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________________ ૮૪ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । श्रीसंघने अष्टाह्निक महोत्सव किया, फिर संघ युक्त गुरुजी अपनी आत्माको सफल मानकर खराड़ी पधारे ॥ ३१० ॥ वहाँ सिरोहीराज्यधानी के स्वामी श्रीमान् नृप केसरीसिंहजी आपश्रीकी प्रसिद्धि सुनकर अति दर्शनाभिलाषी हुए ॥ ३११ ॥ गुरोराहयितुं तेन, प्रेषितं स्यन्दनं वरम् । प्रधानपुरुषैः सार्धं, विज्ञप्तिरपि कारिता ॥ ३१२ ॥ गुरुणोक्तास्तदारोढुं नास्मच्छीलोऽयि ! सज्जनाः ! | पादचारी समेष्यामि, वृत्तमेतन्निवेद्यताम् ॥ ३१३ ॥ शिष्ययुक्तोऽपरे घस्रे, गत्वा काले यथोचिते । उपादिशच्च भूपाय, विविधाभिः सुयुक्तिभिः ॥ ३१४ ॥ धरेशः प्रहरं यावद्, बहुप्रश्नोत्तरैः सह । सच्चर्चा गुरुणा चक्रे, केहग् योगो मिलिष्यति ॥३१५॥ तस्यां गोष्ठ्यां नृपस्वान्ते, संजहर्ष वसन्तवत् । भूयो भूयो गुरुं चैनं, तुष्टाव गुणरागतः ॥ ३६१ ॥ गुरुको बुलानेके लिये राजाने एक वग्धी भिजवाई और अपने प्रधान पुरुषोंके ज़रिये अर्जी भी कहलाई ||३१२ || गुरुने कहा कि सज्जनो ! वग्घी में बैठने का हमारा आचार नहीं है, मैं केवल पैदल ही आऊंगा, यह वृत्तान्त राजा साहबको निवेदन कर देना ।। ३१३ || बाद दूसरे दिन यथायोग्य समय पर शिष्यों युक्त गुरुमहाराजने जाकर अनेक प्रकारकी
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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