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________________ ८० श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । कुतो नीतिशास्त्रेऽप्युक्तम् — " दानं सुरायां सुगजो नृपाणां, युद्धं भटानां विदुषां विवादः । लज्जा वधूनां सुरवः पिकानां विभूषणं मौनमपण्डितानाम् ” ।। २९७ ।। परन्तु कितनेक सभा के लोकों से प्रेरित होकर कुछ कहनेके लिये तैयार हुआ, उस मौके पर गुरु आज्ञासे विचक्षण मुनिदीप विजयजी बोले || २९३ || यदि आप स्तुतिकी चर्चा के लिये आए हैं तो प्रथम कहो प्राकृतव्याकरणसे थुइ शद्ध कैसे सिद्ध होता है ? || २९४ || इस प्रकार प्रश्न सुनकर वादी शिरपर हाथ फेरता हुआ मौन धारण करके बैठ गया । बाद मुनि श्री यतीन्द्रविजयजी भी बोले खैर संस्कृतव्याकरणसे तो सिद्धि बतलाओ १ ।। २९५ ।। पर अनभ्याससे दोनों ही स्थानमें कुछ भी जवाब नहीं देकर वकाचरणकी मौन रूप उत्तम समाचारी में ही स्थिर रहा नीतिमें कहा भी है कि दान धनका, सुन्दर हाथी राजाओं का, युद्ध सुभटोंका, विवाद विद्वानोंका, लाज कुलांगनाओं का, मधुर स्वर कोकिलों का, इसी प्रकार मौनपन अपंडितों का परम भूषण है ।। २९७ ।। वेदषन्दभूवर्षे, चतुर्मास्यां गुडापुरे । श्रीधनचन्द्रसूरीशै - रसौ वादेऽपि हारितः ।। २९८ ।।
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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