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________________ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। १०१ एकदम निःस्वार्थ भावदया पैदा हुई। मैं ज्यों बने त्यों हरकिसी उपायसे इनका उपकार करूं तो अच्छा ॥ ३८३ ॥ नीतिमें भी कहा है-सूरज कमलोंके समूहको विकस्वरं करता है, चन्द्रमा कुमुदके गणको प्रफुल्लित करता है, और किसीसे प्रार्थना नहीं किया गया मेघ भी समय २ पर जल वरसाता है, एवं उत्तम पुरुष भी दूसरोंके शुभ करने में अतिशय उद्यम वाले होते हैं ।। ३८४ ॥ ३४-गुरूपदेशतदुद्धारो, नवकारोपधानं चतथाऽन्येऽपि बहुश्राद्धाः, करुणारसकर्षिताः। तादृशीं प्रार्थनां चक्रु-रेतेषां जातिमेलने ॥ ३८५ ॥ यतो धर्मशास्त्रेऽप्येवं जीवानामुपदेशः“सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोद, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् मध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव! ॥ ३८६ ॥ परहितचिन्ता मैत्री, परदुःखनिवारिणी तथा करुणा । परसुग्खतुष्टिर्मुदिता, परदोषोपेक्षणमुपेक्षा” ॥३८७।। तथा करुणा रूप रससे खींचे हुए बहुतसे दूसरे श्रावकोंने भी इनको न्यातिमें मिलाने के लिये उसी प्रकार गुरुमहाराजसे अर्ज की ॥ ३८५ ॥ क्योंकि धर्मशास्त्रमें भी
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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