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________________ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। भी दुःखद चपलता नहीं करता था ॥४०॥ वह मतिमान् बालक हमेशा साफ संकेत के साथ देहचिन्तादि कुल क्रिया करता था ॥४१॥ प्रासुकं बुभुजे प्रायो, नाऽभक्ष्यं कन्दकादिकम् । हंसवत्क्रीडयन्नित्यं, नृवृन्दं च ह्यमोदयत् ॥४२॥ दर्शयन् स समैबालः, समं प्रीतिं समां क्रमात् । दशाब्दिक्यामवस्थायां, सर्वप्रीतिकरोजनि ॥४३॥ मातापित्रादिसर्वेषां, विनयानन्दकारकः । कालेऽल्पेऽखिलशिक्षायां, प्रवीणोऽभूत्सुधीनिधिः॥४४ ___यतो नीतिशास्त्रेऽप्युक्तम्पुण्यतीर्थे कृतं येन, तपः क्वाप्यतिदुष्करम् । तस्य पुत्रो भवेद्वश्यः, समृद्धो धार्मिकः सुधीः ॥४५॥ वरमेको गुणी पुत्रो, न च मूर्खशतान्यपि । एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति, नैव तारागणोऽपि च ॥४६॥ प्रायः अभक्ष्य प्याज लशुन आदि नहीं खाकर, भक्ष्य वस्तु को ही खाता था । सभी बालकों के साथ राजहंसके सदृश बालक्रीड़ा से नरगण को हर्षोत्पन्न, व पूर्ण प्रेम दिखाता हुआ क्रमसे दश वर्षकी अवस्थामें सभीको सुहावना लगने लगा ॥४२-४३॥ बुद्धिनिधान वह उत्तम बालक कुछ समयमें ही सब विषयोंमें चतुर हो, माता पिता ज्ञानी आदि गुणवन्त
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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