SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। सुयुक्तियोंसे राजाको उपदेश दिया ॥ ३१४ ॥ नृपने भी विचारा-ऐसा योग मुझे कब मिलेगा ? वास्ते एक पहर पर्यन्त अनेकानेक प्रश्नोत्तरों के साथ गुरुसे धर्म संबंधी उत्तम चर्चा की ॥३१५॥ उस गोष्ठीमें वसन्त ऋतु के समान भूपके दिलमें अतीव हर्ष पैदा हुआ और वह गुणानुरागसे वार वार गुरुकी स्तुति करने लगा कियथा श्रुतस्तथा दृष्टो, भवान् पूज्य ! गुणोदधे !। मद्योग्या दीयतामाज्ञा, श्रूयतां गुरुगोदितः ॥३१७॥ भो राजन् ! जैनसाधुभ्यो, यात्रिकेभ्यस्त्वया करः । निर्ग्रन्थत्वाच न ग्राह्यः, श्रुत्वौमित्यवकादरम् ॥३१८॥ ईशा गुरवस्सन्ति, कलावस्मिन् सुदुर्लभाः। बभूवाऽऽदर्शरूपोऽयं, लोकानां भाग्ययोगतः।।३१९॥ २८ कोरण्टके प्रतिष्ठाञ्जनशलाकेआहोरेऽभूचतुर्मास्ये, धर्मोद्योतस्त्वनेकधा । . .. सूरिणाऽऽद्योपधानं च, संधैः कारितमुद्धवैः ॥३२०॥ कोरंटस्थो बहुद्रव्यैः, संघश्चक्रे जिनौकसम् । मेरुवद् भात्यपूर्व हि, भूस्त्रीशीर्षशिखोपमम् ॥३२१॥ गुणसागर ! पूज्य ! आपश्रीको जैसे सुनते थे वैसे ही देखे, अब मेरे योग्य कोई आज्ञा देवें । तब गुरुजी बोले
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy