क्योंकिलड़की माताके ही अधिकारमें वर्त्तने वाली होती है । शास्त्रों में भी लिखा है कि-पुत्री के शरीरमें ज्यादेतर माताके ही अंग होते हैं ॥३७७। इस न्यायसे सीतामऊका वर कन्या का पति हो सकता है ऐसी सत्य बातकी साक्षी सज्जन लोकोंको जानना चाहिये ।। ३७८ ।। इस कारण सीतामऊ निवासी वरने ही उस कन्याको व्याही । उस वक्त रतलाम वालोंके व्यवहारमें जरूर मलीनता पहुँची ॥ ३७९ ॥
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
१००
श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
तेनैकीभूय ते लोकाः, शिलालेखं विधाय वै । पट्टग्रामाद् बहिश्चक - श्रीरोलाग्रामवासिनः || ३८० || पुरा लक्षप्रदानेऽपि, रतलामनिवासिनाम् | विग्रहो नाशमत्किन्तु, कृते चैवमनेकशः ॥ ३८१ ॥ सार्धद्वयशताब्दानि, चाद्यावधि गतानि भोः ! । एवमेतत्कथां श्रुत्वा, दयालीनोऽभवद् गुरुः || ३८२ ॥ द्रुतं भावदयोत्पन्ना, निःस्वार्थैव तदात्मनि । येन केनाप्युपायेन, ह्येषामुपकरोमि वै
11 363 11
यतः - "पद्माकरं दिनकरो विकचीकरोति, चन्द्रो विकासयति कैरवचक्रवालम् | नाभ्यर्थितो जलधरोऽपि जलं ददाति । सन्तः स्वयं परहिते सुकृताभियोगाः ॥ ३८४||
उस कारण रतलाम के पंचलोक एकत्रित हो एक शिला ऊपर लेख लिखकर पाट गाँव की वजहसे रतलाम संघने चीरोला गाँव के संघको जाति बाहर कर दिया || ३८० ॥ उसके बाद रतलाम संघको लाखों रुपये देने पर भी वह झगड़ा शान्त नहीं हुआ और इस प्रकार एक वार ही नहीं, किन्तु अनेक वार प्रपंच होने पर भी कलह नहीं मिट सका || ३८१ ॥ गुरुदेव ! उस बातक आज तक ढाई सौ ऊपर वरस बीत गये । इस मुजब चीरोला संघकी कथाको सुनकर गुरुराज दयामें लयलीन हो गए || ३८२ ।। और शीघ्र ही उनकी आत्मा में
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।
१०१ एकदम निःस्वार्थ भावदया पैदा हुई। मैं ज्यों बने त्यों हरकिसी उपायसे इनका उपकार करूं तो अच्छा ॥ ३८३ ॥ नीतिमें भी कहा है-सूरज कमलोंके समूहको विकस्वरं करता है, चन्द्रमा कुमुदके गणको प्रफुल्लित करता है, और किसीसे प्रार्थना नहीं किया गया मेघ भी समय २ पर जल वरसाता है, एवं उत्तम पुरुष भी दूसरोंके शुभ करने में अतिशय उद्यम वाले होते हैं ।। ३८४ ॥
३४-गुरूपदेशतदुद्धारो, नवकारोपधानं चतथाऽन्येऽपि बहुश्राद्धाः, करुणारसकर्षिताः। तादृशीं प्रार्थनां चक्रु-रेतेषां जातिमेलने ॥ ३८५ ॥ यतो धर्मशास्त्रेऽप्येवं जीवानामुपदेशः“सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोद,
क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् मध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ,
सदा ममात्मा विदधातु देव! ॥ ३८६ ॥ परहितचिन्ता मैत्री, परदुःखनिवारिणी तथा करुणा । परसुग्खतुष्टिर्मुदिता, परदोषोपेक्षणमुपेक्षा” ॥३८७।।
तथा करुणा रूप रससे खींचे हुए बहुतसे दूसरे श्रावकोंने भी इनको न्यातिमें मिलाने के लिये उसी प्रकार गुरुमहाराजसे अर्ज की ॥ ३८५ ॥ क्योंकि धर्मशास्त्रमें भी
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०२
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। जीवोंको इस प्रकार उपदेश दिया है-सब जीवोंके ऊपर मित्र भाव, गुणी जनों पर अति हर्ष, दुःखी जीवों पर दयाका परिणाम, और विपरीत आचरण होने पर समभाव रखना, हे जिनेश्वर देव ! मेरी आत्मा इन चारों भावनाओंको सदा धारण करो ॥३८६॥ दूसरोंकी हित चाहना उसे मैत्री, अन्यों के दुःखों को हटाना उसे करुणा, पराये सुखोंको देखकर आत्मा सन्तुष्ट हो उसे मुदिता (प्रमोद), और अन्योंके दोषों को देखकर समभाव रखना उसको उपेक्षा कहते हैं ॥३८७।। ददे संघं तदैवोप-देशं सर्वमनोगमम् । सपादैकदयावद्भि-र्नेतव्या दण्डनं विना ।। ३८८ ।। प्रदर्शितो महालाभ-श्चैतेषां जातिमेलने । गुर्वादेयगिरा शीघ्रं, तेऽप्यङ्गीचक्रुरादरात् ॥ ३८९ । गुरुवाक्यानुसारेण, प्रतिग्रामपुरादरम् । संघाक्षराणि चाऽऽनीया-ऽदीश गुरवे मुदा ।३९० । गुर्वादेशात्ततः सर्व-संघसम्मतिभिः सह । तद्धस्तैः सर्वसंधेभ्यो, दापिता शर्करा वरा ।। ३९१ ।। पश्चलोकेषु वार्ताऽभूत् , कोऽथैतान् पूर्वमाशयेत् । कावडियाकुलोत्पन्नो, नन्दरामस्तदाऽवदत् ॥३९२॥
उस समय गुरुने सबके मनमें जच जावे ऐसा संघको उपदेश दिया । सवा विश्वाकी दया पालने वाले श्रीसंघको
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
१०३
दण्डके बिना ही चीरोला संघको जातिमें ले लेना चाहिये ॥ ३८८ ॥ इनको जातिमें सामिल करनेके वास्ते बड़ा ही लाभ दिखाया । गुरुकी अंगीकरणीय वाणी होनेसे संघने भी आदर पूर्वक शीघ्र ही स्वीकार किया || ३८९ || गुरु वचनों के अनुसार प्रत्येक गाँव व नगरसे संघ के हस्ताक्षर जल्दी लाकर सहर्ष गुरुको दिखलाए || ३९० || बाद सर्व संघकी सम्मति के साथ गुरूकी आज्ञासे चीरोला वालोंके हाथोंसे सभी खाचरोद संघको उत्तम मिश्री दिलवादी ।। ३९१ ॥ तदनन्तर पंच लोकों में यह बात उठी कि शुरूमें अपने घर पर इनको कौन जिमायगा ? उसी वक्त कावड़ियानन्दराम बोला || ३९२ ।।
भोजयिष्याम्यहं सर्वान्, चुन्नीलालोऽप्यवक् तथा । मृणोतकुलविख्यात - स्तेऽमृभ्यामित्थमाशिताः ॥ अथ संघोsपि तैः साकं, जात्याचारं व्यवाहरत् । ततस्तेऽपि निजे ग्रामे, संघमाकार्य सर्वतः ॥ ३९४ ॥ देवगुवः समं भक्त्या, चाऽष्टाहिक महामहैः । श्रीसंघायाऽखिलं दत्त्वा, गमागमव्ययादिकम् । ३९५| आष्टाहीं चक्रिरे भक्ति, विविधैर्भोजनादिकैः । श्रीफलादिसुवस्तुभ्यः, सत्कृत्य व्यसृजन्नमुम् ॥३९६॥ ईदृशा गुरवस्ते के ?, दुष्कर कार्यकारकाः । महाश्चर्यं तदा मत्वा-त्रानेके ठक्कुरादयः ||३९७||
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । __सबसे पहले इन सबको मैं जिमाऊंगा, मृणोत कुलमें प्रसिद्ध चुन्नीलालजी भी इसी प्रकार बोले, इन दो जनोंने अपने घर पर उन्हें जिमाए । ३९३ ॥ उसके बाद संघने भी उन लोकोंके साथ जातीय संबन्धी सादी आदि कुल व्यवहार शुरू कर दिया । बाद उन लोगोंने भी सभी गाँवोंके संघको बुलाकर देवगुरुओंकी भक्ति पूर्वक आठ दिन महोत्सवोंके साथ संघके लिये आने जाने आदिका कुल खर्चा देकर अनेक प्रकारके भोजन आदिकोंसे आठ दिन तक अतीव भक्ति की । फिर अन्तमें श्रीफलादिक शुभ वस्तुओंसे सत्कार कर श्रीसंघको विदा किया ।। ३९४-३९६ ।। इस प्रकारके कठिन कार्य करने वाले वे गुरू कौन हैं ? ऐसा महान् आश्चर्य मानकर यहाँ अनेक ठाकुर आदि बड़े बड़े लोक ॥ ३९७ ॥ तदगुरोर्दर्शनार्थं च, हृष्टाः सन्तः समाययुः । दर्श दर्श शुभाचार्य, गृहीत्वा नियमान् गताः॥३९८॥ इत्थंकारेण ते सर्वे, जातिगङ्गासुपाविताः । मेनिरे गुरुवर्यस्य, यावजीवोपकारिताम् ॥ ३९९ ॥ सुकार्येणाऽमुना लोके, तेन लेभे महद्यशः । प्रागपि ग्रहणे जाता-वेतेषां साधुपुङ्गवाः ॥ ४०० ॥ तथा श्राद्धास्त्वने केऽपि, प्रायतन्त यथामति । नैवाऽलब्ध परं तेषां, सौभाग्यमपि कञ्चन ॥ ४०१॥
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
१०५
भवव्याख्यानशक्तिस्तु, स्तुत्याऽपूर्वा वशङ्करी । अतश्चेदृशकार्याणि कारितानि बहूनि भोः ! ||४०२ || अत्राssसीञ्जातिभेदोऽपि तं भङ्क्त्वैकीकृतोऽमुना । नवकारोपधानं च, विध्यानन्देन कारितम् ॥ ४०३ ॥
खुशी होते हुए गुरुदेव के दर्शनार्थ आए । उन पवित्र आचार्यको देख देखकर सहर्ष अनेक नियमोंको ग्रहण कर अपने २ स्थान पर गए || ३९८ ।। इस तरह गुरुदेवने चीरोला वासियोंको जाति रूप गंगा में प्रवेश कराकर अच्छी तरह पवित्र करादिये । अतएव वे सभी आजीवन पर्यन्त गुरुवर्यका महोपकार मानने लगे । ३९९ ।। इस शुभ कार्यसे गुरुने लोक में महान यश प्राप्त किया । पहले भी अनेक उत्तम साधुओंने एवं श्रावकोंने इन लोगोंको न्यातिमें लेने के वास्ते अपनी २ मत्यनुसार प्रयत्न किया था, लेकिन उनके अन्दर किसीको भी सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ । ४०० || ॥। ४०१ ।। आपश्रीकी व्याख्यान शक्ति तो लोगोंको वश करने वाली, अद्वितीय प्रशंसा के योग्य ही थी, अतः भो वाचकवृन्द ! इस तरहके अनेक शुभ कार्य कराये ॥ ४०२ ॥ यहाँ न्यातिमें वैमनस्य भी था उसको तोड़कर गुरुदेवने संघ में सम्प कराया और सविधि आनन्द पूर्वक नवकारका उपधान भी कराया ॥ ४०३ ||
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०६
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
३५-- प्रश्नोत्तराणि, मक्षीतीर्थ- संघनिर्गमश्च
प्राज्ञोऽत्र गुरुमप्राक्षीन्, महेता - पन्नालालकः । परीषहोदयः कः स्यादुदये कस्य कर्मणः ॥ ४०४ ॥
दर्शनमोहनीयेन, दर्शनस्य परीषहः ।
ज्ञानावरणतः स्यातां प्रज्ञाऽज्ञाने परीषहौ ॥ ४०५ ॥
5
विघ्नकर्मोदयेऽलाभ-श्चैवं चारित्रमोहकात् । आक्रोशाsरतिसत्कार - ललनाऽचेलयाचनाः । ४०६ ॥ नैषेधिकी च सप्तैते, वेदनीयात्वमी मताः । चर्याशय्यातृणस्पर्श-क्षुत्पिपासावधाऽऽमयाः || ४०७|| शीतोष्णमलदशास्तु, रुद्राः श्राद्ध ! परीषहाः । शिवार्थिभिः सुनिर्ग्रन्थैः, सोढव्याः कर्कशा मुदा ॥
फिर खाचरोदके चौमासेमें सुविचक्षण प्रज्ञाचक्षु श्रावकवर्य महेता - पन्नालालजी के गुरूसे पूछे हुए प्रश्नोत्तर लिखते हैं - किस कर्मका उदय होने पर कौन परीषह उदय होता है ? ॥ ४०४ ॥ दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे दर्शन - सम्यक्त्वका १ परीषह उदय होता है। ज्ञानावरणी कर्मके उदय आने पर ज्ञान २ और अज्ञान ३ ये दो परीपह होते हैं ॥ ४०५ || अन्तराय कर्मके जोर से यथेष्ट लाभ ४ नहीं होता, एवं चारित्रमोहनी के उदय से आक्रोश ५ अरति ६ सत्कार ७ स्त्री ८ अचेल ९ याचना १० और नैषेधिकी ११ ये सात
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।
१०७ परिसह होते हैं । वेदनीय कर्मके उदयसे चर्या १२ शय्या १३ तृणस्पर्श १४ क्षुधा १५ पिपासा १६ वध १७ रोग १८ शीत १९ उष्ण २० मल २१ और दंश [ डांश ] ये कठिन भयंकर २२ परीषह उदय आने पर मोक्षार्थी निर्ग्रन्थ साधुओंको सहर्ष सहने चाहिये ॥ ४०६-४०८ ॥ दया सपादविश्वा च, सुश्राद्धानां कथं भवेत् ? । सूक्ष्मस्थूला द्विधा जीवा, सूक्ष्मरक्षा भवेन्नहि ।।४०९॥ हिंसाऽऽरंभे न कल्पात्तु, सापराधे न चापरे । तेषां हिंसा च सापेक्षा, निरपेक्षा कचिन्नहि ॥४१०॥
सुगुरो! श्रावकोंके सवा विश्वाकी दया कैसे होती है ? उत्तर-सुश्रावक ! संसारमें पृथिवीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, ये ५ स्थावर जीव और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय ये ४ त्रस जीव एवं ९ प्रकारके जीव हैं, इन्हें सर्वथा नहीं मारने वाले मुनिराजोंके ही इनकी संपूर्ण २० विश्वाकी दया पल सकती है । श्रावक लोग त्रस जीवोंको नहीं मारते हैं, परन्तु घर हाट हवेली आदिकोंके आरंभ समारंभ करते कराते समय स्थावर जीवोंका जरूर यत्न करें परन्तु त्रस-स्थावर जीवोंकी सर्वथा दया नहीं पाल सकते, इस लिये साधुओंकी अपेक्षा गृहस्थोंके १० विश्वाकी दया बाँकी रही । स्थूल जीवोंको संकल्पसे याने ' इस जीवको मार दूं' ऐसी बुद्धिसे नहीं मारते हैं, लेकिन आरंभ समारंभ
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
.१०८ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। करते कराते समय मरें तो उनकी यतना (छूट) है, इससे ५ विश्वाकी दया बाँकी रही, उसमें भी निरपराधीको नहीं मारें और सापराधीके लिये यतना है, इससे ढाई विश्वा ही दया बाँकी रही । सापराधीको भी निरपेक्षा-विना प्रयोजनसे नहीं मारे याने सापेक्ष-प्रयोजनसे यतना है. इस कारण सवा विश्वाकी दया ही श्रावकोंके पालना संभव हो सकती है॥ ४०९ ॥ ४१०॥ श्राद्वानां स्वामिवात्सल्यं, कुतश्चोक्तं दयानिधे !। सुश्राद्ध ! भगवत्यङ्गे,श्राद्धैः शंखादिभिः कृतम् ।४११॥ साधर्मिक-तद्वात्सल्ययोर्माहात्म्यं शास्त्रेऽप्युक्तम्सर्वैः सर्वे मिथः सर्व-संबन्धा लब्धपूर्विणः। साधर्मिकादिसंबन्ध-लब्धारस्तु मिताः कचित् ।।१२। न कयं दीणुद्धरणं, न कयं साहम्मिआण वच्छल्लं । हियम्मि वीयराओ, न धारिओ हारिओ जम्मो।४१३।
भो दयानिधे गुरो ! श्रावकोंके साधर्मिकवात्सल्य करनेका अधिकार कहाँ कहा है ? उत्तर-हे सुश्राद्ध ! पंचमाङ्गभगवती सूत्र में शंखजी आदि सुश्रावकोंने साधर्मिकवात्सल्य
१-तएणं से संखे समणोवासए ते समणोवासए य एवं वयासी--तुझेणं देवाणुप्पिया ! विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेह, तएणं अम्हे तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०९
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। किया है ॥ ४११॥ फिर साधर्मिकवात्सल्यका उत्तम प्रभाव अन्य शास्त्र में भी कहा है--सब जीवोंके परस्परमें माता पिता आदि सब प्रकारके संबन्ध पहिले अनेक वार मिलचुके हैं। लेकिन साधर्मिक, साधर्मिकवात्सल्य आदिके संबन्ध तो कहीं प्रमाणबन्ध ही मिलते हैं ॥ ४१२ ॥ जिसने दीन जनोंका उद्धार नहीं किया, साधर्मिकोंके लिये साधर्मिकवात्सल्य नहीं किया, और हृदयके अन्दर वीतराग भगवानको धारण नहीं किया तो उसने अपना नर जन्म निष्फल ही खोदिया ऐसा समझें ।। ४१३ ॥ अन्यदा विहरन्नागात् , खाचरोदपुरं गुरुः । गुरुवाण्यात्र जातानि, धर्मकार्याण्यनेकतः ॥ ४१४ ।। श्रेष्ठिना तीर्थयात्राया-स्तदा श्रुत्वा महत्फलम् । मूणोत-चुनिलालेन, संघो निर्यापितो मुदा ॥४१५॥ तिथिशिष्यश्च सोऽप्यासी-द्विज्ञप्त्या श्रेष्ठिनोऽस्य भोः! स्थाने स्थाने ददव्या-नुपदेशं सुमञ्जुलम् ॥४१६॥ प्रीत्यासौ विधिनाऽगच्छ-त्तत्सर्वं हि सुभोजयन् । मगसीपार्श्वनाथस्य, यात्राऽऽनन्देन कारिता ॥३१॥ ' आसाएमाणा-ईषत्स्वादयन्तो बहु च त्यजन्तः इक्षुखण्डादेरिव' 'विस्लाएमाणा-विशेषेण स्वादयन्तोऽल्पमेव त्यजन्तः' खजूरादेरिव परि जेमाणा-सर्वमुपभुञ्जाना अल्पमप्यपरित्यजन्तः' 'परिभाएमाणा-ददतः' पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणा विहरिस्सामो ॥ भग० १२ श० १ उ० ॥
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्र गुणमञ्जरी । हस्तनिधिभूवर्षे, मधुकृष्णे सुदिकतिथौ । संघभक्तिजिनार्चादौ, वीयाय बहुलं धनम् ॥ ४९८ ॥ तीर्थयात्रां महानन्दैः, कृत्वैत्येभ्यः स्वपत्तनम् । संघभक्त्यादिकं चक्रे, मेने स्वं फलवज्जनुः || ४१९ ||
११०
एक समय गुरुजी विचरते हुए खाचरोद नगर पधारे, वहाँ गुरूके उपदेश से अनेक धर्मके कार्य हुए ॥ ४१४ ॥ उसमें मृणोत - चुन्नीलाल सेठने बड़ा भारी तीर्थयात्राका लाभ सुनकर अति हर्षसे मक्षी - तीर्थका संघ निकाला ॥ ४१५ ॥ वाचकगण ! इस संघ में सेठकी अर्जसे १५ शिष्यों युक्त गुरुमहाराज स्थान स्थान पर भव्यजीवोंको सुन्दर उपदेश देते हुए अतीव शोभते थे ।। ४१६ ।। यह संघ शास्त्रोक्त - विधिसे यात्रामें चलता था, अतः प्रीतिके साथ उन सभीको अपनी ओरसे अच्छी तरह भोजन जिमाते हुए क्रमसे आनन्द पूर्वक सेठने श्री मगसी - पार्श्वनाथजी की यात्रा कराई ||४१७|| संवत् १९६२ चैत्र वदि दशमीके रोज संघभक्ति में एवं जिनेश्वरकी पूजा आदि शुभ कृत्योंमें सेठने बहुत द्रव्य व्यय किया ।। ४१८ ।। इस प्रकार बड़े ही आनन्दसे तीर्थयात्रा कर और अपने नगर आकर सेठने साधर्मिक वात्सल्य आदि शुभ कार्य किये, बाद गुरुकृपासे अपना जन्म सफल मानने लगा ।। ४१९ ।।
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्र गुणमञ्जरी ।
३६ -- सर्व चातुर्मासास्तेषु धर्मवृद्धिश्च --
स्तुत्यानि धर्मकार्याणि, श्रीवडनगरेऽन्तिमम् । महानन्देन चाऽभूवन्, संघो वन्दितुमाययौ ॥४२०|| अथैकोनचत्वारिंश- चतुर्मासीषु जज्ञिरे । क्रियोद्धृतौ च जातायां, सत्कार्याष्टाहिकादयः ॥ ४२१ ॥ व्यायन् बहूनि रूप्याणि, धर्मक्षेत्रेषु सप्तसु । जाताश्चास्योपदेशेन, श्राद्धीश्राद्धाः सहस्रशः ॥४२२॥ मार्गानुगुण - सम्यक्त्व, - द्वादशव्रतधारिणः । अदयाऽसत्यचौर्याणां व्यवाय-धनलिप्सयोः ॥४२३॥ नियमा ग्राहितास्तेन, चाऽन्येषां नैशिकाशनम् । पालयन्ति सुयत्नैस्ते - ऽप्यद्यावधि सुभावतः ॥४२४|| यतः - संसारेऽत्र यथा सद्भि-गृहीतानि व्रतानि वै । तथैव पालनीयानि, कतिचारादिकं विना ॥ ४२५ ॥
१११
उसके बाद सं० १९६३ का अन्तिम चौमासा शहर 'बड़नगर ' मालवा में हुआ, इसमें आनन्द पूर्वक प्रशंसनीय अनेक धर्मके कार्य हुए और पर गाँवोंके संघ भी गुरुको वाँदने के लिये आए || ४२० || आपश्रीके क्रियोद्धार करनेके बाद ३९ उनचालीस चातुर्मास हुए। उन सभी चौमासाओं में अष्टाहिक महोत्सव आदि अनेक उत्तम कार्य हुए ॥ ४२१ ॥ धर्मके सात क्षेत्रों में संघकी ओरसे बहुत ही रुपये व्यय किये
6
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
११२
श्रीराजेन्द्रगुणमअरी। गये और गुरुदेवके उपदेशसे हजारों श्रावक श्राविकाएँ हुई ।। ४२२ ॥ उनमें कईएक श्रावक मार्गानुसारी, शुद्ध सम्यक्त्वधारी और द्वादश-व्रतधारी भी हुए। कितनेक जीवोंको हिंसा नहीं करना, झूठ नहीं बोलना, चौरी नहीं करना, परस्त्रीकी संगति नहीं करना, धनका परिमाण करना और कईयोंको रात्रिमें भोजन नहीं करना, इत्यादिक गुरूजीने नियम ग्रहण कराये । सो वे आज पर्यन्त बड़े ही यत्नोंके साथ उत्तम भावसे लिये हुए व्रत नियमादिकों को पालन कर रहे हैं । क्योंकि-इस संसारमें जैसे उत्तम पुरुषोंने शुद्ध मनसे व्रत ग्रहण किये हैं तो उन्हें वैसे ही अतिचारादिक दोष लगाये विना पालना चाहिये ॥ ४२३-४२५ ॥ अभूवन् यत्यवस्थायां, चतुर्मास्यः क्रमादिमाः । विकटे मेदपाटेऽस्मि-नाकोलाख्ये पुरे वरे ॥ ४२६ ।। इन्द्रपु- मुदा चैव-मुजयिन्यां दसोरके। उदयेऽपि पुरे वर्ये, नागौरे जैसले पुरे ॥४२७ ॥ पाल्यां योधपुरे ख्याते, श्रीकृष्णगढनामनि । चित्तोरे सोजते शंभु-गढे विक्रमपत्तने ॥ ४२८ ॥ __आपके यति अवस्थामें लिखित क्रमसे इक्कीस चातुर्मास हुए-संवत् १९०४ का चौमासा इस दुर्गम मेवाड़ देशस्थ नगर ‘आकोला' में हुआ, १९०५ का सहर्ष इन्दौर में, १९०६ उज्जैनमें, १९०७ मन्दसोरमें, १९०८ उदयपुरमें,
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।
११३ १९०९ नागौरमें, १९१० जैसलमेरमें, १९११ पालीमें, १९१२ प्रसिद्ध शहर जोधपुरमें, १९१३ किसनगढ़में, १९१४ चितोड़गढ़में, १९१५ सोजतमें, १९१६ शंभुगढ़में, १९१७ बीकानेरमें ।। ४२६-४२८ ॥ सादाँ च भिलाडाख्ये, रत्नपुर्यजमेरयोः । जालोरे च वरे घाणे-रावे श्रीजावरापुरे ॥४२९ ॥ तथैवं साध्ववस्थायां, खाचरोदपुरे वरे । रत्नपुर्यां च कूकस्यां, मञ्जौ राजगढे पुरे ॥४३० ।। रत्नपुर्जावराऽऽहोर-जालोर-राजदुर्गके । रत्नपुर्यां च श्रीमाले, शिवगंजे पुरे ततः ॥ ४३१ ।। आलीराजपुरे कुक्ष्यां, श्रेष्ठे राजगढे पुरे । श्राद्धायुतेऽमदावादे, धोराजीवरपत्तने ॥४३२ ॥ श्रीधानेरा-थिरापद्र-वीरमग्रामकेषु वै। सियाणाख्ये गुडाग्रामे, चाऽऽहोरे सर्वसुन्दरे ॥४३३।।
१९१८ सादरीमें, १९१९ भिलाड़ामें, १९२० रतलाममें, १९२१ अजमेरमें, १९२२ जालोरमें, १९२३ घाणेरावमें, १९२४ जावरामें हुआ। तैसे ही साधु अवस्थामें १९२५ खाचरोदमें, १९२६ रतलाममें, १९२७ कूकसीमें, १९२८ राजगढ़में, १९२९ रतलाममें, १९३० जावरामें, १९३१-३२ आहोरमें, १९३३ जालोरमें, १९३४ राजगढ़में, १९३५
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
११४ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।। रतलाममें, १९३६ भीनमालमें, १९३७ शिवगंजमें, १९३८ आलीराजपुरमें, १९३९ कूकसीमें, १९४० राजगढ़में, १९४१ दश हजार जैनकी वसतिवाले शहर. अहमदावादमें, १९४२ धोराजीमें, १९४३ धानेरामें, १९४४ थरादमें, १९४५ वीरमगाममें, १९४६ सियाणामें, १९४७ बालोतराके गुड़ामें, १९४८ सबसे सुन्दर-आहोरमें ॥ ४२९-४३३ ।। निम्बाहेडापुरे चारो, खाचरोदे सदोत्तमे । ख्याते राजगढे रम्ये, पट्टीये जावरापुरि ॥४३४ ॥ रत्नपुर्यां तथाऽऽहोरे, शिवगंजे सियाणके । आहोरे पुरजालोरे, सूरते कूकसीपुरे ॥४३५ ।। खाचरोदे पुरश्रेष्टे, श्रीवडनगरेऽन्तिमम् । एता जाताश्चतुर्मास्यो, गुरुराजक्रियोद्धृतौ ॥ ४३६ ॥ चतुर्मासीष्वनेनाऽऽसु, सद्धर्माभिमुखीकृताः । जीवा धर्मोपदेशैश्च, भवजन्मादिभीरवः ॥ ४३७ ॥
१९४९ निम्बाहेड़ामें १९५० खाचरोदमें, १९५१-५२ प्रख्यात रमणीय राजगढ़में, १९५३ सुन्दर शहर जावरामें, १९५४ रत्नपुरी-रतलाममें, १९५५ आहोरमें, १९५६ शिवगंजमें, १९५७ सियाणामें, १९५८ आहोरमें, १९५९ गढ़ जालोरमें, १९६० सूरतमें, १९६१ कूकसीमें, १९६२ खाचरोदमें और १९६३ अन्तिम चौमासा वड़नगरमें, इतने चौमासे गुरुराजके क्रियोद्धार करने बाद हुए । आपश्रीने धर्मोपदेश
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।
११५ द्वारा इन चातुर्मासोंमें संसारमें जन्म मरण आदिसे डरनेवाले सैंकड़ों जीवोंको उत्तम जैनधर्मके सन्मुख किये । ॥ ४३१-४३७॥
३७-गुरोर्धर्मकृत्यादिसदाचरणानिआसीत्ख्यातिगुरोरस्य, विद्वत्ताऽखिलभारते । नो विदन्ति भवन्तं के ?, वर्याचार्यगुणोदधिम् ॥४३८॥ साञ्जनाः सुप्रतिष्ठास्तु, पूर्णज्योतिषविद्यया । मुहर्ते भवता दत्ते, कृता आनन्दतामदुः ॥ ४३९ ॥ संघीभूतसहस्रेषु, लोकेषु तास्वनेकशः। परं मस्तकपीडापि, नो कस्यापि समुत्थिता ॥ ४४०।। स्थापना ज्ञानकोषाणां, तपस्योद्यापनान्यपि । विघ्नशान्तिकरी पूजा, जीर्णोद्धारास्तु भूरिशः॥४४१।। तीर्थसंघादिकार्याणि, जातीयैकत्रमेलनम् । गुरूणामुपदेशेना-ऽभूवञ्छतसहस्रशः ॥४४२ ।। इत्थं सद्धर्मकार्येषु, रूप्याणां कतिलक्षशः। श्रीसंघेन च सद्बुद्ध्या,कारितानि व्ययानि वै ॥४४३॥
फिर गुरुमहाराजकी विद्वत्ता सारे हिन्दुस्थान में प्रसिद्ध थी। श्रेष्ठ आचार्यगुणों के सागर आपको कौन नहीं जानते हैं ? अर्थात् आपसे प्रायः सभी परिचित हैं ॥ ४३८ ॥
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
११६
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । संपूर्ण ज्योतिषविद्याके बलसे आपके दिये हुए मुहूर्तमें अञ्जनशलाका और प्रतिष्ठाएं की हुई आनन्द को ही देनेवाली हुई ॥ ४३९ ।। उनमें अनेक वार हजारों लोकोंके एकत्र होनेपर भी किसीके शिर दुखने मात्र की भी बाधा पैदा न हुई ॥ ४४० ॥ फिर अनेक ज्ञानभण्डारोंकी स्थापना, तपोंके उद्यापन, अष्टोत्तरी-शान्तिस्नात्र पूजा और अनेक जिनमंदिरादिकोंके जीर्णोद्धार भी हुए ॥ ४४१ ॥ जातिमें सम्प कराना, तीर्थसंघ आदि जैसे उत्तम २ कार्य गुरुमहाराजके उपदेशसे सैंकड़ों क्या वल्कि हजारों हुए ॥ ४४२ । इस प्रकार धर्म-कार्योंमें कई लाख रुपये श्रीसंघ द्वारा गुरुजीके सदुपदेशसे व्यय किये गये ॥ ४४३ ॥ पूज्योऽयं साधुचर्यासु, कटिबद्धोऽभवत्सदा । जानन्त्याबालवृद्धास्तु, तत्स्वरूपं सुमूलतः ॥ ४४४॥ ज्यायस्यामप्यवस्थायां, स्वीयोपकरणान्यपि । शिष्यैरवाहयन्नित्य-मुवाह स्वयमेव सः ॥ ४४५ ॥ शिथिलाचारसङ्गन्तु, नैच्छत्स्वप्ने कदाप्यसौ । अर्हच्छुद्धोपदेशं वै, लोकेभ्योऽदात्सुबोधिदम् ॥४४६।। सत्यज्ञानक्रियाऽऽड्यस्य, सर्वत्रोत्कर्षतैधत । याममात्रं रजन्यां स, निदद्रौ नहि वासरे ॥४४७।। स्वात्मीयगुणदस्यो, भीतिहेतोश्च योनिषु । मस्तकन्तु प्रमादारे-रामूलाच्छीघ्रमच्छिनत् ।।४४८॥
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । आगमार्थविमर्श च, साधूनां तत्प्रपाठने। निमग्नो धर्मचर्चायां, रात्रौ ध्याने विशेषतः ॥४४९॥ निःसन्देहं स्फुटं साक्षात्, सत्यरूपैः समन्वितम् । यस्माद् ध्यानप्रभावाद्य-स्त्रकालिकमलोकत ॥४५०।।
ये पूज्यवर्य साघुकी कुल क्रियाओंके पालन करने में सदैव कटिबद्ध रहते थे। संसारमें बालसे लेकर वृद्ध तक सभी आमूलसे उनके स्वरूपको जानते हैं ।। ४४४ ॥ अतीव वृद्धावस्था होने पर भी आप अपने उपकरणोंको शिष्योंसे नहीं उठवाते थे, किन्तु हमेशा खुद ही उठाते थे ।। ४४५॥ क्रियोद्धार किये बाद आपने शिथिलाचारोंका प्रसंग तो कभी स्वममें भी मनसे नहीं चाहा और लोगों के लिये जिनेश्वरदेवके शुद्ध मार्गका उपदेश दिया।।४४६ ।। सत्य ज्ञान और क्रियायुक्त आपश्रीकी सब जगह उत्कृष्ट क्रियापात्रता फैल गई। रात्रिको एक ही प्रहर निद्रा लेते थे, दिनमें तो कभी नहीं ॥ ४४७॥ ८४ लक्ष जीव-योनियोंमें भयका हेतु, आत्माके ज्ञानादि गुणोंका चौर ऐसा प्रमाद रूप शत्रुका तो आपने जड़मूलसे शीघ्र मानो मस्तक ही काट दिया था ।। ४४८ ।।
प्रायः आप दिनमें आगमोंके अर्थ विचारने और साधुओंको पढ़ानेमें, रात्रिको धर्मचर्चामें और ज्यादातर धर्मध्यानमें ही निमग्न रहते थे।४४९।। आप शुभ ध्यानके अनुभावसे सन्देह रहित सत्य स्वरूप प्रत्यक्ष साफ २ तीन कालके स्वरूपको देखते थे ॥ ४५० ।।
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
११८
श्री राजेन्द्र गुणमञ्जरी ।
३८ - गुरोर्ज्ञानध्यानोपरि सत्योपनयः -
आहोरसंघ मेषोऽवक्, प्रतिष्ठां किल साञ्जनाम् । बाणेन्द्रियन वैकाडे, वेगतः संघ । कारय ॥। ४५१ ॥ संघोsप्राक्षीत्कथं शीघ्रं, दुष्कालोऽग्रे पतिष्यति । तथासौ कारयामास, प्रोक्ताब्दे शुभभावतः ||४५२|| पबाणनन्दभूवर्षे ऽतिदुर्भिक्षं ततोऽपतत् । सत्यवाक्यं गुरोर्हष्ट्वा, सोऽस्मरत्तं मुहर्मुहुः ||४५३||
जैसे-एक समय गुरुवर्य श्रीआहोर संवको बोले कि १९५५ के सालमें ही जल्दी से साञ्जनशलाका प्रतिष्ठा करालो ।। ४५१ ।। संघने पूछा गुरो ! शीघ्रतः करानेकी क्या जरूरत ? तब गुरूजी बोले कि अगले वर्ष में बड़ा ही दुकाल पड़ेगा बाद शुभ भाव से श्रीसंघ ने कहे हुए वर्ष में ही शीघ्र साञ्जनशलाका प्रतिष्ठा गुरुदेव से करवा ली तदनन्तर १९५६ की सालमें चारों खूंट त्यन्त दुर्भिक्ष पड़ा | तब संघ गुरूके सत्य वचनको देखकर बारंबार उनको याद करने लगे || ४५३ ||
१९५५
1
भूत बाणनवैकाब्दे, गोडीपार्श्वजिनालये । यदisit पुर आहोरे, बहिश्वारौ पुरस्य वै ॥४५४॥
सुद्धवैश्च महानन्दैः, शास्त्रप्रोक्तं यथाविधि । प्रतिष्ठां साञ्जनां कृत्वा, तदन्ते चापि फाल्गुने || ४५५ ||
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। ज्ञानध्यानरतो नित्य, शिष्याणां पाठयन्मुदा। पुरस्य बहिरारामे,-ऽतिष्ठत्संघहितेच्छया ॥४५६॥ आदिनाथप्रतिष्ठायै, गत्वा जयपुरं तदा। . विज्ञप्तिं विदधे संघः, सूरये जिनमुक्तये ॥४५७॥ ज्योतिषादि महद् ज्ञानं, हेऽस्ति राजेन्द्रसूरिके । नेतव्योऽहं न युष्माभि-विरूपश्चेद् भविष्यति।।४५८।।
जब गुरुजी १९५५ फाल्गुन वदि ५ के रोज आहोर नगरके बाहर रमणीय श्रीगोड़ीपार्श्वनाथजीके मंदिरमें ॥ ४५४ ॥ महानन्द पूर्वक महोत्सबके साथ शास्त्रोक्त विधि सहित साञ्जनशलाका प्रतिष्ठा किये बाद भी फाल्गुन मासमें नगरके बाहर बगीचे में सहर्ष सदैव ज्ञान ध्यानमें निमग्न अन्तेवासियोंको पढ़ाते हुए संघकी हित चाहनासे ठहरे थे ॥ ४५५-४५६ ॥ उसी मौके पर एक तर्फ आदिनाथजीकी प्रतिष्ठाके लिये अन्य संघने जयपुर जाकर खरतरगच्छीय-श्रीजिनमुक्तिसूरिजीसे विनति की ॥ ४५७ ।। तब संघको श्रीपूज्यजी बोले कि श्रीविजयराजेन्द्रसूरिजीको ज्योतिष आदिका बड़ा ही प्रबल ज्ञान है। अतः तुमको मुझे, वहाँ लेजाना योग्य नहीं, यदि लेजाओगे तो बहुत अशुभ होगा ॥ ४५८ ॥ सुमुहूर्तोऽपि नैवास्ती-त्यवादीत्सत्यवाद्यसौ। संघदत्तप्रलोभेन, जानन्नपि समाययो
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२०
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। आगच्छन्नेव रुग्ग्रस्तो-ऽभवत्पूज्यः स्वकर्मणा । प्रान्तेऽद्य श्वः प्रयातासौ, स्वर्गमित्यब्रवीजनः॥४६०॥ वेदनां सहमानोऽथ, सानुतापो यतीश्वरः । अत्राकस्मानिशीथेऽय-मायुःक्षीणादिवं गतः॥४६१॥ तृतीये प्रहरे रात्रे-रुदतिष्ठद् गुरुव॑तात् । कल्याणार्थ सदा रीत्या, ध्यानं कर्तुं समुत्थितः ॥४६२॥ ध्यानं कृत्वैकयामं स, शिष्यैरावश्यकं तथा । ततः प्रोचे गुरुश्चैवं, शिष्याः ! शृणुत मद्वचः॥४६३।।
फिर वे सत्यवादी श्रीपूज्यजी बोले कि मुहूर्त भी अच्छा नहीं है । लेकिन ऐसा जानते बूझते भी संघकी ओरसे रुपयोंके अति लोभ देनेसे आखिर वे वहाँ आए ॥ ४५९ ॥ आते ही श्रीपूज्य अपने कर्मयोगसे रोग पीड़ित हो गये । आखिर ये आज कल स्वर्ग धाम जानेवाले हैं ऐसा लोक प्रतिमुखसे बोलने लगे ॥ ४६० ।। बाद श्रीपूज्यजी मैं यहाँ कहाँ से आया ? ऐसा पश्चात्ताप युक्त कष्टको सहते हुए आधी रातके समय एकदम आयुः क्षय होनेसे देवलोक चले गए ॥ ४६१ ॥ गुरुदेव नियमसे रात्रिके तीसरे प्रहरमें उठते थे। सो हमेशाकी रीति मुजब कल्याणार्थ उस दिन भी ध्यानके लिये उठे ॥ ४६२ ॥ एक प्रहर तक ध्यानकर फिर शिष्योंके साथ 'आवश्यक' क्रिया किये बाद इस प्रकार शिष्योंको बोले कि-मेरे वचन सुनो ॥ ४६३ ॥
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
अद्य ध्याने मया दृष्टः, स श्रीपूज्यो मृतस्तु वै । निशम्यैवं गुरोर्वाक्यं, संभवं नैव मेनिरे ॥ ४६४ ॥ नूत्न शिष्याः कियन्तोऽत्र, सन्देहाब्धौ किलाऽपतन् । चित्रवन्तोऽपरे तस्थु - मौनमाधाय केsपि च ॥ ४६५ || इतः प्रातः पुराच्छ्राद्ध - श्चागादस्मै निवेदितुम् । श्रीपूज्योऽस्यां रजन्यां त्व-गमत्स्वर्गंच हे प्रभो । ४६६ श्राद्धवाक्यं तथा श्रुत्वा समे ते चित्रतामगुः । अहो ! अहो !! गुरुध्यान-मपूर्वं हि कलावपि ||४६७|| पूर्वमेव यतश्वोक्तं, गुरुणा तन्महोत्सवे | भविष्यति महाहानि - स्तथैवाऽजनि निश्चितम् ४६८ हस्तिहस्तिपवन्नादेः, ठक्कुरस्यापि नाशनम् । गुरुवाक्यं न मन्यन्ते, ते भवन्त्यनुतापिनः || ४६९ ॥
१२१
आज ध्यान में मैंने गतप्राण श्रीपूज्यजीको देखा, इस प्रकार गुरुके वाक्यको सुनकर शिष्यवर्ग संभव नहीं मानते हुए ।। ४६४ || यहाँ कईएक नवीन शिष्य तो मानो सन्देह रूपी समुद्र में ही पड़ गये और दूसरे कितनेक आश्चर्यवाले मौनैकादशीव्रताराधनके समान मौन धारण कर बैठ गये || ४६७ ॥ इतनेमें प्रातः काल ही में नगरसे एक श्रावक गुरुको खबर देनेके लिये आया । हे गुरुमहाराज ! रातमें श्रीपूज्य श्रीजिनमुक्तिसूरिजी स्वर्ग चले गये । ४६६ ॥ वैसा श्रावकका वाक्य सुनकर वे सभी शिष्य अहो ! अहो !!
-
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२२
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। बड़ा ही आश्चर्य है । इस कलियुगमें गुरुजीका ध्यान एक अनुपम ही है । एसा कहकर बड़े ही आश्चर्यताको प्राप्त हुए ॥ ४६७ ।। क्योंकि-गुरुने पहिलेसे ही कहा था कि उनके महोत्सवमें मोटी २ हरकतें पड़ेंगी सो निश्चयसे वैसे ही हुई ॥४६८॥ देखो हाथी उसका महावत और वनाजी मनाजी आदिका एवं गाव धणी-ठाकुर साहबका भी, स्वर्गवास होगया। ठीक ही है जो यथार्थ गुरुके वाक्यको नहीं मानते वे अति पश्चात्तापके भाजन ही होते हैं ॥ ४६९ ।। भूयो भूयो गुरोर्ध्यानं, तुष्टुवुस्ते मुदा तदा । तदिनात्तु गुरावस्मिन् , बहुश्रद्धां दधुस्ततः ॥४७०।। गुरोश्चैवमनेकेऽत्र, भोः ! प्रभावीयसूचकाः । उत्तमाः सन्ति दृष्टान्ता, ग्रन्थवृद्धलिखामि नो। ४७१॥ नैवात्र द्वेषभावेन, चैतद् वृत्तं मयोदितम् । केवलं तु सुभव्यानां, गुरुज्ञानं प्रदर्शितम् ॥४७२॥ __उस वक्त सहर्ष वे सभी शिष्य गुरुमहाराजके ध्यानकी वारंवार स्तुति करने लगे और उस दिन से वे गुरुदेवके प्रति अतीव श्रद्धालु हुए ॥४७० ।। भो! वाचकवृन्द ! यहाँ गुरुके इस प्रकार प्रभावके जाहिर करनेवाले अनेक उत्तम २ दृष्टान्त हैं, लेकिन ग्रन्थ बढ़नेके भयसे नहीं लिखता हूँ॥ ४७१ ॥ यहाँ यह वृत्तान्त मैंने द्वेष बुद्धिसे नहीं कहा है, किन्तु
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
१२३
भव्य जीवोंको शिर्फ गुरुदेवकाअलौकिक ज्ञानगुण दिखाने के लिये कहा गया है || ४७२ ॥
३९ - गुरोरपूर्वध्यानविहारक्रियादीनामुत्कर्षतावर्तमाने तु नान्येषां केषाञ्चिद् ध्यानमीदृशम् । यत्प्रसादाद्विचित्रं च भाव्यभाविविलोकनम् । ४७३ |
वह्निज्वालां च कूकस्यां वर्षावर्षविनिर्णयम् । समलोकत जीवानां, लाभालाभसुखादिकम् ||४७४ ||
"
वर्तमान समय में प्रायः दूसरोंमें इस प्रकारका ध्यान देखने में नहीं आता । जिस ध्यानके प्रभावसे जो विचित्र होनहारअनहोनहार को देखते थे || ४७३ || जैसे कि ध्यानस्थ गुरूदेवने धारराज्य नीमारदेशस्थ कूकसीमें प्रथम से ही अग्नि लगी हुई देखी, बाद वैसा ही हुआ । जल वरसेगा या नहीं वरसेगा इनका निर्णय कई वक्त बतलाया था और प्राणियों को लाभ या अलाभ होगा, एवं सुख या दुःख होगा इत्यादि ऐसे २ भाव अनेक वार देखते थे || ४७४ ॥ इत्थं कार्यवशादुक्तं, स्वायुः साध्वादिके स्वके । अथाऽहं त्रीणि वर्षाणि, विहरिष्यामि भूतले ||४७५ ॥ वायुगत्या विहारेण, तस्याऽऽसन् चित्रिताः समे । युवा मर्त्योऽपि तत्पृष्टं, कथं गन्तुं प्रशक्नुयात् ॥४७६ ॥
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
.१२४
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
वर्षमध्ये चतुःपञ्च - शतक्रोशी विहार्यसौ । एवमन्तिमपर्यन्तं, सुखेन विचचार सः ॥ ४७७ ॥ महाशीते च कालेऽपि षडावश्यकमौषधम् | विना वस्त्रं कृतं नित्यं, निर्जरार्थं स्वकर्मणाम् ||४७८||
,
इसी प्रकार अपने साधु श्रावक आदिके सामने कार्य वश अपना आयुष्य भी बतलाया था - अब भी मैं भूमण्डल पर तीन वर्ष फिर विचरूंगा ।। ४७५ ॥ गुरुश्रीके पवन गतिके समान विहार से सभी लोग चकित होते थे । तरुण नर भी उनके पीछे चलनेके लिये किसी तरह समर्थ नहीं हो सकता था || ४७६ || गुरुदेव वर्षके अन्दर चार सौ पाँच सौ कोश अवश्य विचरते थे । इसी मुजब अन्तिम अवस्था तक सुख पूर्वक विचरते रहे || ४७७ ।। महान् कठिन शीतके समय में भी कपड़े के विना याने उघाड़े शरीर से ही अपने कर्मोको निवारण करनेके लिये दवाके समान हमेशा प्रतिक्रमण करते थे ।। ४७८ ।
कम्बलादि त्रिकं वस्त्रं, व्यधाजितपरीषहः । चतुर्हस्तमितं सार्ध - मागमोक्तप्रमाणतः ॥ ४७९ ॥ संयतं भवता चक्रे, सार्धद्वयशतं नृणाम् | भवत्क्रियातिकाठिन्यात्, किन्त्वगुस्तेऽन्यगच्छ के || सांप्रतं साधुसाध्योऽपि सन्त्यथो पञ्चसप्ततिः । पुरग्रामेषु भव्योपकाराय विहरन्ति वै ॥ ४८१ ॥
9
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। २२ परिषह जीतने वाले गुरुदेवने क्रियोद्धार किये बाद अपनी जिन्दगीमें आगमोंमें कहे हुए प्रमाणसे साढ़े चार हाथकी एक कॉबली और उतनी ही बड़ी दो चादर एवं तीन वस्त्रोंको ही ओढ़ते थे ॥ ४७९ ॥ आपने अन्दाजन ढाई सौ से भी अधिक मनुष्योंको साधु बनाये थे। लेकिन आपकी क्रिया अत्यन्त कठिन होने से उसको पालन करने की असमर्थता से बहुतसे साधु शिथिलाचारी पीतवसनधारियों और ढूंढकोंमें चले गये ॥ ४८० ॥ इस समय में भी ७५ साधु और साध्वियाँ हैं, जो नगर ग्रामों में सहर्ष अनेक भव्य जीवोंके उपकारके लिये विहार कर रहे हैं ॥ ४८१ ।। ४०-पूर्वाचार्यवद्रचित-प्राकृतसंस्कृतग्रन्थनामानिपूर्वाचार्याः पुरा काले, लोकज्ञप्तितितंसया। शुद्धपद्धतिसंस्थित्य, धर्मरक्षणहेतवे ॥४८२ ।। निर्ममुर्बहुशास्त्राणि, रत्नभूतानि सद्धिया। यद्ग्रन्थैश्चाद्यपर्यन्तं, मिथ्यावादप्रलापिनः॥४८३ ॥ निरुत्तरीक्रियन्तेऽत्र, ह्यङ्गुलिध्वनिमात्रतः । तथायं सर्वशास्त्रज्ञो-ऽनेकशास्त्राणि निर्ममे ॥४८४॥ प्राकृतसंस्कृतग्रन्था-ऽऽख्यानं तत्र मयोच्यते। श्रीअभिधानराजेन्द्रे, बृहत्प्राकृतकोषके ॥४८५ ।। स्वेऽस्मिन् शब्दे स्ववृत्तान्तो-ऽनेकग्रन्थात्सुकर्षितः । तेनाऽस्य रचना ज्ञेया, बोधार्थमतिमला ॥४८६॥
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२६ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । अकारादिक्रमेणास्मिन् , वर्तन्ते प्राकृतादयः । तत्संस्कृतेऽनुवादोऽस्ति, लिङ्गव्युत्पत्तिदर्शनम् ॥४८७॥
पूर्व कालमें हमारे प्राचीन जैनाचार्योंने लोगोंको बोध होनेकी वाँछासे और उन्हें शुद्ध मार्गकी मर्यादा पर चलानेके लिये, एवं स्वधर्मकी रक्षाके निमित्त उत्तम बुद्धिसे ग्रन्थरत्नरूप अनेक धर्मशास्त्र वनाये हैं, ..
जिन ग्रन्थोंसे आज पर्यन्त हम लोग अङ्गुलियों [चिमटी] के बजाने मात्रसे झूठे वादके बकवादी लोगोंको लाजबावी कर देते हैं । उसी शैलीके अनुसार कुल शास्त्रों के वेत्ता आपश्रीने भी अनेक धर्मशास्त्र निर्माण किये हैं ॥४८३-४८४ ।। उनमें पहेले प्राकृत-संस्कृत ग्रन्थों के नाम कह दिये जाते हैं १ 'श्रीअभिधानराजेन्द्र' प्राकृत मागधी-महाकोश ॥४८५।। इस कोशमें मूल शब्द पर मूल शब्दका कुल बयान अनेक शास्त्रोंसे अच्छी तरहसे खींचकर लाया हुआ सुगमतासे एक स्थान पर ही मिल सकता है। उसी कारण इस कोशकी रचना ज्ञान देनेके लिये अत्यन्त सुन्दर जानना चाहिये ॥४८६॥ इसमें अकारादि वर्णानुक्रमसे मागधी, अर्धमागधी, प्राकृत आदि भाषाओंके शब्दोंका संग्रह है। बाद उनका संस्कृतमें अनुवाद है, फिर प्रत्येक शब्दका लिङ्गज्ञान, एवं व्युत्पत्ति भी दिखादी है।। ४८७ ॥ तदर्था बहुधा तत्र, यथासूत्रं प्रदर्शिताः। बृहच्छब्दाधिकाराणां, सूच्योऽपि विहितास्तथा ।४८८
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। आगमविषयाः सर्वे, प्रायेणास्मिन् समागताः। जायतेऽनेन सद्बोधो, धीमतां हि विशेषतः॥४८९।। अत्राशीतिसहस्राणां, शब्दानां सङ्ग्रहः कृतः । श्लोकानां पश्चलक्षाणि, विद्यन्ते किल सजनाः!।४९० तथा शब्दाम्बुधिः कोषो-ऽप्यकारादिक्रमेण च । शब्दव्याख्यां विना तस्या-ऽनुवादः संस्कृते कृतः ।४९१ सटीकसकलैश्वर्य-स्तोत्र कल्याणमन्दिरे। रौहिणेयप्रबन्धश्च, सपद्या शब्दकौमुदी ॥४९२ ।।
और वहीं बहुत प्रकारसे उनके अर्थ जैसे आगमोंमें व अन्य ग्रंथोमें दिखलाये हैं वैसे ही पृथक् २ रूपसे दिखला दिये गये हैं। बड़े बड़े शब्दों के अधिकारोंकी नम्बर वार सूचियाँ भी कर दी गई हैं ।। ४८८ ॥ इन महाकोशमें बहुत करके जैनागमोंके विषय तो सभी आगये हैं। अतएव विद्वानोंको विशेषतया इसके द्वारा ही जैनागमोंका महोत्तम ज्ञान हो सकता है । ४८९ ॥ हे सजनो! इसमें अकारादि वर्णानुक्रमसे करीब अस्सी हजार प्राकृत शब्दोंका संग्रह है और पाँच लाख श्लोक हैं ॥ ४९० ॥ दूसरे २-' शब्दाम्बुधि' कोषमें भी अकारादिके अनुक्रमसे प्राकृत शब्दोंका संग्रह किया है। उसमें शब्दोंकी व्याख्या रहित केवल संस्कृतमें ही अनुवाद किया है ॥ ४९१ ॥ ३-सकलैश्वर्यस्तोत्रसटीक,
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२८
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। ४-कल्याणमंदिरसटीक, ५-खापरियाचौरप्रबन्ध, ६-श्लोकबद्ध-शब्दकौमुदी ॥ ४९२ ॥ स्फुटार्था सुखबोध्या च, बालजीवोपकारिणी । निर्मिता कल्पसूत्रार्थ-प्रबोधिन्यतिसुन्दरा ॥ ४९३ ।। दीपालीकल्पसारश्चो-पदेशरत्नसारकः । हरिविक्रमभूपस्य, चरित्रं चातिमञ्जुलम् ॥ ४९४ ॥ श्रीउत्तमकुमारस्थ, होलिकायाः कथानकम् । तथाऽक्षयतृतीयायाः, प्रबन्धोऽप्यतिसुन्दरः ॥४९५।। येनैते शिष्यविज्ञप्त्या, गद्यबद्धः सुसंस्कृताः । पद्यबद्धो धातुपाठः, प्राकृतं शब्दशासनम् ।। ४९६ ॥ श्रीअभिधानराजेन्द्र-कोषे भागेऽस्ति चादिमे । युक्तं प्राकृतगाथाभिः, सत्संग्रहप्रकीर्णकम् ।। ४९७ ॥ - साफ २ अर्थवाली सुखसे समझने योग्य अज्ञ जीवोंके उपकार करनेवाली अतिमनोहर ऐसी कल्पसूत्र ऊपर ७'कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी' नामा टीका रची है ॥ ४९३ ॥ ८-दीपालीकल्पसार, ९-उपदेशरत्न सार, १०-अतिसुन्दर हरिविक्रमनृपचरित्र ॥ ४९४ ॥ ११-उत्तमकुमारकथा, १२-होलीकथा और अति कमनीय १३-अक्षयतृतीयाप्रवन्ध भी ॥ ४९५ ॥ गुरुश्रीने ये ग्यारह ग्रन्थ शिष्योंकी प्रार्थनासे गद्यबद्ध संस्कृतमें रचे हैं । १४-पद्यबद्ध धातुपाठ, १५-प्राकृतव्याकरणविवृति यह श्रीअभिघानराजेन्द्रकोषके
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
१२९
प्रथम भागमें छप चुकी है । १६- और प्राकृतगाथाओं के संग्रह से युक्त-सर्वसंग्रह प्रकीर्णक है ।। ४९६-४९७ ॥
४१ - सङ्गीत - भाषान्तर - ग्रन्थनामानि - बोधार्थं बालबुद्धीनां, मुनिपतेश्चतुष्पदी | तथाऽर्धे कुमारस्य, घष्स्यापि चतुष्पदी ॥ ४९८ ॥ सिंद्धचक्रस्य पूजाsस्ति, पैञ्चकल्याणकस्य च । चतुर्विंशजिनानां च सचैत्यवन्दनान्यपि ॥ ४९९ ॥ सुस्तुतीः स्तवनान्येवं, चक्रेऽसौ हितकांक्षया । भाषाग्रन्थान् क्रमादेतान् प्राणिनां चाऽनुकम्पया ५०० गैच्छाचारप्रकीर्णस्य, कृता भाषा सुविस्तरा । तथैवं कल्पसूत्रस्य, सँप्तमाङ्गस्य सुन्दरा ॥ ५०१ ॥
?
सङ्गीत और भाषान्तर ग्रन्थ बालबुद्धि जीवोंके ज्ञान होनेके लिये रचे । १७- मुनिपति - चौपाई, १८ - अघटकुमार - चौपाई, १९ - प्रष्ट्र - चौपाई ॥ ४९८ ॥ २० - सिद्धचक्रपूजा, २१- पञ्चकल्याणक पूजा, २२ - चौवीस जिनोंके चैत्यवन्दन ।। ४९९ ।। २३ - चौवीस जिनस्तुति, २४ - चौवीस जिनस्तवन और इसी प्रकार गुरुश्रीने प्राणियोंकी हितवाँछासे व दयादृष्टिसे क्रमसे ये भाषान्तर ग्रन्थ रचे ।। ५०० ।। २५गच्छाचारप्रकीर्णककी सविस्तर भाषा, इसी मुजब २६ - कल्प
९
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। मूलाक्षरार्थयुक्तोऽयं, कर्मग्रन्थचतुष्टयः । दिनोष्टभाषणस्यापि, सिद्धान्तसारसागरः ॥५०२॥ पुनस्तत्त्वविवेकश्च, कृतः स्तुतिप्रभाकरः । श्रीसिद्धान्तप्रकाशोऽपि, श्रीप्रश्नोत्तरमालिका ५०३ रम्या षड्द्रव्यचर्चा वै, श्रीराजेन्द्राऽरुणोदयः। स्वरभूज्ञानयन्त्रालिः, श्रीसनप्रश्नबीजकः ॥ ५०४॥ द्विषष्टिमार्गणाचर्चा, त्रैलोक्ययन्त्रदीपिका । सत्कथासंग्रहग्रन्थ, आवश्यकोऽपि सार्थकः ॥५०५॥ पञ्चम्याः सिईचक्रस्य, चतुर्मासीगिरीन्द्रयोः। चतुर्णान्तु कृतश्चैषां, देववन्दनसद्विधिः ॥५०६ ॥ श्री|श्नोत्तरसत्पुष्प-वाटिका लोकबोधिदा। कृता लोकसुबोधाय, जिनोपदेशमञ्जरी ॥५०७ ॥ चौपाईति प्रसिद्धाख्या, संघस्य ज्ञानहेतवे । सत्तैरिसयठाणाख्य-ग्रन्थस्य गुरुनिर्मिता ॥ ५०८ ॥ अष्टाधिकशतवचसां-निकरः कमलप्रभाशुद्धरहस्यम्। गुरुरित्यादिभिरेषः, सुशास्त्रैर्लोकानुपाकरोत् ।।५०९॥ सूत्रकी और २७-उपासकदशाङ्ग सूत्रकी भी सुन्दर भाषा ॥५०१॥ २८-चार कर्मग्रन्थोंका मूलपर अक्षरार्थ किया २९-अष्टाहिकव्याख्यानकी भाषा, ३०-बोलसंग्रह-सिद्धान्तसारसागर, ३१-गुर्जरभाषामय तत्वविवेक, ३२-चर्चात्मक
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३१
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। स्तुतिप्रभाकर, ३३-चर्चात्मक-सिद्धान्तप्रकाश, ३४-चर्चात्मक-प्रश्नोत्तरमालिका ३५-पइद्रव्य चर्चा, ३६-श्रीराजेन्द्रसूर्योदय, ३७-स्वरोदयज्ञानयन्त्रावली, ३८-सेनप्रश्नबीजक, ३९-बासठमार्गणाविचार, ४०-त्रैलोक्यदीपिका यन्त्रावली, ४१-कथासंग्रह-पश्चाख्यानमार, ४२-षडावश्यक अक्षरार्थ, ४३-पश्चमीदेववन्दनविधि, ४४-नवपदओलीदेव०, ४५चौमासीदेव० और ४६-सिद्धाचलनवाणुंयात्रादेव, इन चारोंकी देववन्दनविधि ४७-लोगों को सम्यक्त्व देनेवालीप्रश्नोत्तरपुष्पवाटिका, ४८-लोगों के ज्ञानार्थ जिनोपदेशमञ्जरी रची, ४९-संघके ज्ञानार्थ सत्तरिसयठाणा ग्रन्थकी प्रख्यात चौपाई रची ५०-एक सौ आठ बोलका थोकड़ा, ५१-कमलप्रभाशुद्धरहस्य, इस प्रकार उत्तम ग्रन्थरचना द्वारा गुरुवर्यने जैन जैनेतर लोगों पर महोपकार किया है ।।५०१-५०९॥
४२-गुरुहस्तलिखिताऽऽगमादीनिव्यलेखीमानि शास्त्राणि, गुरुणा सिद्धपाणिना । श्रीसंघस्योपकारार्थे, स्वात्मश्रेयोर्थमत्र च ॥ ५१० ॥ सवृत्तिपश्चमाझंच, संमवायाङ्गसूत्रकम् । तथा प्रज्ञापनोपाङ्गं, श्रीजीवाभिगमादिकम् ॥५११॥ पुनर्दाश्रुतस्कन्ध-सूत्रचूर्णिनिशीथकम् । उपासकदशाङ्गस्य, शुद्ध भाषान्तरं वरम् ॥५१२ ॥
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३२
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। गच्छाचारप्रकीर्णस्य, कल्पसूत्रस्य चोत्तमम् सिन्दूरप्रकरश्चैवं, भतरीशतकत्रयम् ॥ ५१३ ॥ मूलं चाऽमरकोशस्य, चारुर्ललितविस्तरा।। प्रक्रियाकौमुदीवृत्ति-बृहत्संग्रहणीतरा ॥५१४ ॥ सारस्वतं शब्दशास्त्रं, नयचक्रन्तु चन्द्रिका। हीरप्रश्नोत्तरं चैवं, तर्कसंग्रहफक्किका ॥५१५ ॥ विचारसारप्रकीर्ण-मष्टाध्यायी वराक्षराः। अन्येऽप्येवं बहुग्रन्था, राजन्ते ज्ञानमन्दिरे ॥ ५१६ ॥ मनोवाक्काययोगैश्च, सर्वस्योपचकार सः। इत्थंकारैर्व्यतीयाय, गुरुलॊके स्वजीवनम् ॥ ५१७ ॥
सिद्धहस्त गुरुश्रीने अपने आत्मकल्याणार्थ और चतुविध श्रीसंघके उपकारके लिये पवित्र सुन्दराक्षरमय अनेक शास्त्र भी लिखे हैं-१-सटीक-त्रिपाठ भगवतीसूत्र २-समवायाङ्गसूत्र, ३-प्रज्ञापनासूत्र, ४ जीवाभिगमसूत्र, आदिशब्दसे ५-प्रश्नव्याकरण सूत्र भी ६-दशाश्रुतस्कन्धसूत्रचूर्णि, ७निशीथसूत्र, ८-उपासकदशाङ्ग सूत्रका उत्तम विस्तृत शुद्ध भाषान्तर, ९-गच्छाचारपयन्नाका और १०-कल्पसूत्रका उत्तम विस्तृत भाषान्तर, ११-सिन्दूरप्रकरमूल, १२भर्तृहरिशतकत्रिक, १३-अमरकोश मूल, १४-सुन्दर ललितविस्तरा, १५-प्रक्रियाकौमुदीवृत्ति, १६-१७-मोटी छोटी संग्रहणी, १८-सारस्वतव्याकरण, १९-नयचक्र, २०-चन्द्रि
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
लातीनmci'उमाशालांता टांतीदिनाciaनोसामन्न केरलामोत केली 'मोअतस्के रलामा नमीक्व लवारील'सुन मोदसबछीलोतरा अछाम्न मोरकारसंगीएं।
-
रुसम्मनालासमयला २an यकलिकलुसाला गयाa तरागदासा स्वगात वाटतंयूदेवादिदेवासछ
समयबारसमहेशमा समाज ससजन्नतश्योकि
अजिसमंतिनास्मन
و
ما افق
मं० १९२६ मार्गशीपंशुक्ला १० के दिन चरितनायक के हस्ताक्षरों से लिखे हुए ‘स्थापनाचार्य
का पृष्ठ तथा ई
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
१३३
का - व्याकरण, २१ - हीर प्रश्नोत्तर, २२ - तर्कसंग्रहफक्किका, २३विचारसारप्रकीर्ण, २४ - अष्टाध्यायी, इसी प्रकार सुन्दराक्षरमय दूसरे भी नानाप्रकार के ग्रन्थरत्न ज्ञानभण्डागार में शोभा दे रहे हैं, यहाँ तो केवल दिङ्मात्र ही लिखे गये हैं ||५१६-५१७॥ गुरुश्रीने संसार में मन वचन और काय इन तीनों योगसे सभीका महोपकार किया है, अतः वे धन्यवाद के पात्र हैं कि जिन्होंने अपना जीवन परोपकारके लिये इस प्रकार पूर्ण किया || ५१७ ॥
४३--मण्डपाचलयात्राप्रस्थानं परं श्वासवृद्धया राजगढाऽऽगमनं, मुनिगणवर्णनं च
श्रीवडनगरस्याथ, चतुर्मास्यास्त्वनन्तरम् । अकस्मादुत्थितः श्वासो, गुरोर्दुष्टो भयप्रदः ।। ५१८ ।। माण्डवगढयात्रार्थं, संघेन प्रार्थनीकृतः । तामङ्गीकृत्य सद्भावात्, श्वासेऽप्येषः स्वधैर्यतः ५१९ संधैः सार्धं ततोऽचालीत्, साहस्येकशिरोमणिः । तिथिमात्रैश्च पूर्णेन्दु- र्यथा शिष्यैर्निदेशः ॥५२०॥ तपस्विमुख्यसत्पात्रः, श्रीरूपविजयाह्वयः । आहोरे तिथिसाधूनां पञ्चत्रिंशदुपोषणे ॥ ५२१ ॥ भिक्षाssनीता मुदा तेन, वैयावृत्यकरोऽप्यतः । व्यक्ताद्विनतिर्भक्का - स्तपस्याऽनेकधा कृता ।। ५२२ ।।
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
श्रीनगरका चौसासा समाप्त होने बाद गुरुश्रीके अचानक बुरा भय पैदा करने वाला श्वास उठा ||५१८ ||
१३४
यहाँके श्रीसंघ माण्डवगढ़ की यात्रा कराने के लिये आपसे प्रार्थना की पर श्वास होने पर भी उत्तम भावसे और अपनी धैर्यता से साहसिक पुरुषोंमें मस्तकमणिके समान आपने उस प्रार्थनाको स्वीकार कर जैसे गगन मण्डल में चलता हुआ पूनमका चन्द्रमा शुक्ल पक्षकी पन्द्रह तिथियोंसे शोभायमान हो, वैसेही आज्ञाकारी १५ शिष्योंके साथ सुशोभित होते हुए आपने भी यात्रा के लिये भूमंडल पर संघके साथ प्रयाण किया ।। ५१९-५२० ।। उनमें से कतिपय साक्षर गुणी मुख्य शिष्योंके सवर्णन - नाम - तपस्वियों में श्रेष्ठ व उत्तम गुणके भाजन तपस्वी मुनिश्रीरूपविजयजी थे इन्होंने गुरुश्रीके १९५८ आहोर के चौमासे में ३५ उपवास में सहर्ष २५ दिन तक १५ मुनियोंके लिये गोचरी लाकर दी थी, अतएव वे बड़े ही मुनिजनोंकी सेवा करनेवाले थे, तपस्याएँ तो इन मुनिजीने अपने जीवनमें नाना प्रकार की कीं और १९६४ रतलाम पंन्यास मुनिश्री मोहनविजयजी के चौमासेमें ४६ उपवास किये थे, तप में व खूब ही ज्ञानध्यान में लवलीन रहते थे, अन्त में वे मुनिश्री पारणा किये बाद वहाँ ही बोलते २ चित्त समाधिसे देवलोक पहुंच गये ।। ५१९-५२२ ॥
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३५
श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
श्री दीप विजयो विद्वा-नाचार्यो विद्यतेऽधुना । राजते प्रतिभाशाली यतीन्द्रविजयो बुधः ।। ५२३ ॥ श्रीलक्ष्मीविजयो ज्यायान्, शास्त्राणां लेखने पटुः । गुलाबविजयः शश्वत्, सच्छास्त्राभ्यसने रतः ॥ ५२४ || श्रीहर्षविजयो धीमान्, वैयावृत्त्यकरः सदा । श्रीहंसविजयो हंस - तुल्यः शोशुभ्यते स्वतः || २२२|| इत्यादिकैर्विनेयैस्तैः, सत्त्वात्मा चाचकीत्यसौ । आत्मधर्मसुरक्तोऽभू-द्विरक्तो हि बहिर्गुणैः ॥५२६ ॥ श्वासवृद्ध्या परं मार्गे, यात्राभावं विमुच्य सः । क्रमाद्राजगढं प्राप, चरमार्हद्दिदृक्षया ।। ५२७ ।।
विद्वद्वर्य श्रीमान् मुनिश्रीदीपविजयजी थे, जिनको संवत् १९८० द्वितीय ज्येष्ठमुदि ८ के रोज जावरा ( मालवा ) में भारी समारोहसे आचार्यपद मिला था, जो विद्यमान हैं । प्रतिभाशाली कोविद मुनिश्री यतीन्द्रविजयजी थे ।। ५२३ ।। शास्त्रोंके लिखने में चतुर वयोवृद्ध मुनिश्रीलक्ष्मी विजयजी थे । सदा उत्तम शास्त्रों के अभ्यास में निमग्न मैं मुनिगुलाबविजय भी था ।। ५२४ ।। हमेशा वैयावृत्य करने वाले बुद्धिशाली मुनिश्रीहर्षविजयजी थे | राजहंस सदृश - विमलात्मा मुनिश्री - हंस विजयजी तो स्वयमेव अतीव शोभते थे ।। ५२५ ।। इत्यादि शुभ नामधारी उन विनेयों सहित सच्चगुणधारी गुरुश्री अत्यन्त शोभते थे और राग, द्वेष, मोह, माया, काम,
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। क्रोध, लोभादि बाह्य गुणोंसे अलग हो कर खास आत्माके ज्ञान दर्शन चारित्रादि गुणोंमें अतीव लवलीन थे ॥ ५२६ ॥ परन्तु रास्तेमें चलते २ अति श्वास बढ़नेसे शिष्यों व श्रीसं. घकी प्रार्थनासे माण्डवगढ़की यात्राके भावको छोड़कर श्रीवर्धमानस्वामी के दर्शन की चाहनासे क्रमशः राजगढ़ पधारे ॥ ५२७ ॥
४४--आर्याऽऽगमो, ज्वर श्वासैधनश्चअत्राऽऽजग्मुश्च साध्व्योऽपि, श्रीगुरोर्दर्शनेच्छया । प्रवर्तिनी तु प्रेमश्रीः, शुद्धचारित्रपालिका ॥ ५२८ ॥ स्थविराऽऽसीत्तु मानश्री, रम्योपदेशदायिनी । तथा मनोहरश्रीस्तु, तथान्या अपि सत्तमाः ॥ ५२९ ॥ ततो दुष्टज्वरोऽप्यागाद्, गुरुसङ्गचिकीर्षया । कदेदृक्षनरत्नस्य, दर्शनं मे क यास्यति ? ॥ ५३० ॥ अथैतो जरया सार्ध, गाढप्रीतिं प्रचक्रतुः। गुरुस्त्वेकस्त्रयश्चैते, मुदैकत्राऽमिलन् खलाः ।। ५३१ ॥ ते त्रयोऽपि महादुष्टाः, स्वस्वशक्तिमदीहशन् । प्राज्यौषधप्रदानस्ते, सुशान्ति नैव भेजिरे॥ ५३२ ।। ___ यहाँ गुरुश्रीके दर्शनकी चाहनासे साध्वियाँ भी आई, उनमें शुद्ध चारित्र पालने वाली प्रवर्तिनी प्रेमश्रीजी थीं ॥५२८॥ रमणीय उपदेश देनेवाली स्थविरा मानश्रीजी वैसेही
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
१३७ मधुर वाणीसे सदुपदेशदात्री स्थविरा मनोहर श्रीजी एवं और भी कई उत्तम २ साध्वियाँ थीं ॥५२९॥ बाद मेरेको कब कहाँ इस प्रकारके नररत्नके दर्शन होंगे मानो ऐसी गुरु संगतिकी चाहनासे एक ओर दुष्ट ज्वर भी आया । ५३० ॥ फिर श्वास और ज्वर ने वृद्धावस्थाके साथ अतीव प्रेम किया । गुरुश्री अकेले और एक ओर सहर्ष ये तीनों दुर्जन एक गोष्ठीकर मिलगये थे ।। ५३१ ।। अब वे तीनों महादुष्ट अपनी २ शक्तिको दिखाते हुए, प्रचुर औषध रूप दान देनेसे भी उन्होंने सुशान्तिका सेवन नहीं किया ॥५३२।। यतः-दुष्टानां तु स्वभावोऽयं, परकार्यविनाशनम् । यथा लोके सुवस्त्राणि, नित्यं कृन्तति मूषकः॥५३३ ॥ अङ्गारा अपि धौतास्ते, गङ्गानीरेऽतिनिर्मले। क्षारपिण्डैर्महातीक्ष्णै-र्भो ! भवन्ति किमुज्ज्वलाः ?॥ प्रतिघस्रं स्वसाम्राज्यं, समाधिक्येन चक्रिरे । ईदृश्यामप्यवस्थायां, स्वकृत्यं न ह्यसौ जहौ ॥५३५ ॥ क्योंकि-दुर्जनोंका यही स्वभाव है कि दूसरोंके कार्यका विनाश करना, जैसे लोकमें लोगोंके सुन्दर कपड़ोंको हमेशा निष्प्रयोजन चूहा काटा करता है।५३३॥ वाचकगण! महान् तीखे २ खारे पदार्थों (साबुनआदि) से अतिनिर्मल गंगाजलमें धोये गये कोयले भी क्या कहीं उजले होसकते हैं ? कभी नहीं, सारांश यही है कि-उन तीनोंने अपने स्वभावको नहीं छोड़ा
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
॥ ५३४ | और वे प्रतिदिन जोरशोर से स्वराज्य करने लगे, तथापि गुरुदेव ने इस प्रकारकी अवस्थामें भी अपने कर्तव्यको नहीं छोड़ा अतः संसारमें वे धन्यवाद के पात्र हैं ।। ५३५ ।।
४५-- श्रीसंघचिन्तोत्पत्तौ गुरूपदेशः -
गुर्ववस्थां विलोक्यैवं, श्रीसंघोऽथ चतुर्विधः । कर्तुं लग्नो महाचिन्तां धर्मतत्त्वसमन्विताम् ||५३६|| कर्णयोश्च सुधातुल्यं, सन्नीतिरीतिदर्शकम् । शुभशिक्षागृहं सत्यं, विवेकविनयप्रदम् ॥। ५३७ ॥ मोहजापयितारं च प्रभूतप्राणितारकम् । सदाचारं च नेतारं, प्राणिदुर्गतिवारकम् ॥ ५३८ ॥ बोधिबीज निदानं च, शिवराज्याधिकारिणम् । को नः प्रदास्यते स्वामिनीदृग् धर्मोपदेशकम् ॥५३९ ।। यथा सूर्य विना लोके, तमःस्तोमो न नश्यति । जीवाज्ञानान्धकारोऽपि, नो नश्यति गुरुं विना ॥५४०|| यथाssकाशो विना चन्द्रं, मन्दिरं दीपकं विना । सेनाध्यक्ष विना सेना, शोभते न तथा वयम् ॥ ५४१॥
पूर्वोक्त गुरुश्रीकी अवस्थाको देखकर चतुर्विध श्रीसंघ धर्मतत्त्व गर्भित मोटी चिन्ता करने लगे ॥ ५३६ ॥ कानों में अमृतके समान मधुर सत्पुरुषोंकी नीति और रीतिको बताने वाले, सच्ची उत्तम २ शिक्षाओंके घर, विवेक
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३९
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। और विनयको देनेवाले, मोहको जितानेवाले, असंख्य अनन्त जीवोंको तारनेवाले, उत्तम पुरुषोंके आचारको शिखानेवाले, प्राणियोंकी नरक तिर्यंचादि जो कुगति उसको निवारण करानेवाले, सम्यक्त्व रूप बीज पैदा होनेके कारण और मोक्षरूप राज्य को दिलानेवाले, हे स्वामिन् ! आप सद्गुरुके सिवाय इस प्रकार का धर्मोपदेश अब हमको कौन देगा ? ॥ ५३७-५३९ ।। जैसे संसारमें सूर्यके सिवाय अन्धकारका समूह दूर नहीं होता, वैसेही गुरुके विना प्राणियोंका अज्ञान रूप तिमिरका भी विनाश नहीं होता ।। ५४० ॥ जिस प्रकार चन्द्रमा के विना गगनमण्डल, दीपकके विना मन्दिर, सेनापतिके विना लश्कर, शोभा नहीं पाता, उसी प्रकार गुरुदेव! आपके विना हम शोभित नहीं होते ।। ५४१ ।।
निर्भीकाः किल निःशङ्का-स्तथा कुमतिदस्यवः। बलवन्तो भविष्यन्ति, कौतीर्थिकनिशाटनाः।।५४२॥ गुरो ! कस्संघसन्देहान् , प्रतिवाक्यैर्हरिष्यति । श्रुत्वैवं संघविज्ञप्ति, गुरुस्संघमवोचत ॥५४३ ।। श्रीसंघ ! भवता नैव, चिन्ता कार्या हि मत्तनोः। एष धर्मः शरीरस्य, क्षीणपुष्ट्यादिकात्मकः ॥ ५४४ ॥ अशुचिस्थानमस्त्येतद्, वहन्त्यस्मिन् प्रणालवत् । नव द्वाराणि नित्यं वै, प्राप्ते कालेऽस्ति गत्वरम् ॥५४५।।
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४०
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । उत्पन्नस्य धुवो मृत्यु-मृतस्य च जनुर्धवम् । तस्माऽत्तत्परिहारार्थे,नैव शोचन्ति पण्डिताः॥५४६॥
अब कुमति रूप चौर निडर और बेधड़क होंगे, वैसे ही अन्य दर्शनीय रूप घूघू बलवान् होंगे ॥ ५४२ ।। हे गुरो ! प्रश्नों के जबाव देकर कौन संघके संशयोंको दूर करेगा ? इस प्रकार संघकी विनति सुनकर गुरुश्री संघको समझानेके लिये बोले-मेरे शरीरकी विल्कुल फ़िक्र नहीं करना चाहिये । क्योंकि शरीरके दुर्बल सबल आदि परिवर्तन होनेके अनेक स्वभाव हैं । यह शरीर अपवित्रताका एक स्थान है इसमें प्रणालकी तरह हमेशा अशुद्धियों के नव द्वार तो वहते ही रहते हैं और समय आने पर वह विनाश शील है। नवीन उत्पन्न शरीरका निश्चय मरण है और विनाशित का फिर निश्चयसे दूसरा जन्म भी है । इस कारण उसके छोड़ने में विद्वान् लोग कभी चिन्ता नहीं करते ।। ५४३-५४६ ।। दशप्राणैर्वियुक्तोऽत्र, मृतोऽयं गद्यते जनः । सत्यरीत्या परं ज्ञेयो, जीवोऽयमजरामरः ॥ ५४७ ॥ यतोऽन्यस्मिञ्छास्त्रेऽप्युक्तम्वासांसि जीर्णानि यथा विहाय,
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।। ५४८ ॥
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।
१४१ मरणं प्रकृतिःशरीरिणां, विकृति वितमुच्यते बुधैः। क्षणमप्यवतिष्ठते श्वसन ,यदि जन्तुर्ननुलाभवानसौ" चेचतुःपञ्चवर्षाणि, सन्तिष्ठेत तदा वरम् । भवच्छिष्या भविष्यन्ति, सर्वथौजस्विनः प्रभो ! ॥
संसारमें दश प्रकारके प्राणों रहित होनेसे यह जीव मर गया बस यह केवल व्यवहारमें लोग कहते हैं। परन्तु सत्यरीतिसे तो इस जीवको अजर-अमर-शाश्वत ही जानना चाहिये ॥ ५४७ ॥ क्योंकि दूसरे शास्त्रों में भी कहा है-जैसे मनुष्य जूने वस्त्रोंको छोड़कर दूसरे नवीन वस्त्रोंको धारण करता है, वैसेही यह आत्मा जीर्ण शरीरको त्याग कर अन्य नूतन देहको धारण करता है ।। ५४८॥ शरीरधारी जीवोंका मृत्यु होनेका स्वभाव है, जीवित रहना यह पण्डितोंसे पृथिवीकायिक आदिका विकार कहा गया है। यदि श्वास लेता हुआ क्षणभर भी ठहर जाय तो जीव क्या लाभवाला हो सकता है ? कभी नहीं ॥ ५४९ ।। हे प्रभो ! जो चार पाँच वर्ष विराजेंगे तो अच्छा रहेगा, आपश्रीके शिष्य भी सब तरहसे समर्थ होजायँगे ।। ५५० ॥ . नैवमस्ति ममाधीनं, चरमाहस्थिति स्मर । शक्रोक्तिरपि वैफल्यं, गता का गणना मम ॥५५१।। पुनर्भोः ! सन्ति मत्पृष्ठे, शिष्याः संघोपदेशकाः ।। धर्मकार्यधुरं वोढुं, भविष्यन्ति यथोचिताम् ।।५५२॥
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४२
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। चलिष्यति सुरीत्यैव, वर्धमानस्य शासनम् । एकविंशसहस्राब्दी-मिति शास्त्रेषु भाषितम् ॥५५३॥ संघमित्थं सुसन्तोष्य, गुरुराजो व्यथान्वितः। अहंजापं जपन्नस्था-त्सद्विचारे समाधिना ॥ ५५४ ।। ... जब गुरुश्री बोले ऐसा करना मेरे अधीन नहीं है, अन्तिम तीर्थंकर श्रीमहावीरस्वामीकी व्यवस्थाको याद करो यदि इस विषयमें सौधर्मेन्द्रकी वाणी भी निष्फल होगई तो मेरी कौन गिनती है ? ॥ ५५१ ॥ फिर मेरे पीछे संघको सदुपदेश देनेवाले शिष्य हैं-जो यथायोग्य धर्मकर्मके भारको वहन करनेके लिये समर्थ होंगे ।। ५५२ ॥ श्रीवर्धमानखामी का इक्कीस हजार वर्ष सुरीतिके साथ शासन चलता ही रहेगा ऐसा शास्त्रोंमें भी कहा है ॥ ५५३ ॥ इस प्रकार पीड़ा युक्त गुरुराज श्रीसंघको अच्छी तरह सन्तोष देकर जिनेन्द्रदेवका जाप जपते हुए समाधिसे उत्तम विचारमें रहे ।।५५४।। ४६-शिष्यसुशिक्षा, समाधिना स्वर्गारोहश्चउपादिशच साधूना-मित्थं ज्ञात्वान्तमागतम् । भो! नास्ति मेऽङ्गविश्वासो, यूयमुक्ताः पुरा मया ॥ यतिधर्मात्यचारित्र-तत्प्रसूपालनेऽनिशम् । महोद्यमं प्रकुर्यात, चाऽप्रमादाः सुयत्नतः ।। ५५६ ।। मत्कर्तव्यं यदासीद्धे !, यथाशक्ति कृतं हि तत् । युष्माभिरपि कर्तव्या, सद्यत्नैःशासनोन्नतिः।।५५७।।
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।
१४३ निजात्मोद्धारकार्योऽपि, विधेयो हि सुयत्नतः। एकीभूय मिथःस्थेयं, सम्मत्या सह सर्वदा ॥ ५५८ ।। पञ्चत्रिंशत्समाचार्या, वर्तितव्यं सुभावतः। बहुधैवं स्वशिष्याणां, शिक्षा दत्ताः सुवाञ्छया।।५५९।। __ बाद गुरुश्रीने अपना आयु समीप आया समझकर इस प्रकार साधुओंको उपदेश दिया-अन्तेवासिओ ! अब मेरे शरीरका भरोसा नहीं है, इस विषयके वचन मैंने तुमको पहिलेसे ही कह दिये हैं ॥ ५५६ ॥ वास्ते मद्य-अमल चड़स माजुम भंग आदि सब तरहके नशे, पाँच इन्द्रियोंके २३ विषय, चारों प्रकारके क्रोधादि कषाय, पाच निद्राएँ, और चार प्रकारकी विकथाएँ ये पाँच प्रमाद वर्जित बड़े ही यत्नसे शान्ति-क्षमा, मार्दव-कोमलता, आर्जव-सरलता, मुक्ति-निर्लोभता, तप, संयम, सत्य, शौच-द्रव्य भावसे पवित्र, अकिंचन-परिग्रह रहित और ब्रह्मचर्य पालन करना, ये दश प्रकारके साधुधर्म युक्त चारित्र
और उसकी पाँच समिति तीन गुप्ति रूप अष्ट प्रवचन माताके पालन करनेमें हमेशा महान् उद्योग करते रहना ।। ५५६ ।। शिष्यो ! जो मेरा कर्तव्य था वह मैंने मेरी शक्ति मजब पार पहुँचाया, अब वैसेही तुम लोगोंको भी उत्तम यत्नोंसे जिनशासनकी उन्नति करना चाहिये ॥ ५५७ ।। बड़े ही प्रयत्नसे अपने आत्मोद्धारके कार्य भी करते रहना, सदैव परस्परमें सुसंपसे एक दिल हो कर रहना ॥ ५५८ ॥ और
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४४
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। अच्छे परिणामसे १९५६ की सालमें चतुर्विध श्रीसंघके हितार्थ मेरी बाँधी हुई ३५ गच्छकी मर्यादाओंमें चलना चाहिये । इस प्रकार शुभ चाहनासे स्वशिष्योंको नाना प्रकारकी सुशिक्षाएँ दीं ॥ ५५९ ॥ ज्ञाताऽज्ञातादियोगेन, भवदाशातनाः कृताः। क्षन्तव्यं पूज्य ! तद्दोषा-नस्माकन्तु दयावता ॥५६०॥ यतः-पम्हुढे सारणा वुत्ता, अणायारस्स वारणा । चुकाणं चोयणा होइ, निहुरं पडिचोयणा ॥ ५६१ ।। मयैताभिः सुशिक्षाभि-श्वेदात्मा वश्च दुःखितः। शिष्या ! वानुपयोगेन, क्षमध्वं मे तदागसम् ।।९६२।।
यह सुनकर शिष्य बोले-पूज्य ! धर्मगुरो ! जान अजान में मन वचन काया के योगोंसे आपश्रीकी तेंतीस आर्शतनाएँ की हों तो दयाशील आपश्रीको हमारे उन अप
१-१ गुरुके आगे आगे चलना, २ बराबरीसे चलना, ३ नजीक चलना, ४ आगे बैठना, ५ बराबरीसे बैठना, ६ नजीक बैठना ७ आगे खड़े रहना ८ बराबर खड़े रहना, ९ नजीक खड़े रहना, १० भोजन करते समय गुरुसे पहले चुल्लू करना, ११ गुरुसे पहले गमनागमन की आलोचना करना, १२ रात्रिमें गुरुके बुलाने पर जागते हुए भी न बोलना, १३ बात करने योग्य मनुष्यसे गुरुके पहले ही बातें करना, १४ गोचरी की आलोचना गुरुके पास न करके अन्य साधु के पास करना, १५
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।
१४५ राधोंको माफ करना चाहिये ॥ ५६० ॥ तब गुरुश्री बोले शिष्यो ! धर्म कर्ममें भूल होने पर मीठे वचनोंसे सावधान करना वह सारणा, कुसंगादि अयोग्य कार्य करनेसे मनाई गुरुके पहले दूसरे साधुओं को आहार का निमंत्रण करना, १६ आहारादि गुरु को न दिखा कर दूसरे साधुको दिखाना, १७ गुरुको पूछे विना स्निग्ध मधुरादि आहार दूसरों को लाकर देना, १८ अच्छा अच्छा आहार स्वयं खाकर गुरु को निरस आहार देना, १९ आसन पर बैठे हुए उत्तर देना, २० गुरुका वचन नहीं सुनना, २१ गुरु के सामने ऊंचे स्वर से या कठोर बोलना, २२ गुरु के शिक्षा देने पर तुम हमको कहने वाले कौन हो ? ऐसा कहना, २३ ग्लान आदि की वैयावृत्य करने वास्ते गुरु कहे तब तुम क्यों नहीं करते ऐसा कहना, २४ गुरुदेशना में उदास होकर बैठना, २५ गुरु कुछ कहें तब ' आपको कुछ याद नहीं ऐसा कहना, २६ गुरु की धर्मकथा का भंग करना, २७ सभा जुड़ने पर गुरु आज्ञा विना ही धर्मोपदेश देना, २८ गोचरी आगई या उसकी टाइम होगई ऐसा कह कर गुरु की सभा को विसर्जन कर देना, २९ गुरु के संथारादिसे पग लगाना, ३० गुरुके संथारा या आसन पर बैठना, ३१ गुरु से ऊंचे आसन पर बैठना, ३२ गुरु के बराबरी से ऊंचा आसन लगा कर बैठना, ३३ गुरु के सामने ऊंचे आसन बैठना या गुरु वचन को अविनय से सुनना । इस प्रकार ३३ आशातनाएँ टाल कर गुरु सेवा में रहना चाहिये ।
१०.
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। करना वह वारणा, इन दोनोंके ठीक आचरण नहीं होने पर अति प्रमादी शिष्यको धर्मपन्थ पर चलाने के लिये जाति कुलोदाहरण पूर्वक सोपालंभ प्रेरणा करना वह चोदना और पूर्वोक्त उन दोनों बातोंमें बारम्बार भूल करने पर तुझे
और तेरे सुकुल सुजन्म आदिको धिक्कार है इत्यादि कटुक वाक्योंसे अतीव वारंवार प्रेरणा करना वह प्रतिचोदना कहलाती है ॥ ५६१ ॥ मैंने इन चार सुशिक्षाओंके जरिये अथवा अनुपयोगसे यदि तुम लोगोंकी आत्मा दुखाई हो तो उस मेरे अपराध को तुम सभी क्षमना ।। ५६२ ।। फिर इसी त्यक्त्वौषधोपचाराणि, कृत्वैवं क्षामणां समैः । सच्छरणानि चत्वारि, गृहीत्वैवोचितान्यसौ ॥५६३॥ दत्त्वा संयमदोषाणां, मिथ्यादुष्कृतमादरात् । जग्राहाऽनशनं जैना-गमरीत्या समाधिना ॥५६४॥ लोकेऽन्वाचार्यवॉय-मुपकारी महासुधीः । सुखेनानशने स्थित्वा, कियदिनानि सुव्रती ॥५६५॥ स्वच्छकीर्ति सुविस्तीर्य, ज्ञानध्यानादिसंयमैः । चात्र स्वान्तेऽखिले जीवे, समभावं सुधारयन् ॥५६६॥ विनष्टं शर्मदं देह, स्वर्गकैवल्यसाधकम् । तथा त्यक्त्वेह निर्मोकं, सुखेनाहिस्त्यजेद्यथा॥५६७॥ गुणेषड्रत्नभूवर्षे, सप्तम्यां शुचिपौषके । श्रीमद्विजयराजेन्द्र-सूरीशोऽयमगादिवम् ।। ५६८ ॥
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४७
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। मुजब गुरुश्रीने [८४ ] लक्ष जीवयोनियोंके साथ भी खमतखामणा कर शरीर संबन्धी औषध वगैरह कुल उपायोंको छोड़कर अरिहन्तादिकोंके चार उत्तम शरणा ग्रहण कर और चारित्रमें लगे हुए दोषोंका सादर मिथ्यादुष्कृत देकर जैनसिद्धान्तोंकी मर्यादा पूर्वक सुख-समाधिसे अनशन [संथारा] ग्रहण किया ॥ ५६३ ॥ ५६४ ॥ वे गुरुश्री संसारमें शुद्ध महाव्रतधारी, जीवोंके महोपकारी, महाबुद्धिशाली, यथार्थ आचार्य श्रेष्ठ, कतिपय दिन पर्यन्त सुखसे अनशन में स्थिर रह कर अपने श्रेष्ठतर ज्ञान ध्यान तपस्या परोपकार और विशुद्ध चारित्र पालन आदि सद्गुणों से लोक में अति निर्मल कीर्ति फैला कर और आत्मा में सभी जीवों पर समभाव रखते हुए जैसे सर्प सुख पूर्वक अपनी चली (कांचली) को छोड़ता है, वैसेही स्वर्ग व मोक्षका साधन रूप तथा सांसारिक सभी सुखों का दाता तथापि विनाशशील स्वकीय शरीर का त्याग कर जैनाचार्यधुरन्धर-श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरी श्वरजी महाराज संवत् १९६३ पौषसुदि ७ के रोज स्वर्गवासी हुए ॥ ५६५ ॥ ५६६ ॥ ५६७ ॥ ५६८॥
४७-गुरुनिर्वाणोत्सवस्तत्र संघभक्तिश्चपटिष्ठग्रामतर्या, सद्वैकुण्ठीति कारिता । चित्रैः कौशेयवस्त्रैश्च, सजिता वरसौचिकैः॥ ५६९ ।।
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४८
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
रूप्यपत्रैः प्रतिस्थाने, मञ्जुलस्वर्णतन्तुभिः । मुक्ताविद्रुममाला भी, रत्नौघैर्विविधैस्तथा ॥ ५७० ॥ संघेनैवं गुरोर्भक्त्या, रम्यरम्यसुवस्तुभिः । देवविमानतुल्यैषा मुदा साक्षादलङ्कृता ॥ ५७१ ॥
अतिशय चतुर गांव के सुतारों द्वारा प्रथम उत्तम वैकुण्ठी बनवाई, पीछे उस पर नाना प्रकारके रेश्मी खीनखाप आदिके वस्त्रोंसे सुन्दर दर्जिओंके जरिये सजावट करवाई || ५६९ || स्थान स्थान पर चांदी के पत्रों व सुन्दर सोनाके तारोंसे और मोती मूंगियोंकी मालाओंसे वैसेही अनेक प्रकारके रत्नोंके पुज्जोंसे सहर्ष श्रीसंघने गुरुश्रीकी भक्ति से अच्छी २ वस्तुओंसे प्रत्यक्ष देवविमानके सदृश, अति सुशोभित वैकुंठी सजवाई || ५७० ।। ५७१ ॥ अभिषिक्तशरीरोऽस्यां, लेपितश्चन्दनादिभिः । मुनिवेशान्वितः पद्मा-सनेन स्थापितः शुचा ॥ ५७२ ॥ सरदारपुरादत्र, धारापुर्याश्च सुद्धवे ।
निन्यिरे वेण्डवाद्यानि नृपादेशान्मुदा द्रुतम् ||५७३ || तथास्मिन् कूकसी - बागा, -ऽऽलीराजपुर - बोरितः । कडोद - झाबुवा - पारा, - श्रीटांडा - रीङ्गनोदतः ॥५७४|| झकणावद - राजोद, राणा - रंभापुरात्तथा । धामणदा - दशाईतः, श्रीवडनगरादितः
॥ ५७५ ।।
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
१४२ सहस्रशः सुसंघाना,-मागच्छन्नतिशीघ्रतः।। मञ्जुलाडम्बरैरेतां, भ्रामयन्नखिले पुरे ॥५७६ ।।
शोक पूर्वक श्रीसंघने सुगंधदार चन्दन, वरास, कपूर, आदि उत्तम २ वस्तुओंसे लेपन किया हुआ साधुके वेशयुक्त सुवासित जलसे अभिषेक कराये गये गुरुश्रीके शरीरको उस वैकुंठीमें पद्मासनसे स्थापन किया ॥ ५७२ ॥ उपरोक्तगुरुनिर्वाणोत्सवमें सरदारपुरकी छावणीसे एवं धारानरेशकी आज्ञासे धारानगरीसे सहर्ष शीघ्र वेण्डबाजे मंगवाए गये ॥ ५७३ ॥ तैसे ही उस उत्सवमें कूकसी, बाग, आलीराजपुर, बोरी, कड़ोद, झाबुवा, पारा, टांडा, रीङ्गनोद, झकनावदा, राजोद, राणापुर, रंभापुर, धामणदा, दशाई, वड़नगर, लेड़गाम आदि गाव नगरोंसे गुरुनिर्वाण सुनते ही अति शीघ्रतया एकदम हजारों श्रीसंघ आये और उस वैकुण्ठीको बड़े ही सुन्दर समारोहके साथ सारे नगरमें घुमाते हुए ॥५७४-५७६॥ जयारावैर्गुरोर्नाम्नः, श्रीसंघास्यसमुत्थितः । तदाऽऽस्तां गीतवाद्यैश्च, रोदसी मुखरायिते ॥५७७॥ इत्थंकारमसौ संघो, राजदुर्गाद् द्विमीलके । तीर्थे मोहनखेडाख्ये,सुभूमौ तामतिष्ठपत् ॥ ५७८ ॥ समयेऽस्मिन् गुरोभत्तयां, संघो राजगढस्य च । श्रीवडनगरस्यापि, लेभे लाभं विशेषतः ॥ ५७९ ॥
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५०
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
रूप्याणां च सहस्राणि, मुदोदच्छालयत्तदा । तस्याश्चोपरि सद्भावै - रेवमन्येऽपि चक्रिरे ॥ ५८० ॥
उस समय श्रीसंघ के मुखसे पैदा हुए गुरुश्रीके नामके जय जय शब्दों एवं गुरुगुण गायन और अनेक तरहके बाजाओंके शब्दोंसे जमीन आसमान तो मानो वाचाल ही नहीं होगये हों अर्थात् जयगानवाजित्रादिकी ध्वनियोंसे भूमण्डल और गगन मण्डल एक शब्दमय ही होगये थे || ५७७ || इस प्रकार उस श्रीसंघने शहर राजगढसे दो माइल पर लेजा कर मोहनखेड़ा नामक उत्तम तीर्थकी भूमि पर उस वैकुंठी को स्थापन की ।। ५७८ || इस मौकेपे वैकुण्ठी पर गुरुभक्ति में राजगढ़ के और बड़नगर के श्रीसंघने बहुत ही लाभ लिया जो किसहर्ष हजारों रुपये उछाले, एवं उत्तम भावसे अन्यान्य श्री संघ भी गुरुभक्तिका लाभ लिया ।। ५७९ ।। ५८० ।। चन्दनैः कृतचित्यायां, कर्पूरागुरुकेसरैः । कस्तूरीदेवदार्वादि-द्रव्यैरेवं सुगन्धिभिः ॥ ५८१ ।। बहुभिर्धृतकुंभैच, वैकुण्ठ्या सह तत्तनोः । चक्रे संघोऽग्निसंस्कार, सानुतापश्च शुङ्मयः ॥ ५८२ | सर्वदैव जिनेन्द्रोक्त - निश्चय व्यवहारगः । लोकाचारवशादेष, - चक्राणः परिमज्जनम् ॥ ५८३ ॥ स्मरन् गुरुगुणानेषो, भावयन्नश्वरं समम् । धर्मशालां समायातो, गतरत्नः पुमानिव ॥ ५८४ ॥
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।
१५१ चन्दनसे रची हुई चिता में कपूर, अगर, केसर, चन्दन, कस्तूरी, देवदारु, आदि सुगन्धित पदार्थों से एवं बहुत से घृतके घड़ों से शोकमय पश्चात्ताप सहित श्रीसंघने वैकुण्ठी के साथ गुरुशरीरका अग्निसंस्कार किया ॥ ५८१ ॥ ५८२ ।। तदनन्तर तीनों ही काल में जिनेश्वर भगवान् के कहे हुए निश्चय और व्यवहार मार्ग में चलनेवाले श्रीसंघने लोक मर्यादा के आचार वश द्रव्यशुद्धि के लिये स्नान किया। क्योंकि-'जयवीयराय' के पाठ में जिनेश्वर भगवान से हमेशा प्रार्थना करने में आती है कि-हे भगवन् ! मुझ से लोक में विरुद्ध [अयोग्य] कार्य करने का त्याग बने ऐसा कहा गया है॥५८३।। उसके बाद गुरुमहाराज के गुणों को याद करते हुए सारे संसार को विनाशशील मानते हुए व अमूल्य रत्न को गमाये हुए पुरुष के समान श्रीसंघ धर्मशाला में आए ॥ ५८४ ॥
४८-अनित्योपदेशो गुरुमूर्तिस्थापनं च--- श्रीदीपविजयोऽथैवं, धीमान संघमबोधयत् । हन्ताऽनेनायिकालेन, जग्धास्तीर्थङ्करा अपि ॥५८५।।
यतः"तित्थयरा गणहारी,सुरवइणोचकिकेसवा रामा। कालेण य अवहरिया, अवरजीवाण का वत्ता ।।५८६।। ये पातालनिवासिनोऽसुरगणा येस्वैरिणो व्यन्तरा, ये ज्योतिष्कविमानवासिविबुधास्तारान्तचन्द्रादयः।
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५२ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । सौधर्मादिसुरालये सुरगणा ये चापि वैमानिकास्ते सर्वेऽपि कृतान्तवासमवशा गच्छन्ति किं शोच्यते॥
उसके बाद सुबुद्धिशाली श्रीमद्दीपविजयजी महाराजने इस प्रकार श्रीसंघको अनित्यताका प्रतिबोध दिया, हे श्रीसंघ ! बड़े ही खेदकी बात है कि इस दुष्ट यमराजने जिनेश्वरोंको भी खा लिये ॥५८५॥ कहा भी है कि-तीर्थकर, गणधर, इन्द्र, चक्रवर्ती, वासुदेव और बलदेव इन महोत्तम पुरुषोंको भी इस कालने खालिये तो अन्य जीवोंकी बात ही क्या है ? कुछ नहीं ॥ ५८६ ॥ पाताल लोकमें वसने वाले असुरनिकाय आदि दश प्रकारके देव, यथेच्छ रमणशील व्यन्तर और वाणव्यन्तर ये सोलह प्रकारके देव, लोकमें उद्योत करने वाले सूर्य, चन्द्रमादि तारा पर्यन्त ज्योतिषी देव और सौधर्मादि देवलोकमें निवास करनेवाले वैमानिक देव, ये सभी सुरससुदाय परवशतामें होते हुए यमराजकी मुखरूप जलभैबरीके खड्डेमें प्रवेश करते हैं तो दूसरोंकी चिन्ता करनेसे क्या है ? कुछ भी नहीं॥ ५८७ ॥ नो विद्या न च भैषजं न च पितानो बान्धवानो सुता, नाभीष्टा कुलदेवता न जननी स्नेहानुबन्धान्विताः । नार्थो न स्वजनो न वा परिजनः शारीरिकं नो बलं, नो शक्तास्त्रुटितं सुराऽसुरवराः सन्धातुमायुध्रुवम्
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।
१५३ ओमिति पण्डिताः कुर्यु-रश्रुपातं च मध्यमाः। अधमाश्च शिरोघातं, शोके धर्म विवेकिनः ॥५८९ ॥ सारगर्भमिमं वाक्यं, श्रुत्वा सर्वो जहाच्छुचम् । आगमोक्तिविधानेन, विदधे देववन्दनम् ॥ ५९० ॥ ___ संसारमें तरह तरहकी विद्याएं, औषधियाँ अति स्नेहवाले मा बाप, बन्धुगण, लड़के, स्ववाछित कुल देव देवियाँ, बहु तसा घरमें धन, कुटुम्ब परिवारके स्वजन लोक, शरीर संबन्धी पराक्रम, वैमानिक जातिके देव और असुरनिकायादिक देव, एवं इनके इन्द्र भी, टूटे हुए आयुष्यको जोड़नेके लिये कभी समर्थ नहीं हो सकते हैं । ५८८ ॥ शोक आने पर पापसे डरने वाले और आत्माको दुर्गतिसे बचाने वाले विद्वान लोग तो फक्त ॐ मात्र ही बोलते हैं, मध्यम कोटीके लोग आँखोंसे आँसू डालते हैं, अधम लोग माथा फोड़ते एवं छाती भी कूटते हैं, और विवेक वाले शोक निवारणार्थ उभय लोकमें हितकारी धर्मका ही सेवन करते हैं ॥५८९ ।। मुनिश्रीके सार से भरे हुए वचनोंको सुनकर सारे संघने निरर्थक शोक संतापको छोड़ दिया और जिनागमों में कहे हुए विधिविधानसे सत्तीर्थरूप श्रीवर्धमानस्वामीके जिनालयमें देववन्दन किये ॥ ५९० ॥ चतुर्विधस्ततः संघो, भवौदास्यमुपेयिवान् । अधीयन्नेकचेतास्तं, स्वस्वस्थान उपाययौ ।। ५९१ ।।
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४
श्रीराजेन्द्रगुणमअरी। अथ दीनादिकान् लोकान् , धान्यवस्त्रादिकैस्तदा। अतोषयद्दयाढ्योऽसौ, जैनशासनकीर्तये ॥ ५९२ ॥ विवृद्धये च धर्मस्य, गुरुदेवप्रभक्तये। विदधे शासनोन्नत्यै, श्रीसंघोऽष्टाहिकोत्सवम् । ५९३॥ वाग्निश्चयानुकूलेन, वह्निसंस्कारभूतले । मृदुस्निग्धैः सितग्रावै-रकारि ध्यानमन्दिरम् ।।५९४॥ वरिष्ठेऽस्मिन् गुरोर्गेहे, सहाऽञ्जनप्रतिष्ठया । चैकीभूतोऽन्यसंघोऽपि, दिनाष्टावधिकोत्सवैः॥५९५॥ स्वर्गीयगुरुराजस्य, सज्जनस्वान्तकर्षिणीम् । वरीयसी प्रतिच्छायां, श्रीसंघोऽस्थापयन्मुदा॥५९६।। प्रतिवर्षेऽत्र सप्तम्यां, पौषशुक्लस्य सर्वतः । सहस्रशः समायान्ति, यात्रिकास्तु दिदृक्षया ॥५९७॥ तदनन्तर चतुर्विध श्रीसंघ संसारकी उदासीनताका विचार एवं एक चित्तसे उन सुगुणी गुरुश्रीको याद करते हुए अपने २ स्थान पर पहुँचे ॥ ५९१ ॥
बाद कृपालु श्रीसंधने जैनशासनकी महिमाके लिये दीन गरीब अन्धे लूले निराधार रोगी वगैरह जीवोंको अन्न कपडोंसे और पशुओंको चारा पानी आदिसे अति संतुष्ट किये ॥ ५९२ ॥ फिर देवगुरूकी भक्त्यर्थ, जिनशासनकी उन्नतिके कारण, एवं जैनधर्मकी वृद्धि के लिये श्रीसंघने महान्
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। अष्टाहिक महोत्सव भी किया ॥५९३॥ और संघके किये हुए निश्चयानुसार मोहनखेड़ा तीर्थके अन्दर ही अग्निसंस्कारकी जगह पर कोमल चिकने आरसोपल जातिके पाषाणोंसे गुरुसमाधि मंदिर बनवाया ॥ ५९४ ॥
गुरुश्री के इस सुन्दर ध्यानमंदिर में अत्यन्त सहर्ष कुंकुमपत्रिका द्वारा इकट्ठे हुए पर ग्रामके श्रीसंघ सहित यहाँ के श्रीसंघने आठ दिनके महोत्सव पूर्वक उत्तम अञ्जनशलाका प्रतिष्ठा के साथ दिवंगत जैनाचार्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की सजन लोगोंके चित्तको आकर्षित करने वाली महोत्तम मनोहर मूर्तिको स्थापन की ॥५९५॥ ५९६॥ यहॉपर हरसाल पौष सुदि सप्तमी और चैत्र-कार्तिक पूर्णिमाके रोज चारों ओरसे गुरुदेवके दर्शनकी चाहसे हजारों यात्री लोग आते हैं ।। ५९७ ।। ४९--फलसिद्धया गुरुबिम्बार्चा तदने
तद्गुणोत्कीर्तनं चकार्यसिद्धिपणं कृत्वा, महत्या श्रद्धया समे। सूत्सवं भो ! वितन्वानैः, श्राद्धैश्वान्यजनैरपि ॥५९८॥ दसोरे खाचरोदे च, कूकस्यां जावरापुरे । आहोरादिपुरेष्वेवं, पूज्यन्ते गुरुमूर्तयः ॥५९९ ॥
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्र गुणमञ्जरी ।
वाचकगण ! मन्दसोर, खाचरोद, कूकसी, जावरा, लक्ष्मणि - तीर्थ, आहोर, खरसोद, दशाई, थराद, निम्बाहेड़ा, राजगढ़, रींगनोद, बड़नगर, सियाणा, बागरा, हरजी आदि गाँव नगरोंमें बड़ी ही आस्था पूर्वक महोत्सव करते हुए श्रावक वर्ग एवं अन्य दर्शनीय लोग भी अपने २ कार्यकी सिद्धिका पण [बोलमा] बोलकर गुरुराजकी मूर्तियों को पूज रहे हैं ।। ५९८ ।। ५९९ ॥
१५६
पूजनाद्दर्शनाद् भक्त्या, गुरुमूर्तेः स्तुतेः किल । जपनात्तज्जनानां च, सिद्ध्यन्ति स्वेष्ठ सिद्धयः || ६०० || तदग्रे भावयन्त्येव, लोकाः सर्वत्र भावनाम् । तदीयसद्गुणग्रामं, कीर्तयन्तः स्तुवन्ति वै ।। ६०१ ॥ वल्लभं व्रतरत्नं तु, सर्वधर्मिमहात्मनाम् । केनचिद्रक्षितं शुद्धं त्वादृशैव परं गुरो ! ॥ ३०२ ॥ निर्दोषाऽऽहारपात्रादीन् साधूपकरणं विना । क्षारपिण्डं च वस्त्रेषु, स्वोपयोगे न लेभिषे ॥ ६०३ ।।
निश्चयसे भक्ति के साथ गुरुमूर्तिकी पूजा, दर्शन, स्तुति से और गुरुके नामका जाप करने से उन लोगोंकी वांछित सिद्धियाँ सिद्ध हो रही हैं ।। ६०० ॥ सब जगह उन गुरु मूर्तियोंके आगे अनेक लोग भावना भाते हैं, गुरुमहाराजके उत्तम गुणोंके समुदायकी कीर्तना करते हुए स्तुति कर रहे हैं ।। ६०१ ।। वह स्तुति ऐसी है कि सभी धर्मवाले
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। महात्मा लोगोंके व्रत रूप रत्न वल्लभ हैं याने सर्वथा प्राणातिपातका त्याग, सर्वथा झूठ बोलनेका त्याग, सर्वथा चोरीका त्याग, सर्वथा नारी संगतिका त्याग और सर्वथा धन संपद् का त्याग रखना, ये पाँचों वल्लभ हैं । लेकिन गुरुदेव ! आप जैसे किसी विरले ही सत्पुरुषने उन महाव्रत रूप रत्नोंकी शुद्ध प्रकारसे रक्षा की है ॥ ६०२ ॥ निर्दोष आहारपानी १ शय्या-याने विछानेके लिये कम्बलादि,२ वस्त्र, ३ और पात्र ४ ये चारों दोष रहित ग्रहण करना, और पात्र १, पात्रबन्धनजो वस्त्रकी चौखुणी झोली २, पात्रस्थापन-सब उपकरणोंको रखनेके वास्ते कम्बलका १ खण्ड ३, पात्रकेसरिया-पात्रादि पूंजनेके लिये छोटी चरवली-पूंजणी ४, पड़ला-गोचरी जानेके समय पात्रों पर ढांकनेके वास्ते तीन अथवा पाँच वस्त्रों के खण्ड ५, रजस्त्राण-पात्र वींटनेका चौकोण वस्त्र ६. गोच्छक-पात्रोंको ऊपर और नीचेसे मजबूत बान्धनेके वास्ते कम्बलके २ टुकड़े ७, ये सातों ही पात्रनियोग कहलाते हैं । तथा दो कपड़े सूतके ८-९, ऊनकी १ काम्बल १०, रजोहरण-धर्मध्वज ११, मुखवस्त्रिका १२, मात्र-गुरुपात्र विशेष १३, और चोलपट्टक १४, साधुओंके इन चउदह उपकरणोंके सिवाय अधिकतर वस्त्रादि नहीं रखना । एवं कपड़े धोनेमें अकारण साबू सोड़ा आदि क्षारके समूहको आपश्रीने अपने काममें कभी नहीं लिये ॥ ६०३ ॥
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५८
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। यतिस्त्यागी मुनियोंगी, महात्मा साधुरुच्यते । सुचिह्नः सैव भो'धर्म-समाजोद्धारकोऽपि च ॥६०४॥ प्रतिवर्षे चतुर्मास्या-मेकान्तरोपवासकैः । षष्ठैः प्रतिचतुर्मास्यां, दीपावल्यां तथैव च ॥ ६०५ ॥ आचाम्लैकाशनाद्यैर्यः, षट्पर्वतिथिषु स्फुटम् । दशम्यां वार्षिके चापि, सत्पर्वणि सदाऽष्टमैः ॥६०६॥ तपोभिश्चेदृशैः सद्भिः, श्रद्धया स्वात्मनिश्चितैः । प्रायेणाऽऽराधनांचक्रे, सत्तिथीनां सहाऽऽदरैः॥६०७॥
वाचकवृन्द ! इन सुन्दर लक्षणोंसे जो युक्त है वही यति, त्यागी, मुनि, योगी, महात्मा, साधु, और जैनधर्म व जैनसमाजके उद्धार करने वाले हो सकते हैं ।। ६०४ ॥ हरसालके चौमासेमें दो मास तक एकान्तर उपवास करने, तीनों चौमासा की चौदश पूनम और दिवालीके रोज छठ तप करने, निरन्तर छः पर्वतिथिकी तिथिओंमें एवं दशमीके दिन भी आंबिल एकाशनादिकों और वार्षिक-संवत्सरी पर्वमें अट्ठम तपसे, अतिश्रद्धा पूर्वक अपने आत्माके निश्चयों के साथ इस प्रकारके उत्तम तपोंसे उक्त तिथियोंकी सादर गुरुश्रीने आराधना की ६०५-६०६-६०७ ॥ तपोभिर्वायुवेगैश्चा-प्रतिबद्धविहारकैः । सद्ज्ञानध्यानमौनाद्यैः, प्रत्यक्षानुभवैः कृतः ॥६०८॥
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणभञ्जरी ।
सर्वथा श्रेष्ठवृत्तान्तै- महत्यस्मिन् कलावपि । पूर्वकालिकसूरीणा - मिहैवायमभूद्गुरुः
अनेक तरहकी तपस्याओं, पवन गतिके समान अप्रतिबद्ध विहारों और प्रत्यक्ष अनुभव किये गये महोत्तम ज्ञान ध्यान मौनादि सब प्रकारके श्रष्ठ वृत्तान्तों से इस महान कलियुग में भी प्राचीन काल के आर्योंके समान
ये गुरुदेव हुए ।। ६०८-६०९ ॥
५० श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय- गुरुपट्टावली
१५९
॥ ६०९ ॥
शासनेशो महावीरः, सुर्धर्मस्वाम्यभूत्ततः । जम्बूस्वामी तु तत्पद्दे, प्रभवस्वाम्यतः परम् ||६१०|| ततः शय्यं भवस्वामी, यशोद्रोऽभवद् बुधः । पहेsभूतां च सूरी द्वौ, संभूतिविजयोऽग्रजः ॥ ६११ ॥
१ श्रीसुधर्मस्वामीजी
२ श्रीजम्बूस्वामीजी
३ श्रीप्रभवस्वामीजी । ६१० ।
४ श्रीशय्यं भवस्वामीजी
श्री जिनशासन के अधिपति चौवीसवें तीर्थंकर श्री महावीरस्वामी के बाद
d
५ श्रीयशोभद्रसूरिजी
६
श्रीसंभूतिविजयजी ६११
श्रीभद्रबाहुस्वामीजी
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६०
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। स्वामी श्रीभद्रबाहुश्च, स्वाम्यासीत्स्थूलभद्रकः। आर्यमहागिरिविद्वा-नार्यः सुंहस्तिकोविदः ॥६१२॥ श्रीमत्सुस्थितसूरिश्च, सूरिः सुप्रतिबुद्धकः श्रीइन्द्रदिन्नसूरीशो, दिनसूरिमहागुणी ॥ ६१३ ॥ सूरिः सिंहँगिरिश्चासीद् वज्रस्वामी महामतिः। आचार्यों वज्रसेनस्तु, चन्द्रसूरिविनिर्मलः ॥ ६१४ ॥ सामन्तभद्रसूरिस्तु, वृद्धदेवमुनीश्वरः । श्रीपेंद्योतनसूरीशो, मानदेवकवीश्वरः ॥६१५ ॥ श्रीमानतुगसूरीशो, वीरसूरिः सुधीवरः । श्रीजयदेवमूरिश्व, देवानन्दस्तु कोविदः ॥६१६ ॥
७ श्रीस्थूलभद्रस्वामीजी १४ श्रीवज्रसेनसरिजी (श्रीआर्यमहागिरिजी १५ श्रीचन्द्रसूरिजी ॥६१४॥ " श्रीआर्यसुहस्तिसूरिजी १६ श्रीसामन्तभद्रसूरिजी
१७ श्रीवृद्धदेवसूरिजी [श्रीसुस्थितसूरिजी
१८ श्रीप्रद्योतनसूरिजी श्रीसुप्रतिबुद्धसूरिजी
१९ श्रीमानदेवसूरिजी।६१५॥ १० श्रीइन्द्रदिन्नसूरिजी
२० श्रीमानतुंगसूरिजी ११ श्रीदिन्नसूरिजी ६१३॥
२१ श्रीवीरसूरिजी । १२ श्रीसिंहगिरिसूरिजी २२ श्रीजयदेवसूरिजी १३ श्रीवास्वामीजी । २३ श्रीदेवानन्दसूरिजी।६१६।
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। विक्रमसूरिरानन्दी, सूरीशो नरसिंहकः । श्रीमसमुद्रसूरिर्वै, माँनदेवोऽतिपंडितः ॥ ६१७।। विधुंधप्रभसूरिस्तु, जयानन्दश्च दोषजित् । अभूद्रविप्रभाचार्यो, यशोदेवोऽतिकीर्तिभाक्॥६१८॥ श्रीमान् प्रद्युम्न सूरिस्तु, मानदेवो महाकृती । विमलचन्द्रसूरीशः, सूरिरुद्योतनस्तथा ॥६१९ ।। सर्वदेवाभिधाचार्यो, देवसूरिमहामतिः। सर्वदेवो महाचार्यो, यशोभद्रस्तथा बुधः ॥ ६२० ।। श्रीनेमिचन्द्रसूरिस्तु, मुनिचन्द्रो मुनीश्वरः। आचार्योऽजितदेवस्तु, जयसूरिर्जयान्वितः॥ ६२१ ॥
२४ श्रीविक्रमसूरिजी २५ श्रीनरसिंहसूरिजी २६ श्रीसमुद्रसूरिजी २७ श्रीमानदेवसूरिजी ।६१७। २८ श्रीविबुधप्रभसूरिजी २९ श्रीजयानन्दसूरिजी ३० श्रीरविप्रभसूरिजी ३१ श्रीयशोदेवसूरिजी।६१८॥ ३२ श्रीप्रद्युम्नसूरिजी ३३ श्रीमानदेवसूरिजी
११
३४ श्रीविमलचन्द्रसूरिजी ३५ श्रीउद्योतनसूरिजी ।६१९॥ ३६ श्रीसर्वदेवसूरिजी ३७ श्रीदेवसूरिजी ३८ श्रीसर्वदेवसूरिजी .श्रीयशोभद्रसूरिजी ६२०
। श्रीनेमिचन्द्रसूरिजी । ४० श्रीमुनिचन्द्रसूरिजी ४१ श्रीअजितदेवसूरिजी ४२ श्रीजयसूरिजी ॥६२१॥
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी । श्रीमत्सोमप्रभाचार्यों, मणिरत्नाह्रयोऽपरः । श्रीर्जंगचन्द्रसूरिस्तु, श्रीदेवेन्द्रबुधस्तु वै ॥ ६२२ ॥
१६२
विद्यानन्दोऽपरः सूरि-धर्मघोषो गणेश्वरः । श्री सोमप्रभसूरिस्तु, श्रीसोर्मेतिलको बुधः ॥ ६२३ ॥ देव सुन्दर सत्सूरि-र्धीवरः सोमसुन्दरः । मुनिसुन्दर आचार्यो, रत्नशेखर पण्डितः ॥ ६२४ ॥ लक्ष्मी सागरसूरिस्तु, सुर्मेतिसाधुसद्बुधः । हे विमलसूरिर्वे, आर्नेन्दविमलो बुधः ।। ६२५ ॥ विजयैदान सूरीशः, श्रीहीरें विजयस्सुधीः । सूरिर्विजयसेनोऽभू-द्विजयदेवकोविदः
॥ ६२६ ॥
श्री सोमप्रभसूरिजी श्रीमणिरत्नसरिजी
४३
४४ श्रीजगञ्चन्द्रसूरिजी
४५
| श्रीदेवेन्द्रसूरिजी । ६२२। | श्रीविद्यानन्दसूरिजी ४६ श्रीधर्मघोषसूरिजी
४७ श्रीसोमप्रभसूरिजी
४८ श्री सो मतिलक सूरिजी ६२३
४९ श्रीदेवसुन्दरसूरिजी
५० श्रीसोमसुन्दरसूरिजी
५१ श्री मुनिसुन्दरसूरिजी
५२ श्रीरत्नशेखरसूरिजी ६२४ ५३ श्रीलक्ष्मीसागरसूरिजी
५४ श्रीसुमतिसाधुसूरिजी
५५ श्रीमत्रिमलसूरिजी
५६ श्री आनन्दविमलसूरिजी
५७ श्रीविजयदानसूरिजी
५८ श्रीविजयहीरसूरिजी ५९ श्री विजय सेन सूरिजी
६० श्रीविजयदेवसूरिजी
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
विजयसिंह सूरिस्त्वा -चार्यः श्रीविजयप्रभः । विजयरत्नसूरिस्तु, क्षमासूरिस्तु धीधनः ॥ ६२७ ॥
सूरिर्विजयदेवेन्द्रः, कल्याणसूरिरात्मवित् । प्रमोदाख्यस्तु तत्पट्टे, सूरेस्तु गुणभूषितः ॥ ६२८ ॥
६१ श्रीविजयसिंहसूरिजी
६२ श्रीविजयप्रभसूरिजी ६३ श्रीविजयरत्नसूरिजी ६४ श्रीविजयवृद्धक्षमासूरिजी
१६३
६५ श्रीविजयदेवेन्द्र रिजी ६६ श्रीविजय कल्याणसूरिजी ६७ श्रीविजयप्रमोदसूरिजी
६२७-६२८ ॥
नन्दतादेव सद्राजिः, सूरीणामित्थमायतौ ॥ जिनादेशप्रवृत्तानां, श्रीवीरजिनशासने
॥ ६२९ ॥
तद्भक्तानां सदा चैषा, कल्पवल्लीव देहिनाम् । धर्मप्राप्रत्युपदेशेन, चिन्तितार्थप्रदायिनी ॥ ६३० ॥
इसी प्रकार वर्तमान जिनेश्वर - श्रीमहावीरस्वामीके शासन में आगामिक कालमें भी जिनेन्द्र भगवानकी आज्ञामें चलनेवाले आचार्योंकी उत्तम श्रेणी प्रतिदिन वृद्धिको प्राप्त हो और यह पट्टावलि उन आचार्योंके भक्त प्राणियोंके हमेशा धर्मप्राप्ति के उपदेश द्वारा कल्पवेलके समान उनके अतिशय मनोवांछित मनोरथों को पूर्ण करने वाली हो ॥ ६२९--६३० ॥
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४
१६४ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।
५१-प्रशस्तिःपट्टेऽस्य सद्गुणनिधिश्च महाप्रतापी, येन क्रियोद्धृतिरकारि तितीर्पणा वै । संदृब्धभूरिसमयोऽत्युपकारहेतो, राजेन्द्रसूरिरिह मे गुरुरीदृशोऽभूत् ॥६३१॥ स्वान्यदीयागमज्ञाता, विजितात्मा दयानिधिः । दशदिक्स्फूर्तिसत्कीर्तिः, पूज्योऽभूत्कोविदैरपि ॥ श्रीआहोरे बृहद्दीक्षा, दत्ता येन मरुस्थले । योगोद्वाही च सूत्राणां, स मे स्वान्तेऽनिशं वसेत्॥
प्रमोदसूरिजीके पाट पर उत्तम गुण निधान अतिशय प्रतापशाली संसारको तिरने की इच्छासे जिन्होंने क्रियोद्धार किया और महोपकारके कारण जिन्होंने 'प्राकृतमागधीअभिधानराजेन्द्रकोश' आदि अनेक ग्रन्थ बनाये वे श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज मेरे गुरु हुए हैं, स्वशास्त्रों और परशास्त्रों के अद्वितीय विद्वान्, जिन्होंने अपने आत्माको अन्त तक वशमें रक्खा, बड़े ही दयाके भण्डार, जिनकी दशों ही दिशाओं में निर्मल कीर्ति फैली हुई है, एवं वे पण्डितोंसे भी पूजनीय थे-जिन्होंने ही श्रीआहोर मारवाड़ में सं० १९५७ माघ सुदि वसन्तपंचभीके रोज बहुतसे साधु साध्वियोंके युक्त मुझे बड़ी दीक्षा दी और सूत्रोंके योगोद्वाहन
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।
१६५ कराए ऐसे महोपकारी गुरुदेव सदैव मेरे अन्तःकरणमें वसते हैं ॥ ६३१-६३२ ॥ यश्चोन्नतिं बहुविधां जिनशासनस्य, सद्भाषणेन सुजनोपकृतिं व्यधत्त । दुर्वादिकुञ्जरकुदर्पहरैकसिंहस्तत्पदृमण्डनकरो धनचन्द्रसूरिः ॥६३४॥ प्रश्नोत्तरतरंगश्च, मांसभक्षणवारकम् । श्रीजैनकल्पवृक्षस्तु, शीलसुन्दरी-रासकम् ।। ६३५ ।। चतुर्थस्तुतिनिर्णय-शंकोद्धारो महोत्तरम् । शास्त्राण्येवमनेकानि, कृतानि सुधियाऽमुना।। ६३६॥
उन श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिजी महाराजके पाटको सुशोभित करने वाले कलिकालसिद्धान्तशिरोमणि-श्वेताम्बरजैना चार्य श्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरिजी महाराज हुए, जिन्होंने नाना प्रकारसे जिनशासनकी उन्नति की, उत्तम व्याख्यानों द्वारा भव्य प्राणियोंका उपकार किया और दुष्टवादी रूप हाथियोंके अहंकारको नष्ट करनेमें सिंहके समान हुए और प्रश्नामृतप्रश्नोत्तरतरंग १, जैनजनमांसभक्षणनिषेध २, जैनकल्पवृक्ष ३, शीलसुन्दरीरास ४, चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धार दूसरा नाम 'चतुर्थस्तुतियुक्तिनिर्णयच्छे दनकुठार' भी है ५, जैनविधवापुनर्लग्ननिषेध ६, प्रश्नोत्तरमालिका ७, ढूँढकनन्दराममतखण्डन ८ और त्रिस्तुतिकप्रभाकर ९ इत्यादि ग्रन्थों जिनमें
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। कईएक ऐतिहासिक, प्रश्नोत्तरात्मक, वैराग्यरसोत्पादक, चर्चात्मक और संगीतरसका अपूर्वानन्द देनेवाले भी हैं, बुद्धिमानी के साथ गुरुश्रीने इस प्रकार अनेक ग्रन्थ बनाये हैं ॥ ६३४-६३६ ॥ मार्गशीर्षसितोष्टम्यां, प्रियालाधो जनबजे । लघुदीक्षागुरुर्मेऽभूद्, भीनमाले महोत्सवैः ॥६३७॥ दिनक्षपाऽऽश्रमेणैव, परोपकारिणा मुदा। साधुक्रियाकृतीचक्रे, लोकद्वयहितेच्छया ॥६३८||
पट्टेऽस्य सौभाग्यगुणांशुमाली, शास्त्रेषु सर्वेष्विति बुद्धिशाली।
सौधर्मगच्छे बृहदन्वितेऽस्मिन् , भूपेन्द्रसूरि वि राजतेऽसौ
॥६३९॥ जो संवत् १९५४ मगसिर सुदि अष्टमीके रोज मरुधरदेशीय शहर भीनमाल मारवाड़ में अष्टाहिक-महोत्सबके साथ अति प्राचीन रायणवृक्षके अधो भागमें ५००० हजार जनताके अन्दर मेरे लघुदीक्षोपसंपद् गुरु हुए और दिन रातमें बड़े ही परिश्रमके साथ उभय लोक सुधारनेकी चाहसे सहर्ष इन परोपकारी गुरुश्रीने मुझे कुल साधुके क्रियाकाण्डमें कुशल बनाया। इन श्रीविजयधनचन्द्रसूरिजीके पाट पर सौभागी गुणोंसे सूर्यके समान तेजस्वी सब शास्त्रों में अति प्रज्ञाशाली सौधर्मबृहत्तपागच्छमें साहित्यविशारद-विद्याभूषण-श्वेताम्बर
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
१६७
जैनाचार्य - श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरीश्वरजी महराज अत्यन्त शोभा
दे रहे हैं । ६३७-६३९ ।।
आदेयसूक्तिः समसौख्यदाता, भ्राता विपक्षेsपि सदाऽऽत्मना यः । कीर्तिश्चतुर्दिक्षु सुविस्तृता हि, भूपेन्द्रसूरिं तमहं स्मरामि
॥ ६४० ॥
भो ! जीवनप्रभा ग्रन्थ- मुपजीव्य विशेषतः । यथा दृष्टं श्रुतं चापि, गुरुवृत्तं गुणाद्भुतम् ॥ ६४१ ॥ तथास्यां गुणमञ्जर्यां, सुसत्यं योजितं मया । अष्टाष्टरत्नभूवर्षे, फाल्गुने सितदितिथौ || ६४२ || श्रीगोडी पार्श्वनाथस्य, द्विपञ्चाशज्जिनौकसाम् | स्वामिनो दयया शीघ्र - मेषा संपूर्णतामगात् ||६४३ ||
सदैव जिनके अंगीकरणीय वचन हैं, सब लोगों को सुख देनेवाले, जो अपनी आत्मासे शत्रु पर भी बन्धुत्व भाव रखने वाले, उस कारण उनकी चारों दिशाओं में अत्यन्त सुकीर्ति फैल गई है, ऐसे श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरिजी महाराजको मैं बारम्वार स्मरण करता हूं । वाचकवर ! इस 'राजेन्द्रगुणमञ्जरी' में अधिकांश कर व्याख्यानवाचस्पति- मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी विरचित 'जीवनप्रभा ग्रन्थके तथा अन्य अनेक पुस्तकोंके अनुसार सत्य गुणोंसे युक्त जैसा देखा, सुना' वैसा वृतान्त आहोर नगर ( मारवाड़) में संवत् १९८८ फाल्गुन सुदि दशमी के
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
-१६८
श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
रोज मैंने निर्माण-संग्रह किया है और म मानता हूं कि यह 'राजेन्द्रगुणमंजरी' बावन जिनालयोंके अधिपतित्व से सुशोभित श्रीगोड़ीपार्श्वनाथजी की अनुकम्पा के योगसे शीघ्र ही संपूर्णता को प्राप्त हुई ।। ६४० - ६४३ ।।
नैवास्यां पद्यलालित्यं, नाऽलङ्कारचमत्कृतिः । नैवोपमौपमेयोsपि, नैव चास्त्यर्थगौरवम् ॥ ६४४ ॥ स्वल्पमत्या कृता चेय- माहोरेऽस्मिन् पुरे वरे । हर्षेण गुरुभक्त्यर्थं, गुलाबविजयेन वै ॥ ६४५ ॥ उत्तमानां चरित्रेण, स्वश्रेयोऽर्थेऽखिलैर्जनैः । तन्मर्यादा सदा धार्यै तदर्थं हि चरित्रकम् ।। ६४६ ।। ये गायन्ति गुरोः कीर्ति, कीर्तिभाजो भवन्ति ते । परत्रेह मनोऽभीष्टां, लभन्ते सर्वसम्पदः ॥ ६४७ ॥ ये श्रोष्यन्ति पठिष्यन्ति, सुभक्त्येमां च सद्गुरोः । यथैवेह लताभिर्दुः, सुश्लिष्टास्ते सदार्द्धभिः ॥ ६४८ ॥
इसमें पदोंका अति सुन्दरपन नहीं, अनोखे २ अलङ्का-रोंका चमत्कार नहीं, उपमा औपमेय नहीं, और अर्थकी गहनता भी नहीं है । किन्तु हर्ष युक्त केवल गुरुभक्ति के लिये अल्पबुद्धि 'गुलाबविजय ' नामक शिष्यने मरुधर देशान्तर्गत श्रेष्ठ शहर श्रीआहोर में यह 'राजेन्द्रगुणमञ्जरी' बनाई। सत्पुरुषोंके चरित्र द्वारा सभी साधारण लोगों को अपने आत्मकल्याणके वास्ते हमेशा उन उत्तम पुरुषोंकी मर्यादा धारण करना
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्चरी।
१६९ चाहिये, इसी लिये उनके चरित्र बनाये जाते हैं और प्रकाशित भी किये जाते हैं । जो पुरुष गुरुमहाराजकी उत्तम कीर्तिको गाते हैं वे स्वयं कीर्तिके पात्र बनते हैं। जो नर सुन्दर भक्तिसे गुरुदेवकी इस 'राजेन्द्रगुणमञ्जरी' को सुनेंगे व वाँचेंगे तो वेलड़ियोंसे जैसे-वृक्ष बीट लिया जाता है, वैसेही वे नर भी उत्तम ऋद्धियोंसे बीट लिये जायँगे-यानी उनको सब प्रकारकी सुख संपत्तियाँ स्वयमेव मिलेंगी ।। ६४४-६४८ ॥ मूले हिन्द्यनुवादे च, दत्ता चारुसहायता। श्रीमद्विजयभूपेन्द्र-सूरिभी रम्यधीधनैः ॥६४९।। पतितं नाद्यपर्यन्तं, कार्यमीहग्गुणग्रहैः। विज्ञैर्मुक्त्वा हि मे हास्यं,तौसंशोध्यौ सहाऽऽदरैः६५० नीरमध्याद्यथा हंसः, सारं गृह्णाति केवलम् । उत्तमानामियं रीती, रक्तपेव भवेन्नहि ॥६५१॥ यावच्छत्रुञ्जयस्तीर्थ-श्चन्द्रादित्यसुमेरवः । पृथ्वीसागरनक्षत्र-धर्माधर्मविचारणम् ॥६५२॥ चतुर्विधोऽस्ति संघश्च, विद्यते जिनशासनम् । तावत्संघे जयत्वेषा, पट्यमानात्र सन्नरैः ॥६५३।। ___इसके मूल और हिन्दी अनुवादमें सुन्दर बुद्धि रूप द्रव्य व्यय करनेवाले श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने मुझे अच्छी सहायता दी। क्योंकि मेरे इस प्रकारका कार्य आज दिन तक नहीं पड़ा, जिस कारण यदि मेरी बुद्धिकी हीनता
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७०
श्री राजेन्द्र गुणमञ्जरी ।
आदि अनेक दोषोंसे कहीं भी अशुद्धि रही हो तो ईर्ष्या द्वेष रहित गुणग्राही दयाशील विचक्षण लोगोंको मेरे उपहासको छोड़कर आदर पूर्वक इस 'राजेन्द्रगुणमंजरी' के मूल व अनुवादका भी संशोधन करना चाहिये। जिस प्रकार दूधजलके अन्दरसे हंस- पक्षी सारभूत - दूधको ग्रहण करता है वैसी ही उत्तम पुरुषोंकी प्रकृति होती है, लेकिन बिगड़े खूनको पीनेवाली जलोककी तरह उत्तम पुरुषोंकी प्रकृति नहीं होती । अब कर्त्ता की अन्तिम मांगलिक प्रार्थना है कि - जहाँ तक इस संसारके अन्दर प्रायः शाश्वत श्रीसिद्धाचल तीर्थ, चन्द्रमा सूर्य, सुमेरू, पृथिवी, समुद्र, नक्षत्र, धर्माधर्मका विचार, चतुर्विध श्रीसंघ और वीरजिनेश्वरदेव का शासन विद्यमान रहे वहाँ तक चतुर्विध श्रीसंघ में सज्जन लोगोंसे वाँची जाती हुई यह 'श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी' भी जयवन्त रहो ||६४९-६५३ ।।
५२ - राजेन्द्रगुणमञ्जरी - परिशिष्टकम् ।
।
शरणानि गृहीत्वा च स्वर्गं सुखसमाधिना । पत्तनेऽगुस्तु चाssहोरे, श्रीमद्भूपेन्द्रसूरयः ॥ १ ॥ गुणाङ्काङ्करसाब्देऽत्र, माघशुभ्रमुनौ तिथौ । संघश्चक्रेऽथ तद्द्भक्त्यै, द्विकाष्ठाह्निमहोत्सवम् ॥ २ ॥ परग्रामात्समागच्छ तत्स्वर्वासं निशम्य च । श्रीसंघः शुभभावेन, गुरुभक्त्यै बहुस्तदा ॥३॥
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी । देशदेशान्तरेऽप्येवं, धर्मकृत्यप्रभावनाम् । तद्गुणाकर्षितः संघ-चक्रे पूजोत्सवादिकम् ॥ ४ ॥
संवत् १९९३ माघशुक्ला ७ को श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने अरिहन्त, सिद्ध, सुसाधु और केवली भाषित जिनधर्म इन चार का शरण लेकर खुख समाधि पूर्वक श्रीआहोर नगर (मारवाड़) में स्वर्ग को प्रयाण किया । आपका स्वर्ग गमन सुनकर अन्य ग्रामोंसे भी बहुतसे संघ समुदाय आये और सकल श्रीसंघने अत्याडम्बर से सविधि भक्ति पूर्वक सूरीश्वरजीकी अग्निसंस्कारादि क्रिया की । उसके बाद श्रीसंघकी ओरसे गुरुभक्तिके निमित्त दो अष्टाहिक महोत्सवके साथ दो स्वामिवात्सल्य भी हुए और अनुकंपया दीन हीन अपंगादि दुःखी नर समूहको अन्न वस्त्रादि तथा पशुओंको चारा पानी आदिसे बहुत ही सहायता पहुँचाई गई । इसी प्रकार आप त्रीके शान्तस्वभाव, सरलता, विद्वचादि अनेक सद्गुणाकर्षित मरुधर, गुर्जर, मालवा, आदिक स्वपरदेशों में भी अष्टाहिक महोत्सव पूजा प्रभावनादि पुण्य कृत्य किये गये ।। १-२-३-४ ॥
१७१
पट्टेऽस्य निर्मलमतेः ससुखं हि यस्य, चाssहोरसंघसकलेन कृतोऽभिषेकः । पञ्चाङ्कभक्तिधरणौ शुभराधमासे,
पट्टस्य युक्तिसुमहः सितदिक्तिौ च ॥५॥
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७२
श्रीराजेन्द्र गुणमञ्जरी ।
सत्प्रार्थनामयमिमामकरोत्सुभावाद्, गच्छप्रबन्धरुचिरं सुमुने ! विधेयम् ।
सद्बुद्धिकोविदगुणेन विराजितात्मा, जीयात्स चात्र विजयाद्ययतीन्द्रसूरिः ॥ ६ ॥
उन विमल बुद्धिमान साहित्यविशारद - विद्याभूषणजैनाचार्य श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजके पाट पर संवत् १९९५ वैशाखशुक्ला दशमी के दिन शुभ मुहूर्त्त में स्वपरदेशीय - चतुर्विध श्रीसंघ युक्त श्रीआहोर नगरके सौधर्म बृहतपोगच्छीय- समस्त श्रीसंघने व्याख्यानवाचस्पत्युपाध्याय श्रीमद्यतीन्द्रविजयजी महाराजका बड़े ही समारोहके साथ पट्टाभिषेक महोत्सव किया और उस मौके पर उत्तम भावसे श्रीसंघने प्रार्थना की कि - हे मुनीश्वर ! सर्व प्रकारसे गुरुगच्छका सुन्दर प्रबन्ध करें । उस विज्ञप्तिको सादर स्वीकार की | अतः सुबुद्धिशाली विद्वत्तादि गुणोंसे शोभित वे श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरिजी महाराज जयवन्त रहें ।। ५-६ ।।
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनाचार्य - श्रीमद् - विजयराजेन्द्रसूरीश्वराणां सार्थगुणाऽष्टकम् ।
शार्दूलविक्रीडित छन्दसि -
सलाजननं पुरेऽत्र भरते यस्यौसवंशे शुभे, यस्याऽम्बाऽजनि केसरी ऋषभदासश्चेभ्यराड् यत्पिता बाल्येऽमोदयताऽखिलानपि गुणैर्यो रत्नराजः शुभैस्तं भव्याः प्रणमन्तु सूरिगुणिनं राजेन्द्रसूरीश्वरम् | १|
भव्यो ! जिनका इस संसार में रमणीय भरतपुर नामक शहरके अन्दर शुभ समय उत्तम ओसवंश में सं० १८८३ की सालमें जन्म हुआ, उनके पिता श्रेष्ठिवर्य - ऋषभदासजी और माता सुशीला केसरी बाई थी । गर्भावासमें मातुश्रीको रत्नका शुभ स्वम आनेके कारण महोत्सव पूर्वक सहर्ष आपश्रीका शुभ नाम ' रत्नराज ' रक्खा गया । ये रत्नराजजी बड़े ही भाग्यशाली होने की वजहसे बाल्यावस्था में ही अपने मनोहर गुणोंसे सबको अतीव खुश करते थे । इसलिये सज्जनो ! आप लोग आचार्यके छत्ती सगुण युक्त - जैनश्वेताम्बराचायश्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजको सदैव नमस्कार करो ॥ १ ॥
यो वैराग्यसुरञ्जितोऽल्पवयसि श्रुत्वोपदेशं गुरोब्रह्मास्याम्बररत्न भूमिसमिते संसारपीडापहाम् ।
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री राजेन्द्र गुणमञ्जरी ।
संसाराधितरं प्रमोदविजयाssसन्ने च दीक्षां ललौ, संजित्याक्षहयव्रजं निजगुणान् धत्ते स्वचित्तेऽनिशम् श्रीमत्सागरचन्द्रनामकयतेः सत्काव्यकोषादिकान्, यो जैनागममध्यगाच मतिमान् देवेन्द्रसूरेर्जवात ।
१७४
जिन्होंने एक समय बाल्यावस्था में श्रीविजय प्रमोदस्रिजी गुरुका सदुपदेश सुनकर शीघ्र ही वैराग्य रंगसे अति रञ्जित होकर स्वकुटुम्बकी आज्ञा युक्त विक्रम सं० १९०४ वैशाख सुदि ५ शुक्रवार के रोज श्रीप्रमोदसूरिजी के बड़े गुरुभ्राता श्रीमविजयजीके पास संसार रूप समुद्रको तिरनेके लिये जहाज के समान एवं संसारकी कुल बाधाओं को दूरकरने वाली ऐसी जैनी दीक्षा ग्रहण की और आपका शुभ नाम श्रीरत्नविजयजी रक्खा गया । तदनन्तर पाँच इन्द्रिय रूप अश्वोंके समुदाय को जीतकर अपने ज्ञान दर्शन चारित्रादि उत्तम गुणों को सदैव अपनी आत्मामें धारण किये || २ || पश्चात् बुद्धिशाली आपश्रीने खरतरगच्छीययतिप्रवर- श्रीमान् सागरचन्द्रजीसे सम्यक्तया काव्य, कोष, व्याकरण, छन्द, अलङ्कार, तर्क आदिका अभ्यास किया । इसी प्रकार तपागच्छीय - श्रीपूज्य श्रीदेवेन्द्रसूरिजीसे शंका समाधान सहित शीघ्र ही कुल जैनागमों का अध्ययन भी किया ।
श्री पूज्योऽखिल भारमर्पयदमुं गच्छस्य सोऽगाद्दिवं, तच्छिष्यस्य सुपाठयन् गुरुरथो जातो विवादो मिथः ॥
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।। आहोरे गुरुपार्श्वमैत्य गदितं वृत्तं च संघं गुरुं, तद्वक्रत्वमवेक्ष्य तो पदमदात् श्रेपूज्यमस्मै मुदा । पूज्योपाधिमलश्चकार बहुधा सन्नीतिरीत्या सुधीदेशे मालवके मरीच विरहन सोऽगात्क्रमाजावराम्॥
बाद अपनी अन्तिमावस्थामें कुल गच्छका भार श्रीरत्नविजयजी को समर्पण करके श्रीदेवेन्द्रसूरिजी तो शहर राधनपुरमें देवलोक प्राप्त हो गये । पीछे गुरुश्री देवेन्द्रसूरिजीके पट्टधर श्रीधरणेन्द्रसूरिजीको विद्याभ्यास कराते हुए एकदा सं० १९२३ घाणेरावके चौमासेमें श्रीपूज्य और गुरुश्रीके परस्पर इनके विषयमें बहुत ही विवाद हो गया ॥ ३ ॥ अतएव गुरुश्री श्रीप्रमोदरुचिजी श्रीधनविजयजी आदि श्रेष्ठ यतियों के साथ घाणेरावसे विहार करके आहोरमें विराजित स्वगुरु श्रीप्रमोदसूरिजीके पास पहुंच कर गुरु व संघको सब पूर्वोक्त घटना कही, उन्हें सुनकर गुरु और श्रीसंघने श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरिजीकी निरंकुशता जानकर सं० १९२४ वैशाख सुदि ५ वुधवारके रोज सोत्सव सहर्ष श्रीरत्नविजयजीको श्रीपूज्य पदवी देकर ' श्रीविजयराजेन्द्रमूरि' नामसे सुशोभित किया। गुरुदेव भी उत्तम नीति रीतिके साथ श्रीपूज्य पदवीको अत्यन्त सुशोभित करते हुए अनुक्रमसे मारवाड़ मेवाड़ और मालवा देशोंमें विचरते हुए क्रमसे जावरा नगर पधारे ॥ ४॥
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७६
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। त्यक्त्वा सर्वपरिग्रहं कुगतिदं श्रीसंघभक्त्युत्सवै
र्बाणाक्ष्यङ्कधराब्दकेऽत्र सुधिया चक्रे क्रियोद्धारकम् । मर्यादां नवधां च पूज्ययतिभिः स्वीकारयित्वाऽऽनतैः, सद्यत्नं चरणेऽथ यस्य करणे स्तुत्यं ह्यभूत्पालने ॥ सच्छिष्यैर्विचचार सार्धमवनौ यस्योपदेशादभूदुद्धारं च जिनौकसामभिनवाः सद्धर्मशालादयः । ज्ञानागारजिनेश्वराञ्जनशलाकाहत्प्रतिष्ठाः कृता, भव्येभ्यो व्रतयुग्मकं च सहितं सम्यक्त्वरत्नं ददौ ।। ___ यहाँ पूर्ण नम्रीभूत श्रीधरणेन्द्रसरिजी और यतिलोगोंसे गच्छ सुधाराकी नव मर्यादाओंको स्वीकार करवा कर दुर्गति देने वाला श्रीपूज्य संबन्धी सब परिग्रहका त्याग कर सुबुद्धिसे गुरुश्रीने सं० १९२५ आषाढ़ शुक्ला दशमीके रोज श्रीजावरा श्रीसंघकी ओरसे अति भक्ति पूर्वक महोत्सबके साथ श्रीप्रमोदरुचिजी श्रीधनविजयजी एवं शिष्यों युक्त क्रियोद्धार किया । उसके बाद आपश्रीका चरण ७० सित्तरि और
१-प्राणातिपातादि पाँच महाव्रत ५, दशविध यतिधर्म १५, सत्तरह प्रकारके संयम ३२, दश प्रकारका वैयावृत्त्य ४२, नव प्रकार की ब्रह्मचर्य गुप्ति ५१, ज्ञानादि त्रिक ५४, बारह प्रकारका तप ६६ तथा क्रोधादि चार कपायका जय ७० ये चारित्र के सित्तर भेद जानना ।
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।
१७७ करण ७० सित्तरि रूप साधुके कर्मकाण्डके पालन करने में अतीव प्रशंसनीय सुन्दर उद्योग शुरू हुआ (५) और उत्तम शिष्योंके साथ भूमण्डल पर विचरना हुआ, उसमें आपश्रीके सदुपदेशसे जिनेश्वरोंके अनेक जीर्ण जिनालयोंके उद्धार हुए, स्थान स्थान पर नये २ उत्तम शिखरबन्ध जिनमन्दिर एवं धर्मशाला पाठशालाएँ आदि हुईं, और अनेक श्रावक श्राविकाओंको सम्यक्त्व रूप रत्नप्रदान पूर्वक साधुओंके पंच महाव्रत, श्रावकोंके द्वादश व्रत, एवं रात्रिमें भोजन वर्जन आदि यम नियम दिये, अतएव आपश्रीके हजारों श्रीसंघ अनुयायी बने (६) दुष्कर्मेन्धनवह्नितुल्यमकरोद्योऽनेकधा सत्तपः, सद्ग्रन्थाँश्च विनिर्ममे बुधमतान् राजेन्द्रकोषादिकान्
१--बेतालीस प्रकार की पिंडविशुद्धि ( ४२ दोष रहित आहारादि की गवेषणा करना) ४२, पाँच समिति ४७, द्वादश भावना ५९, बारह साधुप्रतिमा ६०, पाँच इन्द्रियों का निग्रह ६५, प्रतिलेखन ( पडिलेहण ) ६६, तीन गुप्ति ६९, और अभिग्रह (प्रतिज्ञा) ये ७० सित्तर । अथवा पक्षान्तरसे-दोष रहित आहार १, उपाश्रय २, वस्त्र ३, पात्र ४, इन की गवेषणा वो पिंडविशुद्धि ४, पाँच समिति ९, बारह भावना २१, बारह प्रतिमा ३३, पाँच इन्द्रियनिरोध ३८, पञ्चीस प्रतिलेखना ६३, तीन गुप्ति ६६, चार अभिग्रह (द्रव्य १, क्षेत्र २, काल ३, और भाव ४ ) इस प्रकार भी करण सित्तरि के भेद होते हैं।
१२
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७८ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। ज्ञानध्यानबलेन भव्यसुखदं भाव्यादिकं सूदितं, यद्भक्तोऽजनि झाबुआक्षितिपति!ष्ट्यां सिरोहीनृपः७ - और गुरुश्रीने अष्ट कर्म रूप इन्धनको जलानेके लिये अग्निके समान नाना प्रकारके उत्तम २ तप किये । जैसे मारवाड़-देशान्तर्गत मोदरा गाँव के बनमें सुसाधुगुण युक्त श्रीधनविजयजी महाराजके सहित नानाविध उपसर्गों को सहन करते हुए गुरुश्रीने अनेक प्रकार के तप किये। इसी प्रकार शहर जालोर के पर्वतादिकों में भी जानना चाहिये। विद्वानों को अति माननीय श्रीअभिधानराजेन्द्रकोष' शब्दाम्बुधिकोश, प्राकृतव्याकरण आदि बहुत ही उपयोगिक
१-प्राणातिपात १, मृषावाद २, अदत्तादान ३, मैथुन ४, परिग्रह ५, और रात्रिभोजन ६, इन छःओंका सर्वथा त्रियोगसे त्यागरूप छः व्रत कहलाते हैं । पृथिवीकाय १, अप्काय २, तेजस्काय ३, वायुकाय ४, वनस्पतिकाय ५, और त्रसकाय ६, इन षट्कायके जीवोंकी रक्षा करना । स्पर्शेन्द्रिय १, रसनेन्द्रिय २, घ्राणेन्द्रिय ३, चक्षुरिन्द्रिय ४, और श्रोत्रेन्द्रिय ५, इन पाँच इन्द्रियों और लोभका निग्रह करना १८, क्षमा १९, भावकी विशुद्धि २०, पडिलेहण करने में विशुद्धि २१, सुसंयमयोग-युक्त २२, अकुशल मन २३, वचन २४, कायाका संरोध २५, शीतादि पीड़ा का सहन २६, और मरणान्त उपसर्ग सहन २७, इन सत्तावीस गुणोंसे जो साधु विभूषित हैं। वे ही भव्य जीवों के नमस्कार करने योग्य हैं, अन्य नहीं ।
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
१७९
उत्तम २ ग्रन्थ बनाये, ज्ञान और ध्यानके बलसे भव्य लोगों के सुखदाई होनहार व अनहोनहार के अनेक वृत्तान्त प्रकाशन किये थे, जैसे- एक समय गुरुमहाराज विचरते हुए संवत् १९५२ की साल उषाकाल में शुभ ध्यान के योग से प्रथम से ही अपने शिष्यों को कह दिया था कि - " शिष्यों ! शहर कुकसीमें बड़ा भारी अग्निका उपद्रव होगा " उसी प्रकार १९ दिनके बाद वह सारी कूकसी जल गई । यह वृत्तान्त वहाँके समीपवर्ती ग्रामों के बहुत से लोग जानते हैं, शिष्यवर्ग इस भूतपूर्व दृष्टान्तको प्रत्यक्ष देखकर बड़े ही अचंभित हुए || १ | इसी प्रकार संवत् १९४१ की साल शहर अमदाबाद में भी रत्नपोलके अन्दर महान् अग्निका उपद्रव हुआ उस समय जलनेके भय से समीपवर्ती जिनालय में विराजित श्रीमहावीर प्रभुके बिम्बको श्रेष्ठिवर्यने एकदम उठाकर अन्य स्थानमें स्थापन कर दिया उसी वक्त इस कुल बनावको किसी एक श्रावकने आकर गुरुमहाराज से निवेदन किया । बस उसको सुनते ही गुरुश्रीने ज्ञानबलसे कहा " भो भद्र ! प्रभुको उठाकर अन्यत्र स्थापन किया यह कार्य ठीक नहीं किया, जब श्रावकने पूछा ठीक क्यों नहीं ? तब गुरुमहाराजने फरमाया कि उस समय में जिनमूर्तिको उठवा - कर अन्यत्र स्थापनेसे मंदिर बनवाने वाले सेठ के पुत्रहानि अथवा धनहानि होगी । " बस, एक मासके बाद अचानक रोग पीड़ासे पीड़ित होकर बड़ा ही प्रतिष्ठित सेठका बड़ा
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८०
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। लड़का मर गया । इस प्रकार गुरुका प्रत्यक्ष ज्ञानवल देखकर वहाँके श्रावक लोग आदि अतीव चमत्कार को प्राप्त हुए और गुरुके विशिष्ट ज्ञानकी एक मुखसे प्रशंसा करने लगे ॥ २ ॥ गुरुश्रीने ध्यानबलसे मेघवृष्टिका होना तो कइएक वार बतलाया था, जैसे-शिष्यो ! आज रात्रिमें ध्यानस्थ मैंने क्षेत्रोंमें व अरण्यों में स्थान स्थान पर जल ही जल देखा, दूसरे दिन वैसाही हुआ देखकर शिष्योंने अपने आत्मामें महान् आश्चर्य मानकर गुरुमहाराजके ध्यानमाहात्म्यका परस्पर खूब ही वर्णन किया ॥३ ।। संवत् १९५८ की साल गाँव सियाणामें स्वशिष्य मण्डल सह आपश्री २४ देहरियों में स्थापन करने के लिये चौवीस जिनेश्वरोंकी अञ्जनशलाका-प्रतिष्ठाके महोत्सवमें विधिविधानके लिये मण्डपमें विराजमान थे, उस वक्त वहाँ अन्दाजन ६०-७० हाथ ऊंचा मिट्टीके ढेलोंका मेरु पर्वत चुना जा रहा था, लेकिन वह नीचेसे गीला होने के कारण और उसके ऊपर कर्मकर आदिकोंका अतिशय भार आनेसे एकदम डिगनेसे ५-७ कर्मचारी-स्त्री पुरुष नीचे दर गए, इतनेमें किसी श्रावकने कहा गुरुदेव ! मेरुपर्वतके खिसकनेसे उसके नीचे ५-७ जन मर गये, ऐसा सुनते ही गुरुश्रीने अपने स्वरोदयादि ज्ञान बलसे कहा जाओ एक भी नहीं मरा, अब तुम उन्हें जल्दीसे निकालो, यह गुरुमुखसे सुवाक्य सुनकर शीघ्र ही निकाले गये तो मणोंबन्ध ऊपर बोझा आनेपर भी चोटके सिवाय
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
१८१ ५-७ में से किसीका कुछ भी नहीं विगड़ा, यह गुरु महाराजका अनहोनार पर वाक्यसिद्धि देखकर महोत्सवमें आये हुए हजारों लोग धन्यवादके जयारवोंसे गुरुश्रीको वधाते हुए ॥ ४ ॥ भो वाचकवृन्द ! इस प्रकार गुरुश्रीके अनेक उत्तम २ दृष्टान्त हैं लेकिन ग्रन्थवृद्धिके भयसे यहाँ नहीं लिखे हैं । और जिनके धर्मचर्चासे झाबुआ नरेश श्रीमान् उदयसिंहजी और सिरोहीनृप श्रीमान् केसरसिंहजी अति भक्त हुए थे ॥ ७ ॥ चीरोलापुरवासिनामुपकृति चारुं प्रचक्रे गुरुबोध्यैवं त्वपि गुर्जरादिविषये प्राज्यं व्रतोद्यापनम् । धर्मध्यानरतो जिनादिसुजपन् जीवेषु निर्वैरकं, स्वर्गेऽगाहुणषड्नवेन्दुकलिते यो राजदुर्गे सुखम् ।।८॥ __ढाई सौ वर्ष पहिले जाति बाहर किये हुए मालवादेशान्तर्गत-ग्राम चीरोला निवासी श्रीसंघको आपश्रीने दण्ड लिये विना ही न्यातिमें सामिल करवा कर उनका बड़ा ही सुन्दर महोपकार किया । इन चीरोला संघको न्याति बाहर करनेका कारण इस प्रकार है-चीरोला गांव के निवासी किसी एक धनाढ्य सेठकी लड़की बड़ी होगई थी लेकिन उसके योग्य वर नहीं मिलनेसे माता पिता बड़े ही चिन्तातुर थे, एक समय भावी योगसे सेठको पूछे विना सेठानीने घर बैठे ही शहर सीतामऊ निवासी किसी सेठके लड़केसे सगपन करदिया, एवं सेठने भी शहर रतलाममें आकर सेठके पुत्रसे
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८२
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। सगाई करदी, बाद लड़कीके लग्नके मौके पर जानते बूझते भी वे दोनों वर वरातके साथ साडम्बर उपस्थित हो गये और व्याह करनेके लिये परस्पर कलह करने लगे, अन्तमें दोनों पक्षकी ओरसे खास न्याय करनेके लिये पंच चुने गये, बस उन्होंने यही न्याय किया कि-" पिताका कुल अधिकार पुत्र पर होता है वैसाही माताका भी अधिकार पुत्री पर है वास्ते सीतामऊका वर ही लड़कीका पति होसकता है" इस न्यायके अनुसार सीतामऊके वरका विवाह कर दिया गया । इसी दोषके कारण पट्ट गाँवके बलसे रतलाम श्रीसंघने चीरोला संघको न्याति बाहर कर दिया और आज उनको ढाई सौ वर्ष ऊपर बीत गये । उनके अन्दर अनेक वार बड़े २ साधु आचार्य व संघने उन्हें न्यातिमें सामिल करनेके वास्ते कइएक वार प्रयास किया तो भी वे सफलताको प्राप्त न हुए, हो कहांसे ? उसका सुयश व लाभ गुरुश्रीको ही मिलनेका योग था सो मिला । वाचकवर ! इसी प्रकार परोपकारमय धर्ममूर्ति गुरुश्रीने गृहस्थावास यतिपनमें अनेकानेक महोत्तम २ गुण कलाओंका अभ्यास करते हुए एवं धर्मकर्ममें निमग्न सुख पूर्वक अवस्था पूर्ण की। तदनन्तर आपश्री ने मारवाड़ मालवा गुजरात आदि देशोंमें अपने स्वाधीन यति अवस्थामें २१ और महाव्रतधारी-साधुपनमें ३९ उनचालीस चौमासे करके बहुत ही जिनशासनकी उन्नति की। उनके अन्दर ढाईसौसे भी अधिक गृहस्थोंको अपने शिष्य और हजारों नामधारी
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८३
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। श्रावकोंको सम्यक्त्व युक्त द्वादश व्रतधारी बनाकर उन पर अनेक प्रकारके असीम महोपकार करके अपना नरभव सफल किया और गुरुश्रीके सदुपदेशसे नाना प्रकारके व्रतोंके उद्यापन आदि धर्मके कार्य तो स्थान स्थान पर बहुत ही हुए हैं सो उनका कुल वृत्तान्त जिज्ञासुओंको गुरुश्रीके सविस्तर चरित्रसे जानना चाहिये । ___अब अन्तिमावस्थामें सब प्राणियों पर वैरभाव रहित धर्मध्यानमें लवलीन जिनेश्वर देवका और स्वगुरुदेवका अच्छीतरह जाप जपते हुए सुखसमाधि पूर्वक ८४ लक्ष जीवयोनिको क्षमाकर चारों आहारोंका त्याग कर और चार शरणा अंगीकार करके संवत् १९६३ की साल मालवा देशान्तर्गत श्रीराजगढ़ नगरमें पौष सुदि सप्तमीके रोज जैनश्वेताम्बरार्य-श्रीश्रीश्री१००८श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वजी महाराज सभी बातोंकी ममता रहित विनाशशील इस शरीरको छोड़कर देवलोक पधारे ॥ ८॥ किं सिन्धोःसलिलस्य कोऽपितुलनांकुर्यात् प्रवक्तुं ह्यलं, नैवं तदुरुराजकस्य सकलोदन्तं गुणौघस्त्वयम् । आहोरे गुरुभक्तितोऽष्टकमिदं सर्वेष्टदं निर्मितं, खाङ्काकेन्दुमिते 'गुलाबविजयो' वक्तीति संघं मुदा॥९॥
इस संसारमें कोई भी मनुष्य समुद्र के पानीका माप करनेके लिये क्या समर्थ हो सकता है ? नहीं २ कभी नहीं,
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८४
श्रीराजेन्द्र गुणमञ्जरी ।
इसी प्रकार उन गुरुमहाराजके कुल गुणोंका वृत्तान्त कहनेके लिये मेरे सदृश नर कभी समर्थ नहीं हो सकता, तथापि इस कलियुग में गुरुमहाराज अति प्रभावशाली, महायशस्वी, महौजस्वी, गुणसागर, चमत्कारी, और वाक्यसिद्ध, पूज्य - सूरि-रत्न हुए हैं। वास्ते वर्तमान समय में भी गुरुमूर्तियोंकी निर्मल परिणामसे आस्था पूर्वक नाना प्रकारकी बोलमा बोलकर भक्ति सेवा करने वाले अनेक जैन जैनेतर भक्त लोक अपने २ मनोवांछित फलको प्राप्त हो रहे हैं, वे कतिपय गुरुमूर्तिस्थान इस प्रकार हैं-स्वर्गमनस्थान मालवा देशान्तर्गत-शहर
6
,
राजगढ़, ' एवं - खाचरोद, रतलाम, आलीराजपुर, कूकसी, गणोद, बड़नगर, जावरा, मन्दसोर, निम्बाहेड़ा. दशाई, उत्तर गुजरात - थराद, और मारवाड़ में - आहोर, सियाणा, बागरा, हरजी, आदि कई स्थानों में भक्त लोग प्रतिवर्ष हजारों श्रीफल आदिका प्रसाद [सीरणी] चढ़ाते हैं एवं सैंकड़ों रुपयोंकी आमदनी भी होती है, और गुरुश्रीके नामका छन्द सुनने से ज्वरादिकों का कष्ट भी नष्ट होजाता है । वाचकगण ! इस तरहसे गुरुश्रीके प्रसिद्ध अनेक गुणोंके उदाहरण हैं परन्तु यहाँ स्वल्पमात्र में ही गुरुवर्यकी भक्तिसे सबको मनोवांछित देनेवाला यह अष्टक संवत् १९९० पौष सुदि सप्तमीके रोज 'गुलाबविजय' नामक साधुने शहर आहोर में बनाया ऐसा यह मुनि सहर्ष श्रीसंघके प्रति कहता है ||९||
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीवर्द्धमानस्वामिने नमो नमः । इस संसारमें जातीय, धार्मिक और सामाजिक चिरकाल स्थायी इनका कुल कार्यभार वस्तुगत्या उनकी मर्यादा पर ही निर्भर है । अत उस मर्यादाको जाननेके लिये तदनुसार प्रधानरूपसे प्रवृत्ति करनेके लिये प्राचीन आप्त आचार्योंने हरएक समय २ पर अनेक नीतिग्रन्थों एवं मर्यादापट्टोंको निर्माण किये । इसी पुरातन शिष्टाचारको ध्यानमें लेकर जैनाचार्यश्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने भी सब जगह स्वकीय-गच्छमें एक सदृश प्रवृत्ति चलती रहनेके लिये मालवी और मारवाड़ी सरल भाषामें स्वगच्छीयमर्यादापट्टक भी बनाया । जो नीचे दर्ज है- . ५४ स्वगच्छीय-मर्यादापट्टकं-३५समाचारी
श्रीहुजूर फरमावे हैं के साधु साध्वी श्रावक श्राविकाने मर्यादा पालणी तथा क्रिया करणी सो लिखते हैं, इस मुजब पालणी और करणी ॥
चैत्यवन्दनविधि(१) चैत्यवन्दन-नमुत्थुणं० अरिहंतचेइ० वंदणवत्तिक
अन्नत्थ० १ नोकारको काउस्सग्ग पारी नमोऽर्हथुइ १ लोगस्स० सवलो. वंदण० अन्नत्थ० १ नोका
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८६
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
रको कायोत्सर्ग थुइ २ पुक्खरखरदी० सुअस्सभग० वंदण० अन्नत्थ० १ नोकारनो काउसग्ग पारी नमोई ० थुइ ३ सिद्धाणं बुद्धाणं हेठा बैठी नमुत्थुणं० जावंति ० इच्छामि० जावं० इच्छा० तवन भणुं नमोई० उबसग्गादि तवन जयवीयराय संपूर्ण कही दुजा चैत्यवंदण न कहणा, लगते ही भगवान्हं इत्यादि चार खमासमणा पछे पड़िकमणो ठावणो चैत्यमें पण चैत्यवंदन उत्कृष्ट ऐसे ही जाणना ||
(२) सामायिक विधि पूर्वे करो जैसे ही और जो गुरुवंदन करणा होय तो इरियावही करने द्वादशावर्त्त वंदने करके करणा ||
(३) ठावारो पाठ - इच्छं सव्वस्सवि सब जणा साथ कहणा, आवे तो सर्व जणा साथे मिच्छामि दुक्कडं देणो, ऐसे ही वंदेतु आदिमें तथा अंतमें वंदामि जिणे चउवीसं सर्व जणा साथै कहणा.
(४) और सामायिक पडिकमण चैत्यवंदन विधि चोपडी में है ज्यों ही करणा.
(५) पूजादि विशिष्ट कारणे चौथी थुइ कहणेमें ना नहीं कहणा, नंदी प्रमुखमें भी ऐसे ही जाणना.
(६) रत्नाधिक विना दूसरे साधुकुं वांदणा देणा नहीं,
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
१८७
दोय खमासमण देई इच्छकार पूछणा, साध्वीने ऊभा मत्थण वंदामि कहणा.
(७) रत्नाधिक बिना सामेला प्रमुख करणा नहीं, आचार्य से उतार उपाध्यायका करणा, जय गुरुकी ही बोलणा, सबों की बोलणा नहीं.
(८) रस्ता में श्रावकोंने साधु साथ नहीं चलणा, मार्ग दिखाय देणो, आगे पीछे रहे हुए, सामान्य साधु साथ तो जाणा ही नहीं.
(९) जो साधु मर्यादा चूके उसका आदर सन्मान वंदनादि श्रावकोंने करणा नहीं, करेगा तो आज्ञा बाहिर है, संघको ठबको पावेगा, संसार वधावेगा.
साधु साध्वी की मर्यादा इस मुजब सो लिखते हैं ।
(१) साधु-साध्वियों ने साथे मार्गमें विचरणा नहीं, कारण होय तो आचार्यने पूछने बृहत् व्यवहार मर्यादा प्रमाणे विचरे |
(२) साध्वी होय जिण गाम में साधुने जाणा नहीं, कदी गया तो तीन दिन सिवाय रेणो नहीं, दोय माहिला एक दूसरे गाम चल्या जाणा.
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८८
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। (३) साध्वीने एकली साधु उपासरे ऊभी बैठी रेवा
देणी नहीं। (४) साध्वीने उपासरे साधु जाय नहीं, कार्य होय तो बारे
ऊभो खंखारो करे, पछे द्वारे ऊभो रही दृष्टि दे, जो प्रवर्तिनी होय तो तिसकुं जणाय पछे जाय, पांच जणा
विना ऊभो रहे नहीं। (५) साध्वी कने ओघा प्रमुखांरो काम करावे तो सर्व
सामग्री आप मिलाय देवे, साध्वीका लाया जलसे
वस्त्रादि धोवावे नहीं। (६) साधवी लाया चार आहारमेंलो एक भी आहार
लेणो नहीं। (७) साध्वियोंमें कोई भणवा वाली होय तो साधु भणावे
नहीं प्रवर्तिणी तथा दूजी साधवी भणावे और प्रवर्तिणी तथा दूजी साधवी कने इतनो बोध न होय तो दृढ़ चित्तवालो साधु साधव्यांका राग विनारो होय तिण कने भणे, जो प्रवर्तिनी कहे भणावा, तो चार जणी प्रवर्तिनी सहित बैठके भणावे, हास्य
वार्तादिक करे नहीं, घणी वार बैसे नहीं, (८) साधवी गोचरी लाई प्रवर्तिनीने दिखावे, साधुने
दिखावारो जरूर नहीं।
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। (९) वांदवा आवे जब सब जणी साथे आवे, तीन जणी
सुं वारंवार साधव्यो साधु कने आवे नहीं. (१०) साधु दोय जणा विना विचरे नहीं, साधव्यां तीन
जनी विना विचरे नहीं, आचार्य हुकुमसे न्यूना
धिक विचरे । (११) चौमासो आचार्यरा हुकुम बिना रहे नहीं, जो दूर
होय तो श्रावक कहे जद कहणा हुकुम होगा वहां
विचरांगा। (१२) श्राविकाने साधु भणावे नहीं, जो कोई श्राविका
जाणपणो पूछती होय तो श्रावक श्राविका सहित पद देणो पण एकलीने उपासरामें ऊभी राखणी नहीं, आलोयण लेवे तो बहु लोक की दृष्टीमें
बैठके देणी। (१३) साधु-साधवी अपणी नेत्रायें चेला चेली करणा
नहीं, आचार्य प्रवर्तिनीरी नेत्रायें करणा. (१४) बड़ी दीक्षा जोगविधि आचार्य विना न करणी,
आज्ञा देतो करणी। (१५) जो कोई साधु साधवी उलंठ होय आचार्यादिकने
असमंजस बोले तो तिणने आचार्य प्रवर्तिनीरा हुकम बिना गच्छ बाहिर काढणो नहीं.
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९०
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
(१६) कोई साधु पढ्यो होय तिने आचायें आचार्य उपाध्यायादिक पद दियो नहीं तो कोई साधु साधवी आचार्यादि पद देने बतलावणा नहीं, पद दियो होय तो कहणो, बिना दिये मते न केणो. (१७) पूर्वे प्रतिक्रमण चैत्यवन्दनादिक समाचारी लिखी हे वा समाचारी कोइ साधु साध्वी श्रावक श्राविका कहे तो भी आचार्यने पूछे विना ओछी अधिकी करणा नहीं, करे सो विराधक है, तर्क वितर्क उसकी मानणा नहीं.
(१८) जो कोइ साधु साधवी संघ में कहे, आचार्य प्रवर्त्तनी माने भणावे नहीं, ऐसा कहे उसकुं अविनीत विषयासक्त है, कपायी है. एसा जाणना.
(१९) साधु साघवीयें मारे भणवा पंडित राखो, एसो श्रावक कने कहणो नहीं, आचार्यने कहणो, अने श्रावकें पाठशाला मांडी होय तो वहां भणवारो अटके नहीं. साधवी तो भणे नहीं, अने परिणत वयवाली होय तो सर्व समक्ष पद लेणो चार साधव्योंने.
(२०) जो कोई साधु - माधवी आचार्यादिक साधु साधव्यांरी निंदा करे तो उनोंकुं एकान्त समझावणा, न माने तो वांदणा पूजणा नहीं.
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीराजन्द्रगुणमञ्जरी।
१९१ (२१) जिस साधु साधवीकुं गुरुयें गच्छ बाहिर किया
वो साधु साधवी कोइ तरेसे अवर्णवाद बोले तो
उसका कह्या सत्य न मानणा. (२२) जो आचार्यादिक तथा प्रवर्तिनी मूलगुणमें खोट
लगावे तथा अपणी मर्यादा प्रमाणे न चाले, समाचारी न पाले, उन आचार्यादिकको श्रद्धावान साधु साधवी श्रावक श्राविका मिल समझावणा न माने तो दूर कर दूसरे जोग्य आचार्यादिक थापन करना, जो मुलायजा पक्षपात रक्खेगा वो श्रद्धावंत अनंत
संसारी होगा, गच्छ विगड़नेका पाप उस माथे है। (२३) अभीके कालमें जलसंनिधि सोचके वास्ते रहता
है वो जल दोय घड़ी पेली वापरणा, पीछे परठ देणा, पण घणा दिन चढे रखणा नहीं, उस जलसे वस्त्रादिक धोवणा नहीं, वो जल सौच विना दूसरे काममें न लगाणा, लगावे तो उपवास १
दंडका पावेगा. (२४) साधु साधव्योंने आपणे अर्थ पुस्तकादि श्रावक
कनेसुं वेचाता लेवावणा नहीं, लिखावणा नहीं, आपणा कर भंडारमें तथा गृहस्थरे घरे मेलणा नहीं, एसेही पात्रादिक न चाहे तो परठ देणा, पण गृहस्थ घरे भंडारे न मेलणा, मेलताने श्रावक
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९२
श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। श्राविका जाण जाय ने वांदे तो आणा बाहिर, पुस्तक न उपड़े तो भंडारमें मेलणा, अपणी नेश्रा
न रखणा, “उपगरण १४ माहिला न मेलणा. (२५) उपकरणरो जो प्रमाण कह्यो है उस प्रमाण मुजब
रखणा पण लंबा चौड़ा अधिक न रखणा.
इतनी मर्यादा श्रावक लोग जानते रहणा और हेत महोबत छोड़ साधु लोग न पाले जिनोंको कहते रहणा, और कोई साधु साधवी शंका घाले समा चारीका २५ वचनोंमें तो मानणा नहीं, ये पचवीस बोल सब शास्त्र प्रमाणे हैं, कितनेक काल महातम देख कहे हैं, सो इनोंका सिद्धान्त-पाठ पीछे लिखा जायगा, और जो समाचारी प्रतिक्रमण आदि चैत्यवंदन करते हो तथा चैत्यमें करते हो वो ऊपर लिखे प्रमाणे करणा संवत् १९५६ का भाद्रवावदि ५ शुक्रवार के प्रभातसे शुरु करणा ॥श्रीवीरप्रभुशासन जयवंत वत्तौ ।। इति ॥
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्धाऽशुद्धानि ।
शुद्ध
पृष्ट
अशुद्ध प्रसशंसुः
प्रशशंसुः
बहुना
धोरं
क्योंकि
लेकिन
बहुना त्वयैवो
त्बयेवो महाराज
महारान घोरं स्तथैवा
तथैवा सफलीकर्तुं
सकलीकर्तुं सादरेणा
सादरणा सं० १९५५ आहोरके चौमासेमें, श्रीआहोरमें ७६ सं० १९५५ फाल्गुन
फाल्गुन
कौन
कोन .
शब
शब्द वकवृत्ता शब्द सभी
वकवृत्ता
शब : समी
.
C.
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ट ८६ पंक्ति ७ मी से नीचे मुजब पढें सं० १९५७ सियाणाके चौमासेमें श्रीसंघमें अतीव धर्मध्यान हुआ और शा. वन्नाजी धूपाजीकी ओरसे अत्युदार चित्तसे साडम्बर शास्त्रविधिके साथ ' श्रीवीसस्थानक ' जीका उद्यापन भी हुआ।
यहा ८९ धर्मेालु
धर्मेष्यालु ९१ १२ सं० १९६० के चातुर्मास चातुर्मास
मैत्री . १०१ किया १०३ हुई ११२
यहाँ
मैत्री
साधुकी मुहुर्मुहुः अत्यन्त मञ्जुला ग्रन्थोंमें त्यका हि तस्मात्तत् शरीरका
साघुकी मुहर्मुहुः ११८ त्यन्त मला १२५ ग्रन्थोमें
१२७ त्यक्ता १३३ तस्माऽत्तत् १४० शरीरको १४१
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रेष्ठ
स्थूलभद्रकः मणिरत्ना
देवेन्द्रसूरिजी
आदिसे अन्त
श्रष्ठ
१५९
स्थूलभद्रकः
१६०
मणिरत्ना १६२
देवेन्द्ररिजी
१६३
अन्त
१६४
मैं
कीर्ति
विक्रीडित
चार्यश्री
पदवी
त्रिस्तुतिप्रभाकर और प्रश्नोत्तरमालिका पृष्ठ १३१ पंक्ति १
में एवं पृष्ठ १६५ पंक्ति २० में भी हैं, इन ग्रन्थों के कर्त्ता दोनों गुरुवर्य हैं वास्ते उभय स्थान पर लिखे हैं ।
१६८
म
कीर्ति
विक्रिडित
चायश्र
पदवो
9"
१७३
99
१
१
५
१६
१७५
१
११
३
१६
१९
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
_