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________________ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। भिल्लदुःखात्तथाऽरक्ष-त्तत्कुटुम्बं ततः सुताम् । दातुमैच्छत्स तस्मै तां, परं नैषीद् हृदापि सः ॥५६॥ तत्राऽर्चामादिनाथस्य, कृत्वाऽऽत्मनि सुभावनाम् । दत्त्वा दानं सुपात्रेभ्यः, मुखेनाऽऽजग्मतुर्ग्रहम् ॥५७।। एक समय त्रयोदश वर्षकी वयमें धुलेवादि तीर्थोकी यात्राके लिये रत्नराज बड़े भाईके साथ चले ॥५४॥ मार्गमें अमरपुर-निवासी श्रेष्ठिवर्य-सौभाग्यमलजी की लड़की को अपने विद्याबलसे डाकिनके दोषसे छुड़ाई ॥ ५५ ॥ तैसे ही भीलोंके दुःखसे उसके कुटुम्बकी रक्षा की, अतः शेठने अपनी पुत्री देनेके लिये इच्छा जाहिर की लेकिन परमवैरागी रत्नराजजीने तो उसकी त्रियोगसे भी वॉछा नहीं की ॥५६।। वहांपर आत्मामें सुभावना सह, आदिनाथ भगवान की पूजा, भक्तिकर और सुपात्रमें दान देकर पीछे सुख पूर्वक दोनों भाई अपने घर आए ।। ५७ ॥ ६ सिंहलद्वीपगमनं, मातापित्रोवियोगश्चकियत्काले गृहे स्थित्वा, द्रव्योपार्जनहेतवे । पुनस्तौ सिंहलद्वीपं, साऽऽज्ञयाऽगच्छतां मुदा ॥५८॥ प्राज्यं द्रव्यमुपाज्यव, कलकत्तादि वीक्ष्य तौ। पितृसेवेच्छया शीघ्रं, प्रापतुः स्वाऽऽलयं पुनः ॥५९॥
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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