SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । आगमार्थविमर्श च, साधूनां तत्प्रपाठने। निमग्नो धर्मचर्चायां, रात्रौ ध्याने विशेषतः ॥४४९॥ निःसन्देहं स्फुटं साक्षात्, सत्यरूपैः समन्वितम् । यस्माद् ध्यानप्रभावाद्य-स्त्रकालिकमलोकत ॥४५०।। ये पूज्यवर्य साघुकी कुल क्रियाओंके पालन करने में सदैव कटिबद्ध रहते थे। संसारमें बालसे लेकर वृद्ध तक सभी आमूलसे उनके स्वरूपको जानते हैं ।। ४४४ ॥ अतीव वृद्धावस्था होने पर भी आप अपने उपकरणोंको शिष्योंसे नहीं उठवाते थे, किन्तु हमेशा खुद ही उठाते थे ।। ४४५॥ क्रियोद्धार किये बाद आपने शिथिलाचारोंका प्रसंग तो कभी स्वममें भी मनसे नहीं चाहा और लोगों के लिये जिनेश्वरदेवके शुद्ध मार्गका उपदेश दिया।।४४६ ।। सत्य ज्ञान और क्रियायुक्त आपश्रीकी सब जगह उत्कृष्ट क्रियापात्रता फैल गई। रात्रिको एक ही प्रहर निद्रा लेते थे, दिनमें तो कभी नहीं ॥ ४४७॥ ८४ लक्ष जीव-योनियोंमें भयका हेतु, आत्माके ज्ञानादि गुणोंका चौर ऐसा प्रमाद रूप शत्रुका तो आपने जड़मूलसे शीघ्र मानो मस्तक ही काट दिया था ।। ४४८ ।। प्रायः आप दिनमें आगमोंके अर्थ विचारने और साधुओंको पढ़ानेमें, रात्रिको धर्मचर्चामें और ज्यादातर धर्मध्यानमें ही निमग्न रहते थे।४४९।। आप शुभ ध्यानके अनुभावसे सन्देह रहित सत्य स्वरूप प्रत्यक्ष साफ २ तीन कालके स्वरूपको देखते थे ॥ ४५० ।।
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy