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________________ १४७ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। मुजब गुरुश्रीने [८४ ] लक्ष जीवयोनियोंके साथ भी खमतखामणा कर शरीर संबन्धी औषध वगैरह कुल उपायोंको छोड़कर अरिहन्तादिकोंके चार उत्तम शरणा ग्रहण कर और चारित्रमें लगे हुए दोषोंका सादर मिथ्यादुष्कृत देकर जैनसिद्धान्तोंकी मर्यादा पूर्वक सुख-समाधिसे अनशन [संथारा] ग्रहण किया ॥ ५६३ ॥ ५६४ ॥ वे गुरुश्री संसारमें शुद्ध महाव्रतधारी, जीवोंके महोपकारी, महाबुद्धिशाली, यथार्थ आचार्य श्रेष्ठ, कतिपय दिन पर्यन्त सुखसे अनशन में स्थिर रह कर अपने श्रेष्ठतर ज्ञान ध्यान तपस्या परोपकार और विशुद्ध चारित्र पालन आदि सद्गुणों से लोक में अति निर्मल कीर्ति फैला कर और आत्मा में सभी जीवों पर समभाव रखते हुए जैसे सर्प सुख पूर्वक अपनी चली (कांचली) को छोड़ता है, वैसेही स्वर्ग व मोक्षका साधन रूप तथा सांसारिक सभी सुखों का दाता तथापि विनाशशील स्वकीय शरीर का त्याग कर जैनाचार्यधुरन्धर-श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरी श्वरजी महाराज संवत् १९६३ पौषसुदि ७ के रोज स्वर्गवासी हुए ॥ ५६५ ॥ ५६६ ॥ ५६७ ॥ ५६८॥ ४७-गुरुनिर्वाणोत्सवस्तत्र संघभक्तिश्चपटिष्ठग्रामतर्या, सद्वैकुण्ठीति कारिता । चित्रैः कौशेयवस्त्रैश्च, सजिता वरसौचिकैः॥ ५६९ ।।
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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