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________________ १७० श्री राजेन्द्र गुणमञ्जरी । आदि अनेक दोषोंसे कहीं भी अशुद्धि रही हो तो ईर्ष्या द्वेष रहित गुणग्राही दयाशील विचक्षण लोगोंको मेरे उपहासको छोड़कर आदर पूर्वक इस 'राजेन्द्रगुणमंजरी' के मूल व अनुवादका भी संशोधन करना चाहिये। जिस प्रकार दूधजलके अन्दरसे हंस- पक्षी सारभूत - दूधको ग्रहण करता है वैसी ही उत्तम पुरुषोंकी प्रकृति होती है, लेकिन बिगड़े खूनको पीनेवाली जलोककी तरह उत्तम पुरुषोंकी प्रकृति नहीं होती । अब कर्त्ता की अन्तिम मांगलिक प्रार्थना है कि - जहाँ तक इस संसारके अन्दर प्रायः शाश्वत श्रीसिद्धाचल तीर्थ, चन्द्रमा सूर्य, सुमेरू, पृथिवी, समुद्र, नक्षत्र, धर्माधर्मका विचार, चतुर्विध श्रीसंघ और वीरजिनेश्वरदेव का शासन विद्यमान रहे वहाँ तक चतुर्विध श्रीसंघ में सज्जन लोगोंसे वाँची जाती हुई यह 'श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी' भी जयवन्त रहो ||६४९-६५३ ।। ५२ - राजेन्द्रगुणमञ्जरी - परिशिष्टकम् । । शरणानि गृहीत्वा च स्वर्गं सुखसमाधिना । पत्तनेऽगुस्तु चाssहोरे, श्रीमद्भूपेन्द्रसूरयः ॥ १ ॥ गुणाङ्काङ्करसाब्देऽत्र, माघशुभ्रमुनौ तिथौ । संघश्चक्रेऽथ तद्द्भक्त्यै, द्विकाष्ठाह्निमहोत्सवम् ॥ २ ॥ परग्रामात्समागच्छ तत्स्वर्वासं निशम्य च । श्रीसंघः शुभभावेन, गुरुभक्त्यै बहुस्तदा ॥३॥
SR No.022634
Book TitleRajendra Gun Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabvijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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