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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। सीतामऊपुरस्थेनै-केनेभ्येन सहाऽकरोत् । ततो वृत्तान्तबुद्धेऽपि, समये वरराजको ॥३७३ ॥ जन्यैः सार्धं समायातौ, सज्जीभूय मुदा च तो। परिणेतुं विवादोऽभू-दहमेवेति जल्पतोः ॥३७४॥
श्रीसंघके अत्याग्रहसे १९६२ का चातुर्मास गुरुमहाराजने खाचरोद किया। वाचकवृन्द ! इस चातुर्मासमें गाँव चीरोला निवासी जातिच्युत श्रावक लोक गुरुमहाराजको व्याख्यानमें इस तरह अर्ज करने लगे कि-महाराज ! हम लोक महादुःख रूपी समुद्र में पड़े हुए हैं ॥३६९-३७०॥ आज उस बातको बहुत वरस बीतगये अतः हम दीनोंका आप उद्धार करावें । उसी वक्त गुरूजीके पूछने पर वे भी अपनी कुलबीती कथाको कहते हुए ॥ ३७१ ।। पहिले किसी धनाढय सेठने अपनी लड़कीको देनेके लिये रतलाममें सादी की। इधर घर पर उसकी स्त्रीने भी सीतामऊनिवासी एक सेठके साथ सगपन की बात निश्चय करली । बाद यह कुल वृत्तान्त जानते बूझते भी विवाह के मौके पर वे दोनों वर विवाहकी कुल तैयारी कर जान लेकर आए । अब मैं ही परणूंगा एसा परस्परमें बोलते हुए उन दोनोंमें व्याहनेके लिये वादविवाद होने लगा ॥ ३७४ ।। कन्यामेकां समुद्रोढुं, द्वौ वरौ समुपस्थितौ । तदीक्षितुमनेकेऽत्र, कौतुकार्थिन आययुः ॥ ३७५ ।।