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________________ १२६ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । अकारादिक्रमेणास्मिन् , वर्तन्ते प्राकृतादयः । तत्संस्कृतेऽनुवादोऽस्ति, लिङ्गव्युत्पत्तिदर्शनम् ॥४८७॥ पूर्व कालमें हमारे प्राचीन जैनाचार्योंने लोगोंको बोध होनेकी वाँछासे और उन्हें शुद्ध मार्गकी मर्यादा पर चलानेके लिये, एवं स्वधर्मकी रक्षाके निमित्त उत्तम बुद्धिसे ग्रन्थरत्नरूप अनेक धर्मशास्त्र वनाये हैं, .. जिन ग्रन्थोंसे आज पर्यन्त हम लोग अङ्गुलियों [चिमटी] के बजाने मात्रसे झूठे वादके बकवादी लोगोंको लाजबावी कर देते हैं । उसी शैलीके अनुसार कुल शास्त्रों के वेत्ता आपश्रीने भी अनेक धर्मशास्त्र निर्माण किये हैं ॥४८३-४८४ ।। उनमें पहेले प्राकृत-संस्कृत ग्रन्थों के नाम कह दिये जाते हैं १ 'श्रीअभिधानराजेन्द्र' प्राकृत मागधी-महाकोश ॥४८५।। इस कोशमें मूल शब्द पर मूल शब्दका कुल बयान अनेक शास्त्रोंसे अच्छी तरहसे खींचकर लाया हुआ सुगमतासे एक स्थान पर ही मिल सकता है। उसी कारण इस कोशकी रचना ज्ञान देनेके लिये अत्यन्त सुन्दर जानना चाहिये ॥४८६॥ इसमें अकारादि वर्णानुक्रमसे मागधी, अर्धमागधी, प्राकृत आदि भाषाओंके शब्दोंका संग्रह है। बाद उनका संस्कृतमें अनुवाद है, फिर प्रत्येक शब्दका लिङ्गज्ञान, एवं व्युत्पत्ति भी दिखादी है।। ४८७ ॥ तदर्था बहुधा तत्र, यथासूत्रं प्रदर्शिताः। बृहच्छब्दाधिकाराणां, सूच्योऽपि विहितास्तथा ।४८८
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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