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________________ ६६ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । किया ।। २३१ ॥ इसके बाद क्रमसे संघ अहमदावादकी वाड़ीमें पहुँचा, वहाँके संघने अतिहर्षसे इस संघकी खूब ही सेवा की ॥ २३२ ॥ फिर बहुत आग्रहसे चौमासाकी विनति होनेपर गुरुमहाराजने मधुर वचनों से संघकी दाक्षिण्यतासे संघको संतोषकारक उत्तम जबाब दिया ।। २३३ ।। संघोऽथ वीरमग्राम, गत्वा तस्थौ सरस्तटे। संघोऽत्रत्योऽकरोद् भक्तिं, संघस्य बहुभिर्विधैः ॥२३४ चतुर्मासीयविज्ञप्ति-रभूच नवकारसी। चतुर्मासे विलम्बोऽस्ति, गुरुरेवंतमूचिवान् ॥ २३५॥ ततः संघः समागत्य, सिद्धक्षेत्रपरीसरे । मत्वा वर्धापयामास, मौक्तिकैस्तच्छिवंकरम् ॥२३६॥ सिद्धाद्री शिवसोपाने, चटित्वा शीघ्रतो गुरुः । विधिनैव युगादीशं, संधैः सार्धमवन्दत ॥ २३७ ॥ सर्वेषां जिनबिम्बानां, हर्षेण प्रतिमन्दिरे। नौकायितं भवाब्धौ हि, चक्रे दर्शनमुत्तमम् ।।२३८॥ ___ बाद संघ वीरमगाम जाकर तालाबकी पाल पर ठहरा, यहाँके संघने भी इस संघकी अनेक प्रकारसे भक्ति की ॥ २३४ ॥ नवकारसियाँ हुई, चातुर्मासकी विज्ञप्ति की गई, “ पर चौमासे का अभी विलम्ब है" गुरुने ऐसा संघको जबाब दिया ॥ २३५ ॥ पीछे क्रमसे संघ सिद्धाचलके नज़दीक आकर उसको मोक्षदाता मानकर मुक्ताफ
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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