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________________ १५४ श्रीराजेन्द्रगुणमअरी। अथ दीनादिकान् लोकान् , धान्यवस्त्रादिकैस्तदा। अतोषयद्दयाढ्योऽसौ, जैनशासनकीर्तये ॥ ५९२ ॥ विवृद्धये च धर्मस्य, गुरुदेवप्रभक्तये। विदधे शासनोन्नत्यै, श्रीसंघोऽष्टाहिकोत्सवम् । ५९३॥ वाग्निश्चयानुकूलेन, वह्निसंस्कारभूतले । मृदुस्निग्धैः सितग्रावै-रकारि ध्यानमन्दिरम् ।।५९४॥ वरिष्ठेऽस्मिन् गुरोर्गेहे, सहाऽञ्जनप्रतिष्ठया । चैकीभूतोऽन्यसंघोऽपि, दिनाष्टावधिकोत्सवैः॥५९५॥ स्वर्गीयगुरुराजस्य, सज्जनस्वान्तकर्षिणीम् । वरीयसी प्रतिच्छायां, श्रीसंघोऽस्थापयन्मुदा॥५९६।। प्रतिवर्षेऽत्र सप्तम्यां, पौषशुक्लस्य सर्वतः । सहस्रशः समायान्ति, यात्रिकास्तु दिदृक्षया ॥५९७॥ तदनन्तर चतुर्विध श्रीसंघ संसारकी उदासीनताका विचार एवं एक चित्तसे उन सुगुणी गुरुश्रीको याद करते हुए अपने २ स्थान पर पहुँचे ॥ ५९१ ॥ बाद कृपालु श्रीसंधने जैनशासनकी महिमाके लिये दीन गरीब अन्धे लूले निराधार रोगी वगैरह जीवोंको अन्न कपडोंसे और पशुओंको चारा पानी आदिसे अति संतुष्ट किये ॥ ५९२ ॥ फिर देवगुरूकी भक्त्यर्थ, जिनशासनकी उन्नतिके कारण, एवं जैनधर्मकी वृद्धि के लिये श्रीसंघने महान्
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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