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मूलसे काटनेके लिये श्रीपूज्यसंबन्धी उपाधी को छोड़कर श्रावक और साधुओं के सनातन एवं सच्चे धर्मका फिरसे प्रकाश किया ।
जिसके फलस्वरूपमें अनेक गाँवोंमें लोकवंचकोंकी ओरसे किये गये नाना प्रकारके उपसर्ग - वितण्डावाद आदिके कष्टोंको सहन करते हुए, भयरहित, एवं अप्रतिबद्ध विहार करते हुए गुरुश्रीने अपने सदुपदेश द्वारा असंख्य भव्य लोगोंको सम्यक्त्व रूपी रत्न देकर निर्मल धर्मकी मजबूत श्रद्धा स्थापन की । इसी प्रकार भावानुष्ठान में अन्य देवोंकी उपासना अतीव बढ़ने से प्राचीन तीन स्तुति संबन्धी मर्यादा लोपप्रायः होने पर भी उस मर्यादा को प्रमाणिक अनेक ग्रन्थोक्त अंगीकरणीय उत्तमोतम आप्त प्रमाणोंसे फिरसे विस्तार की ।
एवं गुरुश्रीने अनेक जिनबिम्बोंकी प्रतिष्ठा, अञ्जनशलाका और बहुतसे ज्ञानभाण्डारोंकी भी स्थापना की, और महोत्तम उपयोगी पौर्वात्य, पाश्चात्य एवं भारतीय - विद्वन्माननीय, समस्तजैनागमानेकानेक परमसारगर्भान्वित, प्राकृतमागधी, श्रीअभिधानराजेन्द्रकोश, वगैरह प्राकृत संस्कृत भाषामय बहुत ही साहित्यशास्त्र रचे ।
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और आपश्रीने अत्यन्त जागती हुई भावमें वहने वाली अमृतमय धर्मदेशनादि द्वारा इस जिनशासनको अत्यन्त ही दिपाया । केवल इतना ही नहीं, किन्तु इस प्रकार गुरुश्री कलियुगकी अपेक्षासे सब प्रकारसे उत्कृष्टताको धारण करते