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________________ १९० श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । (१६) कोई साधु पढ्यो होय तिने आचायें आचार्य उपाध्यायादिक पद दियो नहीं तो कोई साधु साधवी आचार्यादि पद देने बतलावणा नहीं, पद दियो होय तो कहणो, बिना दिये मते न केणो. (१७) पूर्वे प्रतिक्रमण चैत्यवन्दनादिक समाचारी लिखी हे वा समाचारी कोइ साधु साध्वी श्रावक श्राविका कहे तो भी आचार्यने पूछे विना ओछी अधिकी करणा नहीं, करे सो विराधक है, तर्क वितर्क उसकी मानणा नहीं. (१८) जो कोइ साधु साधवी संघ में कहे, आचार्य प्रवर्त्तनी माने भणावे नहीं, ऐसा कहे उसकुं अविनीत विषयासक्त है, कपायी है. एसा जाणना. (१९) साधु साघवीयें मारे भणवा पंडित राखो, एसो श्रावक कने कहणो नहीं, आचार्यने कहणो, अने श्रावकें पाठशाला मांडी होय तो वहां भणवारो अटके नहीं. साधवी तो भणे नहीं, अने परिणत वयवाली होय तो सर्व समक्ष पद लेणो चार साधव्योंने. (२०) जो कोई साधु - माधवी आचार्यादिक साधु साधव्यांरी निंदा करे तो उनोंकुं एकान्त समझावणा, न माने तो वांदणा पूजणा नहीं.
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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