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________________ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। बाद गुरुजी प्रतिग्राम विचरते हुए 'नीमाड' प्रान्तस्थ श्रीकूकसी नगरमें पधारे । यहाँ आसोजी, देवीचन्दजी आदि अच्छे २ पण्डित श्रावक रहते थे, उन्होंने आपश्रीसे षट्कर्मग्रन्थादिकों के कठिनतर अनेक प्रश्न पूछे उनके उत्तर आपने बड़ी ही सरलतासे दिये ।। १३९-१४३ ॥ तव्याख्यानैस्तदाचारैः, परीक्ष्याऽमलहेमवत् । प्रेक्ष्य सद्व्यवहारं ते, श्रद्धाधिक्यं प्रदधिरे ॥१४४॥ यथाविध्यागमस्यैव, तथा श्राद्धव्रतानि च । कल्याणार्थ ततोऽभूवन , जैनमार्गानुसारिणः॥१४॥ व्याख्यानेऽनेन कूकस्यां, सर्वेषां बोधवृद्धये । जिनागमाः समूलार्थाः,सम्यक् सर्वेऽपि वाचिताः१४६ उपादिश्य तथा संघान् , लेखितास्तेऽमुना वराः । अन्यत्रापि चकारैवं, ज्ञानवृद्धिं बहुस्थले ॥१४७॥ महोत्तम व्याख्यानोंके श्रवणसे और उनके आचारविचारों द्वारा सुन्दर साधुके व्यवहारको देखकर सौटंचके सोने की तरह परीक्षाकर बहुतसे श्रावक श्राविकाओंने आग. मविधि पूर्वक शुद्ध सम्यक्त्व सह द्वादश व्रतोंको धारण किये, यहाँ एक मासकल्पकी स्थिरतामें कइएक श्रावक जैनमार्गानुसारी बनाये । फिर आपश्रीने इस १९२७ कूकसीके चौमासेमें सब संघको ज्ञान होने के लिये ४५ मूल जिनागमोंको व्याख्यानमें वाँचे, वैसे ही संघको उपदेश देकर ४५ जिनागम
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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