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________________ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। यमराज आयुष्यको नष्ट करता है, वास्ते उभय लोकमें हितकारी धर्म करना ही योग्य है, इस प्रकार संसारकी असारताको सुनकर रत्नराज तो परम वैराग्यको प्राप्त होगया ॥६७॥ क्योंकि जीव जब लघुकर्मी होता है तब धर्मकरने की वांछा करता है, अतः वह विचारने लगा कि मैं सब प्रकारकी बाह्य वस्तुओंके मोहको छोड़कर गुरुके चरणकमलका शरण लूँ.॥ ६८ ॥ वह अब अपने कुटुम्बकी आज्ञा लेकर प्रमोदसूरिजीके साथ चला, क्योंकि संवत् १९०४ में यतिलोक अच्छे थे ॥ ६९ ॥प्रमोदसूरिजीका वरताव तो साधूके समान ही था, बाद रत्नराजने प्रमोदसूरिजीके बड़े गुरुभ्राता श्री हेमविजयजीके पास संवत् १९०४ वैशाख सुदि पंचमी शुक्र वारको सहर्ष दीक्षा ग्रहण की ॥ ७० ॥ अमूल्य रत्न तुल्य मानकर इनका रत्नविजयजी नाम दिया गया क्योंकि इनमें शील सन्तोषादि अनेक महोत्तम गुण थे ॥ ७१ ॥ ८-शास्त्राभ्यासः, बृहद्दीक्षा, पंन्यासपदश्च-- मूकीसरस्वतीत्येत-दुपाधि दधतः सतः। श्रीमत्सागरचन्द्राख्य-यतिवर्यात्सुमेधसम् ॥ ७२ ॥ काव्याऽलङ्कारसत्तर्क-कोषव्याकरणादिकम् अध्यापिपद् गुरुश्चैनं, चारुलक्षणलक्षितम् ७३युग्मम् ॥ तपोगच्छेशदेवेन्द्र-सूरेः पार्थेऽथ धीवरः। आगमानां च योऽभ्यासं, सम्यग् रीत्याऽकरोदरम्
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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