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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी।
१४१ मरणं प्रकृतिःशरीरिणां, विकृति वितमुच्यते बुधैः। क्षणमप्यवतिष्ठते श्वसन ,यदि जन्तुर्ननुलाभवानसौ" चेचतुःपञ्चवर्षाणि, सन्तिष्ठेत तदा वरम् । भवच्छिष्या भविष्यन्ति, सर्वथौजस्विनः प्रभो ! ॥
संसारमें दश प्रकारके प्राणों रहित होनेसे यह जीव मर गया बस यह केवल व्यवहारमें लोग कहते हैं। परन्तु सत्यरीतिसे तो इस जीवको अजर-अमर-शाश्वत ही जानना चाहिये ॥ ५४७ ॥ क्योंकि दूसरे शास्त्रों में भी कहा है-जैसे मनुष्य जूने वस्त्रोंको छोड़कर दूसरे नवीन वस्त्रोंको धारण करता है, वैसेही यह आत्मा जीर्ण शरीरको त्याग कर अन्य नूतन देहको धारण करता है ।। ५४८॥ शरीरधारी जीवोंका मृत्यु होनेका स्वभाव है, जीवित रहना यह पण्डितोंसे पृथिवीकायिक आदिका विकार कहा गया है। यदि श्वास लेता हुआ क्षणभर भी ठहर जाय तो जीव क्या लाभवाला हो सकता है ? कभी नहीं ॥ ५४९ ।। हे प्रभो ! जो चार पाँच वर्ष विराजेंगे तो अच्छा रहेगा, आपश्रीके शिष्य भी सब तरहसे समर्थ होजायँगे ।। ५५० ॥ . नैवमस्ति ममाधीनं, चरमाहस्थिति स्मर । शक्रोक्तिरपि वैफल्यं, गता का गणना मम ॥५५१।। पुनर्भोः ! सन्ति मत्पृष्ठे, शिष्याः संघोपदेशकाः ।। धर्मकार्यधुरं वोढुं, भविष्यन्ति यथोचिताम् ।।५५२॥