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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
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दण्डके बिना ही चीरोला संघको जातिमें ले लेना चाहिये ॥ ३८८ ॥ इनको जातिमें सामिल करनेके वास्ते बड़ा ही लाभ दिखाया । गुरुकी अंगीकरणीय वाणी होनेसे संघने भी आदर पूर्वक शीघ्र ही स्वीकार किया || ३८९ || गुरु वचनों के अनुसार प्रत्येक गाँव व नगरसे संघ के हस्ताक्षर जल्दी लाकर सहर्ष गुरुको दिखलाए || ३९० || बाद सर्व संघकी सम्मति के साथ गुरूकी आज्ञासे चीरोला वालोंके हाथोंसे सभी खाचरोद संघको उत्तम मिश्री दिलवादी ।। ३९१ ॥ तदनन्तर पंच लोकों में यह बात उठी कि शुरूमें अपने घर पर इनको कौन जिमायगा ? उसी वक्त कावड़ियानन्दराम बोला || ३९२ ।।
भोजयिष्याम्यहं सर्वान्, चुन्नीलालोऽप्यवक् तथा । मृणोतकुलविख्यात - स्तेऽमृभ्यामित्थमाशिताः ॥ अथ संघोsपि तैः साकं, जात्याचारं व्यवाहरत् । ततस्तेऽपि निजे ग्रामे, संघमाकार्य सर्वतः ॥ ३९४ ॥ देवगुवः समं भक्त्या, चाऽष्टाहिक महामहैः । श्रीसंघायाऽखिलं दत्त्वा, गमागमव्ययादिकम् । ३९५| आष्टाहीं चक्रिरे भक्ति, विविधैर्भोजनादिकैः । श्रीफलादिसुवस्तुभ्यः, सत्कृत्य व्यसृजन्नमुम् ॥३९६॥ ईदृशा गुरवस्ते के ?, दुष्कर कार्यकारकाः । महाश्चर्यं तदा मत्वा-त्रानेके ठक्कुरादयः ||३९७||