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________________ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । श्रीपूज्योऽयं पुनश्चास्य, रञ्जितो विनयादिकैः । श्रीहेमविजयाख्येन, गुर्वी दीक्षामदीदपत् ॥ ७९ ॥ फिर कुछ समय बीतने पर गुरु श्रीप्रमोदसूरिजीने बुद्धिमान् सुन्दर लक्षण युक्त इन सुशिष्य श्रीरत्नविजयजीको 'मूकीसरस्वती' पदवीके धारक याने मारवाड़में उस समयके यतियोंमें प्रखर विद्वान् यतिश्रेष्ठ श्रीसागरचन्द्रजीके पास रखकर काव्य, अलङ्कार, न्याय, कोश, और व्याकरण आदिका अतिसुन्दर रूपसे अभ्यास करवाया। गुरूकी शुभ कृपासे * श्रीरत्नविजयजी' ने कुछ समयमें ही जैनागमोंका भी अवगाहन किया, तथापि गुरुगम्यात्मक होने के लिये श्रीपूज्य 'श्रीदेवेन्द्रसूरिजी' के पास शङ्का समाधान सहित सुचारु रूपसे शीघ्र ही जैनागमोंका भी अभ्यास करलिया ।। ७२ ।। ७३ ॥ ७४ ।। और श्रीपूज्यजीने रत्नविजयजीके विनय विवेक आदि उत्तम गुणोंसे रञ्जित होकर इनको श्रीहेमविजयजीसे उदयपुरमें बड़ी दीक्षा दिलाई ।। ७५ ॥ पंन्यासपदमेतस्मै, तथास्मिन्नुदये पुरे। पुनरूचेऽथ तेनायं, ममायुर्निकटागतम् ॥७६ ॥ मच्छिष्यधरणेन्द्राख्य-सूरेः शिक्षाप्रपाठनम् । सर्व कार्य त्वयैवास्य, ह्येवमेवेत्यवक् तदा ॥७७ ।। स्वशिष्योऽपि तथाऽभाणी-दस्याऽऽदेशे प्रवर्तनम् । पठनीयस्त्वयावश्यं, तद्वचोऽङ्गीचकार सः ॥७८ ॥
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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