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________________ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। शालामें ठहरकर इस प्रकार संघको उपदेश दिया किसारे शरीर विनाशी हैं, संपत्तियाँ शाश्वती नहीं हैं ॥ ६५ ।। और देखिये इस संसारमें प्रथम तो गर्भावस्था में मनुष्यों को स्वीकूँख के अन्दर कितना व कैसा दुःख होता है ? बाल्यावस्था में भी मलसे भरा हुआ शरीर स्त्रीके दूध पीनेका दुःख भोगना पड़ता है, तरुणवय में वियोगादिक से दुःख भोगता है, और वृद्धावस्था में तो शरीर की कमजोरी इन्द्रियों की हीनतादि कारणसे कास श्वास अजीर्णादि अनेक दुखोंका अनुभव करना पड़ता है, वास्ते हे मनुष्यो ! संसारमें स्वल्प भी जो सुखका अंश हो तो बतलाओ ? ॥ ६६ ॥ आयुर्नश्यति कालेन, विधेयो धर्म एव हि । संसाराऽसारतां श्रुत्वा, वैराग्यं सोऽगमत्परम् ॥६७॥ स्वकर्मलाघवत्वेन, जीवो धर्म चिकीर्षति । सर्वमोहं विमुच्यातः, प्रपद्ये गुरुपत्कजम् ॥ ६८॥ सोऽनुमत्या कुटुम्बस्या-ऽचालीत्साकमथाऽमुना। वेदाभ्ररत्नभूवर्षे, ह्यासन् सद्यतयस्तदा ॥६९ ॥ प्रमोदसूरिवर्यस्य, साधुदेश्यानुवर्तिनः। हेमविजयनाम्नोऽसौ, पार्श्वे दीक्षां मुदाऽग्रहीत् ७० ददेऽस्य रत्नवन्मत्वा, श्रीरत्नविजयाऽऽह्वयम् । यतो यस्मिन् गुणाः श्रेष्ठाः, शीलसन्तोषकादयः ७१
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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