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________________ १५० श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । रूप्याणां च सहस्राणि, मुदोदच्छालयत्तदा । तस्याश्चोपरि सद्भावै - रेवमन्येऽपि चक्रिरे ॥ ५८० ॥ उस समय श्रीसंघ के मुखसे पैदा हुए गुरुश्रीके नामके जय जय शब्दों एवं गुरुगुण गायन और अनेक तरहके बाजाओंके शब्दोंसे जमीन आसमान तो मानो वाचाल ही नहीं होगये हों अर्थात् जयगानवाजित्रादिकी ध्वनियोंसे भूमण्डल और गगन मण्डल एक शब्दमय ही होगये थे || ५७७ || इस प्रकार उस श्रीसंघने शहर राजगढसे दो माइल पर लेजा कर मोहनखेड़ा नामक उत्तम तीर्थकी भूमि पर उस वैकुंठी को स्थापन की ।। ५७८ || इस मौकेपे वैकुण्ठी पर गुरुभक्ति में राजगढ़ के और बड़नगर के श्रीसंघने बहुत ही लाभ लिया जो किसहर्ष हजारों रुपये उछाले, एवं उत्तम भावसे अन्यान्य श्री संघ भी गुरुभक्तिका लाभ लिया ।। ५७९ ।। ५८० ।। चन्दनैः कृतचित्यायां, कर्पूरागुरुकेसरैः । कस्तूरीदेवदार्वादि-द्रव्यैरेवं सुगन्धिभिः ॥ ५८१ ।। बहुभिर्धृतकुंभैच, वैकुण्ठ्या सह तत्तनोः । चक्रे संघोऽग्निसंस्कार, सानुतापश्च शुङ्मयः ॥ ५८२ | सर्वदैव जिनेन्द्रोक्त - निश्चय व्यवहारगः । लोकाचारवशादेष, - चक्राणः परिमज्जनम् ॥ ५८३ ॥ स्मरन् गुरुगुणानेषो, भावयन्नश्वरं समम् । धर्मशालां समायातो, गतरत्नः पुमानिव ॥ ५८४ ॥
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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