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________________ १८२ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। सगाई करदी, बाद लड़कीके लग्नके मौके पर जानते बूझते भी वे दोनों वर वरातके साथ साडम्बर उपस्थित हो गये और व्याह करनेके लिये परस्पर कलह करने लगे, अन्तमें दोनों पक्षकी ओरसे खास न्याय करनेके लिये पंच चुने गये, बस उन्होंने यही न्याय किया कि-" पिताका कुल अधिकार पुत्र पर होता है वैसाही माताका भी अधिकार पुत्री पर है वास्ते सीतामऊका वर ही लड़कीका पति होसकता है" इस न्यायके अनुसार सीतामऊके वरका विवाह कर दिया गया । इसी दोषके कारण पट्ट गाँवके बलसे रतलाम श्रीसंघने चीरोला संघको न्याति बाहर कर दिया और आज उनको ढाई सौ वर्ष ऊपर बीत गये । उनके अन्दर अनेक वार बड़े २ साधु आचार्य व संघने उन्हें न्यातिमें सामिल करनेके वास्ते कइएक वार प्रयास किया तो भी वे सफलताको प्राप्त न हुए, हो कहांसे ? उसका सुयश व लाभ गुरुश्रीको ही मिलनेका योग था सो मिला । वाचकवर ! इसी प्रकार परोपकारमय धर्ममूर्ति गुरुश्रीने गृहस्थावास यतिपनमें अनेकानेक महोत्तम २ गुण कलाओंका अभ्यास करते हुए एवं धर्मकर्ममें निमग्न सुख पूर्वक अवस्था पूर्ण की। तदनन्तर आपश्री ने मारवाड़ मालवा गुजरात आदि देशोंमें अपने स्वाधीन यति अवस्थामें २१ और महाव्रतधारी-साधुपनमें ३९ उनचालीस चौमासे करके बहुत ही जिनशासनकी उन्नति की। उनके अन्दर ढाईसौसे भी अधिक गृहस्थोंको अपने शिष्य और हजारों नामधारी
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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