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________________ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। अथान्ते पञ्चलोकास्तु, सत्यनीतिविदांवराः । इत्थं न्यायं प्रचक्रुस्ते, प्रमाणं मात्रिकं वचः ॥३७६॥ यतः पुत्री तु मातुश्चै-वाधिकारे प्रवर्तिनी। तथा शास्त्रेषु पुत्र्यास्तु, मात्रङ्गानि विशेषतः ॥३७७॥ इति नीत्यात्र यः सीता-मऊस्थो वरराजकः । कन्यापतिस्तु विज्ञेयः, सज्जनैः सत्यसाक्षिभिः॥३७८॥ सीतामउनिवास्येव, परिणिन्ये हि तां वरः। रत्नपुर्यास्तु मालिन्यं, व्यवहारे तदाऽजनि ॥३७९॥ एक कन्याको व्याहनेके लिये दो वर उपस्थित हुए हैं, इस वृत्तान्तको देखने वास्ते आसपासके अनेक कौतुकार्थी लोक आए ।। ३७५ ।। तदनन्तर सच्चे न्यायके जानकार निष्पक्षपाती पंच लोकोंने इस प्रकार का न्याय किया कि माता संवन्धी सगपनका वचन प्रमाण है ॥३७६।। क्योंकिलड़की माताके ही अधिकारमें वर्त्तने वाली होती है । शास्त्रों में भी लिखा है कि-पुत्री के शरीरमें ज्यादेतर माताके ही अंग होते हैं ॥३७७। इस न्यायसे सीतामऊका वर कन्या का पति हो सकता है ऐसी सत्य बातकी साक्षी सज्जन लोकोंको जानना चाहिये ।। ३७८ ।। इस कारण सीतामऊ निवासी वरने ही उस कन्याको व्याही । उस वक्त रतलाम वालोंके व्यवहारमें जरूर मलीनता पहुँची ॥ ३७९ ॥
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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