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श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
श्री दीप विजयो विद्वा-नाचार्यो विद्यतेऽधुना । राजते प्रतिभाशाली यतीन्द्रविजयो बुधः ।। ५२३ ॥ श्रीलक्ष्मीविजयो ज्यायान्, शास्त्राणां लेखने पटुः । गुलाबविजयः शश्वत्, सच्छास्त्राभ्यसने रतः ॥ ५२४ || श्रीहर्षविजयो धीमान्, वैयावृत्त्यकरः सदा । श्रीहंसविजयो हंस - तुल्यः शोशुभ्यते स्वतः || २२२|| इत्यादिकैर्विनेयैस्तैः, सत्त्वात्मा चाचकीत्यसौ । आत्मधर्मसुरक्तोऽभू-द्विरक्तो हि बहिर्गुणैः ॥५२६ ॥ श्वासवृद्ध्या परं मार्गे, यात्राभावं विमुच्य सः । क्रमाद्राजगढं प्राप, चरमार्हद्दिदृक्षया ।। ५२७ ।।
विद्वद्वर्य श्रीमान् मुनिश्रीदीपविजयजी थे, जिनको संवत् १९८० द्वितीय ज्येष्ठमुदि ८ के रोज जावरा ( मालवा ) में भारी समारोहसे आचार्यपद मिला था, जो विद्यमान हैं । प्रतिभाशाली कोविद मुनिश्री यतीन्द्रविजयजी थे ।। ५२३ ।। शास्त्रोंके लिखने में चतुर वयोवृद्ध मुनिश्रीलक्ष्मी विजयजी थे । सदा उत्तम शास्त्रों के अभ्यास में निमग्न मैं मुनिगुलाबविजय भी था ।। ५२४ ।। हमेशा वैयावृत्य करने वाले बुद्धिशाली मुनिश्रीहर्षविजयजी थे | राजहंस सदृश - विमलात्मा मुनिश्री - हंस विजयजी तो स्वयमेव अतीव शोभते थे ।। ५२५ ।। इत्यादि शुभ नामधारी उन विनेयों सहित सच्चगुणधारी गुरुश्री अत्यन्त शोभते थे और राग, द्वेष, मोह, माया, काम,