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________________ १०२ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। जीवोंको इस प्रकार उपदेश दिया है-सब जीवोंके ऊपर मित्र भाव, गुणी जनों पर अति हर्ष, दुःखी जीवों पर दयाका परिणाम, और विपरीत आचरण होने पर समभाव रखना, हे जिनेश्वर देव ! मेरी आत्मा इन चारों भावनाओंको सदा धारण करो ॥३८६॥ दूसरोंकी हित चाहना उसे मैत्री, अन्यों के दुःखों को हटाना उसे करुणा, पराये सुखोंको देखकर आत्मा सन्तुष्ट हो उसे मुदिता (प्रमोद), और अन्योंके दोषों को देखकर समभाव रखना उसको उपेक्षा कहते हैं ॥३८७।। ददे संघं तदैवोप-देशं सर्वमनोगमम् । सपादैकदयावद्भि-र्नेतव्या दण्डनं विना ।। ३८८ ।। प्रदर्शितो महालाभ-श्चैतेषां जातिमेलने । गुर्वादेयगिरा शीघ्रं, तेऽप्यङ्गीचक्रुरादरात् ॥ ३८९ । गुरुवाक्यानुसारेण, प्रतिग्रामपुरादरम् । संघाक्षराणि चाऽऽनीया-ऽदीश गुरवे मुदा ।३९० । गुर्वादेशात्ततः सर्व-संघसम्मतिभिः सह । तद्धस्तैः सर्वसंधेभ्यो, दापिता शर्करा वरा ।। ३९१ ।। पश्चलोकेषु वार्ताऽभूत् , कोऽथैतान् पूर्वमाशयेत् । कावडियाकुलोत्पन्नो, नन्दरामस्तदाऽवदत् ॥३९२॥ उस समय गुरुने सबके मनमें जच जावे ऐसा संघको उपदेश दिया । सवा विश्वाकी दया पालने वाले श्रीसंघको
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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