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________________ श्रीराजेन्द्रगुणमञ्चरी। १६९ चाहिये, इसी लिये उनके चरित्र बनाये जाते हैं और प्रकाशित भी किये जाते हैं । जो पुरुष गुरुमहाराजकी उत्तम कीर्तिको गाते हैं वे स्वयं कीर्तिके पात्र बनते हैं। जो नर सुन्दर भक्तिसे गुरुदेवकी इस 'राजेन्द्रगुणमञ्जरी' को सुनेंगे व वाँचेंगे तो वेलड़ियोंसे जैसे-वृक्ष बीट लिया जाता है, वैसेही वे नर भी उत्तम ऋद्धियोंसे बीट लिये जायँगे-यानी उनको सब प्रकारकी सुख संपत्तियाँ स्वयमेव मिलेंगी ।। ६४४-६४८ ॥ मूले हिन्द्यनुवादे च, दत्ता चारुसहायता। श्रीमद्विजयभूपेन्द्र-सूरिभी रम्यधीधनैः ॥६४९।। पतितं नाद्यपर्यन्तं, कार्यमीहग्गुणग्रहैः। विज्ञैर्मुक्त्वा हि मे हास्यं,तौसंशोध्यौ सहाऽऽदरैः६५० नीरमध्याद्यथा हंसः, सारं गृह्णाति केवलम् । उत्तमानामियं रीती, रक्तपेव भवेन्नहि ॥६५१॥ यावच्छत्रुञ्जयस्तीर्थ-श्चन्द्रादित्यसुमेरवः । पृथ्वीसागरनक्षत्र-धर्माधर्मविचारणम् ॥६५२॥ चतुर्विधोऽस्ति संघश्च, विद्यते जिनशासनम् । तावत्संघे जयत्वेषा, पट्यमानात्र सन्नरैः ॥६५३।। ___इसके मूल और हिन्दी अनुवादमें सुन्दर बुद्धि रूप द्रव्य व्यय करनेवाले श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने मुझे अच्छी सहायता दी। क्योंकि मेरे इस प्रकारका कार्य आज दिन तक नहीं पड़ा, जिस कारण यदि मेरी बुद्धिकी हीनता
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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