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________________ ४८ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । बुद्धिसे स्वयं तिरने और अन्योंको तारने की इच्छासे उन सिद्धान्तोंका आचरण करते और विचरते हुए निर्भयतासे विश्वोपकारी गुरुमहारान श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजीने मालवा, मारवाड़, गुजरात आदि देशोंमें स्वमाननीय सिद्धान्तोंको स्थापन किये ॥ १६९-१७२ ॥ १७-रत्नपुरीचर्चायां त्रिस्तुतिसिद्धिर्जयश्चअथाऽभवन् पुरेष्वेषु, चतुर्मास्योऽस्य सद्गुरोः । रत्नपुर्यां च सत्पुर्या, पुरे राजगढेऽपि वै ॥ १७३ ॥ रत्नपुर्या पुनस्तस्यां, स्तुतिचर्चात्र चाजनि । जवेरसागरैः सार्धं, बालचन्द्रश्च वाचकैः ॥ १७४ ।। श्रीपञ्चाशकटीकायां, त्रिस्तुतिर्विधिनोदिता । नवीनैव स्तुतिस्तुर्या, प्रस्फुटीकुरुते किल ॥१७५ ॥ त्रिस्तुत्यैव मता चैत्ये, चोत्कृष्टा चैत्यवन्दना । जघन्यमध्यमौ भेदो, ह्येतावपि प्रदर्शितौ ॥ १७६ ॥ स्पष्टीकृता तथा चैवं, श्रीपञ्चाशकटिप्पने । श्रीबृहत्कल्पभाष्येऽपि, व्यवहारसुभाष्यके ॥१७७॥ फिर संवत् १९२६ का चौमासा रतलाम, १९२८ राजगढ, और १९२९ का चौमासा रतलाममें हुआ, इस चौमासेमें संवेगी जवेरसागरजी और यति बालचन्द्रजी
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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