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________________ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। सम्मत्तं सत्तुंजे, सचं सामाइयं च सव्वण्णू । साहुत्तं सुत्ता सवणं, सत्त ससा दुल्लहा होंति॥२२०॥ श्रुत्वैवं मोतिपुत्रेण, चाऽम्बाजीत्यायेन वै । सिद्धाद्रिरैवतादीनां, संघो निर्गमितो वरः ॥२२॥ संघेऽस्मिन्नित्थमासीच, संपञ्चैत्ये द्वये वरे । राजेन्द्रगुणमञ्जर्या, नायको मेऽपरो गुरुः ॥२२२॥ श्रीधनचन्द्रसूरिश्च, मोहनविजयादयः ।। साधूनां स्वान्यगण्यानां, सपादशतमत्र वै ॥२२३॥ ___तीर्थमार्गकी धूलि लगनेसे नर कर्मरूप रजसे रहित होते हैं, तीर्थों में घूमनेसे संसारमें नहीं घूमते, तीर्थों में धन खर्च करनेसे संपत्तियाँ स्थिर रहती हैं, और भगवानकी पूजा करनेसे नर पूजनीय होते हैं ॥ २१९ ॥ सम्यक्त्व, शत्रुजय, सत्य, सामायिक, सर्वज्ञ-अरिहंतदेव, साधुता, सूत्रोंका श्रवण, ये सात सकार जीवोंको मिलना बहुत ही दुर्लभ हैं ॥ २२० ।। इस प्रकार उपदेश सुनकर मोतीजीके सुपुत्र अम्बाजीने सिद्धाचल, गिरनार आदि तीर्थोंका उत्तम संघ निकाला ॥ २२९ ॥ इस संघमें इस तरह विभूति थी-दो जिनमंदिर, श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिजी, श्रीधनविजयजी [श्री. मद्धनचन्द्रसूरिजी], मुनिश्री मोहनविजयजी आदि स्वपरगच्छके १२५ साधु थे ॥ २२२-२२३ ॥
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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